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जब मुखिया है राजी तो क्या करेगा काज़ी?

केंद्र सरकार में राज्य की फाइलों की पैरवी जीरो

दिनेश शर्मा

Friday 07 June 2013 01:53:49 AM

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में इस बार बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार के बनने के बावजूद राज्य में प्रशासनिक अस्थिरता और घोर अव्यवस्था फैली हुई है। नई सरकार के गठन के दिन से ही शासन से लेकर जिलों तक में धुआंधार प्रशासनिक तबादले, जांचें, निलंबन, एफआइआर, मुख्य सचिव प्रशांत मिश्र एवं कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के समानांतर शासन और दोनों की कार्यशैली में भारी अंतर इस अव्यवस्था के खास कारण माने जाते हैं। इनके अधीनस्थ नौकरशाह इनमें से किनके साथ चलें? वे यह तय नहीं कर पा रहे हैं। प्रशासनिक फैसलों और इन दोनों के बीच कार्य विभाजन में साफ-साफ अस्थिरता और अपना वर्चस्व कायम करने की छाया देखी जा सकती है। मुख्यमंत्री मायावती को क्या यह सब पता नहीं है? इस पर कहने वाले कह रहे हैं कि जब मुखिया है राजी तो क्या करेगा काज़ी ?
देखा जा रहा है कि सरकार के जितने भी विवादास्पद मामले हैं, उनकी जांच और जवाबदेही मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्र की है और मंत्रिपरिषद के नव नियुक्त सदस्यों को शपथ दिलाने, राज्य स्तरीय समीक्षा बैठकों की अध्यक्षता करने, मुख्यमंत्री से संबंधित प्रमुख कामकाज, मुलाकात, प्रेस ब्रीफिंग जैसे मामले व्यवहारिक तौर पर कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के अधीन दिखाई देते हैं। मगर इस पद की गरिमा यहां तक गिर चुकी है कि जो कार्य आमतौर पर विशेष सचिव और निजी सचिव स्तर का माना जाता है वह काम भी कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह खुद ही करते नजर आ
रहे हैं। मुख्यमंत्री की मंडल या जिलों में समीक्षा बैठक या प्रदेश के बाहर की बैठकों के कार्यक्रम को छोड़कर उनके भ्रमण दौरों और औचक निरीक्षण पर उनके साथ विशेष सचिव या हद से हद सचिव स्तर तक के अधिकारी के जाने की व्यवस्था और परंपरा रही है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि यह काम कैबिनेट सचिव ने अपने हाथ में ले रखा है। मुख्यमंत्री सचिवालय के अधिकारियों की जगह वह  खुद मुख्यमंत्री के साथ ऐसे भ्रमण दौरों पर जाते हैं।
मुख्यमंत्री की गैर मौजूदगी में समीक्षा बैठकों की अध्यक्षता करने की परंपरा और व्यवस्था भी हमेशा मुख्य सचिव के जिम्मे रहती आई है। क्योंकि, मुख्य सचिव ही अपने प्रदेश की नौकरशाही का मुख्य प्रशासनिक नियंत्रक माना जाता है। चूंकि वह प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों का समीक्षक होने के नाते प्रविष्टियों और सेवा संबंधी मामलों का मुख्य कार्यकारी कहलाता है, इसलिए प्रशासनिक विफलता के प्रति भी वह ही मुख्यमंत्री को जवाबदेह माना जाता है, लेकिन यहां उल्टा हो रहा है। व्यवहारिक रूप से इस व्यवस्था पर कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ही काबिज हैं। मजे की बात यह है कि उन्हे उस तरह का और प्रशासनिक तौर पर न्यायिक कार्यों के करने का अनुभव भी नहीं है। उन्हें यह जिम्मेदारी देते समय प्रशासनिक कार्य अधिकार नियमों की भी उपेक्षा की गई है। ज्यादातर कार्य अधिकार जुबानी ही चल रहा है, इसलिए राज्य में प्रशासनिक विफलता की जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है।
कहते हैं कि दोनों अपनी नाकामियां या तो एक दूसरे पर मढ़ रहे हैं या अपने खास लोगों के सामने इस नाकामी का दोष मायावती को देते हैं। बहरहाल फजीहत मायावती की ही हो रही है।
पुलिस भर्ती घोटाले की जांच में विफलता इसका सबसे बड़ा प्रमाण है
विफलता की  जिम्मेदारी कोई भी बड़ा अधिकारी लेने को कोई तैयार नहीं हैं। इस जांच में विफल रहने पर ही इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की सिफारिश की गई थी जिस पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल की टिप्पणी आ गयी है कि यूपी में पुलिस भर्ती में कथित घोटाले की जांच सीबीआई से कराने का कोई औचित्य नहीं है। इसके अलावा भी राज्य सरकार ने सीबीआई जांच के लिए जो मामले भारत सरकार को सौंपे थे, उनकी भी सीबीआई जांच करने के मामले में राज्य सरकार के हाथ निराशा ही लगी है। इसी प्रकार राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से प्रदेश के विकास के लिए जो भी आर्थिक पैकेज मांगे हुए हैं, उनकी भी सफलतापूर्वक पैरवी नहीं हो पाई और वह पैकेज विवाद और उपहास का विषय बन गए हैं। इतना और हुआ कि इन पर राज्य सरकार का केंद्र सरकार से टकराव शुरू हो गया जिससे मायावती सरकार को प्रतिकूल स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। इन आठ महीनों में राज्य सरकार का कोई भी ऐसा विकास कार्यक्रम सामने नहीं आया है जिसे मायावती सरकार अपनी उपलब्धि बताए जिनका यूपी के शहरों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाकर धुआंधार प्रचार किया जा रहा है वे अभी केवल प्रस्ताव एवं भावी योजनाएं हैं, जो अभी केवल कागजों पर ही देखी जा सकती हैं, जबकि उनका प्रचार ऐसे किया जा रहा है जैसे मायावती सरकार ने इन आठ महीनों में ही इतने बड़े पैमाने पर राज्य में विकास कार्य करा दिए हैं।
यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि मुख्यमंत्री ने विकास और अधिकारियों के कार्यों की समीक्षा बैठकें करने के साथ-साथ क्या अपने मुख्य सचिव और कैबिनेट सचिव एवं अपने सचिवालय के प्रमुख सचिवों को दी गई जिम्मेदारियों की प्रगति और
उनके कार्यों की भी समीक्षा की है या नहीं? पहली बार मुख्यमंत्री सचिवालय में प्रमुख सचिव स्तर के तीन, सचिव स्तर के तीन, विशेष सचिव स्तर के दो अधिकारी तैनात किए गए हैं, उनकी क्या उपयोगिता है? भारत सरकार और उसके विभिन्न मंत्रालयों से समन्वय स्थापित करने और उनके यहां लंबित अपने राज्य की फाइलों पर सकारात्मक परिणामों की क्या स्थिति है? अनुस्मारक भेजने और तुरंत ही उनका प्रेस से प्रचार कराने से क्या अभिप्राय है? उनपर कार्यवाही कराने की जिम्मेदारी किनकी है? मुख्यमंत्री की? मायावती की? या मुख्यमंत्री मायावती की? या मुख्य सचिव, कैबिनेट सचिव और मुख्यमंत्री सचिवालय में एनेक्सी पंचम तल पर जैमर लगाए बैठे प्रमुख सचिवों की? अगर यह उनकी जिम्मेदारी नहीं है तो किनकी है और इनकी जिम्मेदारी क्यों नहीं है? सच तो यह लगता है कि राज्य की नौकरशाही के ये शीर्ष अधिकारी अपना मुख्य कार्य छोड़कर ज्यादातर समय राज्य में नौकरशाहों के तबादलों और उनकी राजनीति में लगा रहे हैं और राज्य सरकार को भारत सरकार से अपने विकास कार्य के लिए पैरवी करने और उनके सकारात्मक परिणाम हासिल करने का काम बिल्कुल ठप है। अपनी इस नाकामी को छिपाने के लिए वह केन्द्र सरकार को लिखे गए पत्रों अनुस्मारकों को तुरंत ही प्रेस को जारी करने से ज्यादा और क्या कर रहे हैं? कहा जा रहा है कि यह अपनी विफलता का मुद्दा मायावती की दृष्टि में दबा रहे हैं। कथित पुलिस भर्ती घोटाले को उजागर करने का मामला पूरी तरह से टांय-टांय फिस्स साबित हुआ है और राज्य सरकार इसमें आज बैकफुट पर दिखाई पड़ रही है। यह मामला पूरी तरह से मुख्य सचिव, कैबिनेट सचिव और मुख्यमंत्री सचिवालय के संबंधित प्रमुख सचिवों की निगरानी में था और है। राज्य सरकार को यह मामला सीबीआई को सौंपना पड़ा और इसमें भी विफलता के लिए कौन जिम्मेदार है?
जहां तक मायावती का प्रश्न है तो वह राज्य की मुख्यमंत्री हैं, जिनका कार्य सरकार के नीतिगत फैसले करना और राज्य के विकास के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाना एवं राज्य में अपना लोकप्रिय शासन स्थापित करना है। उनके कार्यक्रम लागू कराना मुख्य सचिव, कैबिनेट सचिव और उनके विभागीय सचिवों का
प्रमुख कार्य है। मुख्यमंत्री सचिवालय की मायावती की यह टीम इसमें कहां तक सफल हुई क्या इसकी समीक्षा हुई है? मायावती सरकार एक फैसला लेतीं हैं और दूसरे दिन उसको कोर्ट में चुनौती मिल जाती है और मामला यथास्थिति में चला जाता है, यह क्रम अनवरत जारी है। राज्य सरकार के विभिन्न मामलों की पैरवी की मुख्य जिम्मेदारी राज्य के मुख्यसचिव की होती है जो भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से समन्वय स्थापित करके उनको क्रियान्वित कराते हैं। इस बार तो राज्य सरकार ने शशांक शेखर सिंह के रूप में अलग से कैबिनेट सचिव की नियुक्ति कर उन्हें मुख्यसचिव से ज्यादा अधिकार संपन्न बना रखा है, लेकिन तब भी राज्य सरकार भारत सरकार से समन्वय स्थापित करने में विफल साबित हो रही है।

राज्य सरकार का लगभग हर एक महत्वपूर्ण कदम केंद्र से टकराव की तरफ बढ़ रहा है इसे रोकना और अपने राज्य के सत्तारुढ़ राजनीतिक नेतृत्व के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करना भी इन्हीं का काम होता है जिसमें यह पूरी तरह से विफल साबित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का भी बुरा हाल है। राज्य के डीजीपी विक्रम सिंह, जिलों के पुलिस कप्तानों जिलाधिकारियों और थानेदारों का काम राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से निपटने और राजनेताओं एवं अन्य महानुभावों की बेगार करने में ही सिमट गया है। प्रशासनिक विफलता का दोष भी क्या मायावती के माथे मढ़ा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर राज्य की नौकरशाही के सिरमौर बने बैठे मुख्य सचिव प्रशांत मिश्र और कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह एवं उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह के अलावा और किसी के पास नहीं है।
कैबिनेट सचिव अपने को कुछ जिम्मेदारियों से परोक्ष रूप से अलग किए हुए हैं, उदाहरण के लिए गौर कीजिए! राज्यसभा सदस्य सतीश चंद्र मिश्र की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त राज्य सलाहकार परिषद का गठन किया गया, हैरत वाली बात है कि उसमें मुख्य सचिव तो सदस्य हैं, लेकिन राज्य के कैबिनेट सचिव इस परिषद में कहीं नहीं हैं। क्यों नहीं हैं? कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के पास इसका जवाब नहीं है। इसका जवाब राज्य के नियुक्ति और कार्मिक विभाग के पास भी नहीं है। उसके अधिकारी इस सवाल से कन्नी काट जाते हैं। ज्यादा जानकारी की कोशिश करने पर फोन काट देते हैं या मिलते ही नहीं हैं। कोई-कोई कह भी देता है कि जब मुखिया राजी तो क्या करेगा काजी? दरअसल कैबिनेट सचिव का पद केवल कैबिनेट से संबंधित मामलों को निपटाने के लिए है, जिसकी सीमित भूमिका है। इस पद की कभी जरूरत ही नहीं समझी गई। मुख्य सचिव जब कैबिनेट की बैठक मे उपस्थित होते हैं तो उस समय उनका दर्जा स्वतः ही कैबिनेट सचिव का भी हो जाता है। वह ही कैबिनेट के फैसलों को लागू कराने के लिए जवाबदेह माने जाते हैं, लेकिन अलग से कैबिनेट सचिव की नियुक्ति होने से राज्य में प्रशासनिक अस्थिरता फैल रही है। अधिकांश कार्य सीधे कैबिनेट सचिव की देखरेख में हो रहे हैं।

अब यह कोहरे की तरह छंटने लगा है कि मुख्य सचिव केवल नाम के हैं लेकिन पर्दे के पीछे से सब कुछ शशांक शेखर कर रहे हैं चाहे वह उनके अधिकार का मामला हो या नहीं। इसलिए ज्यादातर नौकरशाह भी इन्हीं के आगे पीछे हैं। ऐसे में पूर्ण बहुमत की सरकार कहां खड़ी है, यह आप तय कीजिए।

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