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कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे

प्रेम जनमेजय

कन्हैयालाल नंदन

नई दिल्ली। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता को अमूल्य योगदान देने वाले और आत्मीयता, संवेदनशील और मिलनसार व्यक्तित्व के स्वामी प्रख्यात कवि और साहित्यकार कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे। सतहत्तर साल की उम्र में उन्होंने दुनिया से अलविदा लिया। बीमारी ने उन्हें शारिरिक रूप से दुर्बल कर दिया था परंतु बीमारी उनकी सक्रियता पर कभी भारी नहीं पड़ी। कार्यक्रमों में वे अपने दोस्तों और परिचितों से उसी तरह से मिलने का यत्न किया करते थे जैसे कि पहले मिला करते थे। अपनी बीमारी का जिक्र आते ही एक मुस्कान उनके चेहरे पर जैसे कहा करती थी कि, बीमारी अपना काम कर रही है मैं अपना। इन दिनों वे अपनी आत्मकथा भी लिख रहे थे। नैनीताल के पास एक ताल है-नौकुचिया ताल। कहते हैं इसके नौ कोणों को एक साथ देख पाना असंभव है। इस व्यक्तित्व में भी इतने ही डाईमेंशंस हैं। इस नौकुचिया ताल के कोणों में कला, कविता, मंच, पत्रकारिता, संपादन, अध्यापन, मैत्री, परिवार आदि ऐसे कोण हैं जिन्हे किसी में एक साथ देख पाना संभव नहीं है।
सारिका, पराग, दिनमान, नवभारत टाईम्स, संडे मेल, इंडसइंड जैसी अनेक कुरसियां उन्होंने बदलीं लेकिन ये कुरसियां नहीं भी रहीं तब भी कन्हैयालाल नंदन के भीतर का इंसान नहीं बदला। विभिन्न समयों पर उनके आवश्यकतानुसार बदलते बदलाव को देखकर लगता था कि जैसे वे किसी महाकाव्यात्मक उपन्यास के पात्रों को जी रहे हैं। हिंदी साहित्य में उनके अनेक ऐसे ज्ञानी ध्यानी आलोचक मिल जाएंगे जो जब आपसे अकेले में मिलेंगे तो उनकी रचनाशीलता के पुल बांध देंगे। नंदनजी के मित्रों, शुभचिंतकों, आलोचकों, प्रशंसकों, राजनयिकों, राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, अनुजों, अग्रजों आदि की एक लंबी फौज है। इस फौज ने सुअवसर तलाश कर नंदनजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में अपने विचार व्यक्त करने में कोई कंजूसी नहीं की है।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इंदरकुमार गुजराल कहा करते हैं कि एक ऐसे दोस्त का तआरुफ करना, जिसकी जहानत और दानिशमंदी के आप कायल हों, उतना ही मुश्किल काम है जितना अपना तआरुफ खुद करना। दोनो में यकसा मुश्किलें हैं और फिर कन्हैयालाल नंदन के बारे में कुछ लिखना हो तो और भी मुश्किल है क्योंकि मैं यह तय नहीं कर पाता हूं कि उनकी शख़्सियत के किस पहलूं को लूं और किसे छोड़ूं। उनका हास्य, उनका व्यंग्य, उनकी दार्शनिक सोच, उनकी राजनीतिक टिप्पणियां, उनकी शानदार कविता या फिर अपने नन्हे-किशोर दोस्तों से बातचीत करने का उनका पुरलुत्फ़ अंदाज उनके साथ को जीवंत बनाता है।
डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी कहा करते हैं कि पद, प्रतिष्ठा अधिकार और संपन्नता उनको अपना जरखरीद बंदी नहीं बना पाए, वे एक समर्थ, स्वाभिमानी साहित्यकार हैं जो कभी टूटा नहीं, कभी झुका नहीं और झुका भी तो केवल स्नेह के आगे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार महीप सिंह के शब्दों में- 'नंदन ने सबकुछ सहा सबकुछ झेला किंतु अपनी मधुर मुस्कराहट में रत्ती भर भी कमी नहीं आने दी और अत्यंत पीड़ाजनक स्थितियों में भी कनपुरिया मस्ती नहीं छोड़ी, मुझे नंदन के संपूर्ण काव्य-सृजन में यह मस्ती, अक्खड़ता, भावुकता और सबसे ऊपर मानवीयता दिखाई देती है।'
कृष्णदत्त पालीवाल- 'नंदनजी की कविताओं की अंर्तयात्रा करते हुए मुझे टीएस एलियट की यह बात कौंधती है कि कविता का अपनी परंपरा से निरंतर संवाद है, स्वयं नंदनजी कभी अज्ञेयजी को ‘मैं वह धनु हूं’ कभी ठाकुर प्रसाद सिंह को ‘हमें न सूर्य मिलेगा न सूर्य बिंब’ कभी दिनकरजी को ‘चाहिए देवत्व पर इस आग को धर दूं कहां पर’ कभी अशोक वाजपेयी को ‘हमारे साथ सूर्य हो’ कभी कैलाश वाजपेयी को ‘जंग की तरह लगा भविष्य’ कभी दुष्यंत कुमार को ‘हर परंपरा को मरने का विष मुझे मिला’ कभी गियोमिलोव को ‘आओ छाती में बम लेकर आसमान पर हमला करें’-पालीवाल उन्हें ऐसे याद करते हैं। सुरिंदर सिंह के शब्दों में- 'नंदन के हर प्रेम-गीत की धड़कन उसकी पत्नी है- मूर्ख है मेरा यार! उसकी ‘रातों का हर सलोना झोंका’ हर ‘भीनी सी खुशबू’ एक वजूद से है। आज तक वह इंतजार कर रहा है उस रात का जब वह अपने ‘इंद्रधनुष’ से पूछने का साहस जुटा पाए कि वह उसके सपनों में क्यों आता है...।
गोपीचंद नारंग जोकि उर्दू अदब की शख़्सियत हैं का कहना है कि कन्हैयालाल नंदन की शायरी भी शउरे जात व काइनात की शायरी है। उन्होंने आम हिंदी के शायरों की तरह अपनी शायरी में खातीबाना बहना गुफ्तारी का मुज़ाहरा नहीं किया है बल्कि तमकिनत और कोमलता के साथ अपनी तख़लीकी इस्तेआशत को इज़्हारी कालब में ढाला है। यह चेहरा इतना संवेदनशील है और चश्में के पीछे छिपी आंखें इतनी बातूनी हैं कि लाख छुपाने पर भी दिल की जुबान बोलने लगती हैं। पहनने का ही सलीका नहीं बातों का भी सलीका सीखना हो तो हाजिर है। अपनों के लिए धड़कता यह दिल प्यार के नाम पर कुछ भी लुटाने को तत्पर रहता है और कोई इस लूट को नहीं लूटता है तो उस बौड़म पर गुस्सा आता है।
मैनें इस व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखा है। इस सीखने की प्रक्रिया में डांट अधिक खाई है शाब्बासी कम पाई है और कहूं कि पाई ही नहीं तो बेहतर होगा। इस श्रीमुख से शाब्बासी नहीं मिली है पर वाया भंटिडा आई इस श्रीमुखीन शाब्बासियों ने मेरा उत्साह बढ़ाया है। यह अच्छा ही रहा। उन्होंने एक सारहीन अहं नहीं पलने दिया। ‘गगनांचल’ को 2003 में छोड़ने के बाद मैंने नंदनजी से कहा कि मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। वे बोले-क्या सीखा है, राजे!’ मैं- वो फिर कभी बताऊंगा।’ इसके बाद नंदनजी ने जब ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादन और प्रस्तुति की प्रशंसा की तो मैंनें कहा- यही सीखा है जिसने आप जैसे अनुभवी एवं वरिष्ठ संपादक से मेरे संपादकीय कर्म की निष्पक्ष प्रशंसा करवा दी।
नंदनजी का एक काव्य संकलन है, 'समय की दहलीज' वह समय-समय पर लिखी कविताओं को एक किताब में संकलित कर प्रस्तुत मात्र करने का प्रयत्न नहीं है अपितु कविता को एक वैचारिक सलीके से अपनी सम्पूर्ण गम्भीरता के साथ पाठकों से संवाद करने का आत्मीय आग्रह है। संकलन के हर पन्ने पर कवि नंदन उपस्थित हैं। यही कारण है कि संकलन की भूमिका नारेबाजी से अलग, एक कवि की विभिन्न समय- अन्तरालों में संचित सोच और काव्य अनुभवों का गद्य-गीत है। कवि ने जिन्हें अपने नोट्स कहा है वे वस्तुतः सारगर्भित सूत्र हैं जो कन्हैयालाल नंदनीय दृष्टि से अपने परिवेश को समझने के प्रयत्न का परिणाम हैं। इन नोट्स के आधार पर ही कविता पर एक सार्थक बहस की जा सकती है।
नंदनजी का संक्षिप्त परिचय जन्म- 1 जुलाई 1933, गांव परस्तेपुर, जिला-फतेहपुर उत्तर प्रदेश। शिक्षा- बीए, डीएवी कॉलेज, कानपुर, एमए प्रयाग विश्वविद्यालय और पीएचडी भावनगर विश्वविद्यालय से की। चार वर्ष तक मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में अध्यापन किया। सन् 1961से 1972 तक टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह के धर्मयुग में सहायक संपादक रहे। उसके बाद दिल्ली में क्रमश: पराग, सारिका और दिनमान के संपादक रहे। तीन वर्ष तक दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक, छह वर्ष तक हिन्दी संडे मेल में प्रधान संपादक और 1995 से इंडसइंड मीडिया में निदेशक के पद पर। उनकी प्रमुख कृतियां हैं-लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुजरा कहां-कहां से। कन्हैयालाल नंदन को भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार, मीडिया इंडिया, कालचक्र और रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

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