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...तो आजाद हुआ थारूओं का सुरमा!

डीपी मिश्रा

लखीमपुर-खीरी।दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के कोर जोन में बसे सुरमा गांव वालों को केन्द्र सरकार के वनाधिकार अधिनियम के तहत राजस्व विभाग की टीम ने उनकी भूमि पर मालिकाना हक देने का अभियान शुरू कर दिया है। इससे गांव नही वरन् पूरे थारू क्षेत्र के निवासियों में खुशी की लहर दौ़ड़ गई है। पिछले साल उच्च न्यायालय ने गांववासियों को यहां से स्थानान्तरित करने का आदेश जारी किया था।
उत्तर प्रदेश राज्य के लखीमपुर खीरी जनपद में स्थित दुधवा राष्ट्रीय उ़द्यान में पीढ़ियों से बसे थारू जनजाति के आदिवासियों के एक गांव सूरमा की बेदखली पर रोक लग गयी है। कुछ माह पूर्व वन विभाग ने एक बार फिर बेदखली के आदेश दे दिये थे और करीब एक माह पूर्व तीन दिन के अन्दर-अन्दर बेदखल करने की चेतावनी दे दी गयी थी, लेकिन अब केन्द्र सरकार के अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत निवासी वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत उसी गांव में राजस्व विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी जरीब लेकर गांव की ज़मीनों को नापकर उन्हें भूमि पर मालिकाना हक देने की प्रक्रिया में जुट गये हैं। अपने को महाराणा प्रताप सिंह का वंशज बताने वाले ग्राम सुरमा के निवासियों का यह एक ऐसा गांव है, जो थारू जनजाति के लोगों ने घने जंगलों में बसाया था। उस समय न तो यह जंगल अंग्रेजों के अधीन था और न ही वनविभाग के। भारत-नेपाल सीमा से सटे घने जंगलों में यहां करीब पचास की संख्या में थारू जनजाति के गांव बसे हैं। इनकी अपनी एक विशेष संस्कृति एवं अपनी अलग पहचान है। यहां तक कि इन थारूओं की रिश्तेदारियां भी क्षेत्र से सटे नेपाल देश के सीमावर्ती गांवों में है।
आजादी से पहले अंग्रेजों की नजर जब यहां के बेशकीमती जंगलों पर पड़ी तब उससे भी पहले से वन विभाग ने इनकी देखरेख शुरू कर दी थी। वनविभाग के अफसर और कर्मचारी जो कि अपने आप को जंगलों का जमींदार समझते हैं, वह यहां बसे थारूओं के गांवों से प्रत्येक परिवार से गल्ला लेना अपना अधिकार समझने लगे, यह प्रथा आज तक जारी है। आजादी के बाद देश तो आजाद हुआ लेकिन खीरी जनपद के इन जंगलों में बसे आदिवासी-जनजाति के गांवों के भोले-भाले थारू गुलामों की तरह ही अपना जीवन व्यतीत करते रहे। इस बीच सन् 1977 में दुधवा राष्ट्रीय पार्क की स्थापना करके वन्य जन्तु संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत उन्हें मान्यता देनी थी जबकि कानून की धाराओं में यह स्पष्ट लिखा गया है कि राष्ट्रीय उद्यान की प्रक्रिया पूर्ण करने के पहले वहां अगर कोई गांव बसे हुये हों तो उनके अधिकारों को निर्धारित किया जाये, लेकिन ऐसी किसी भी प्रक्रिया को पूर्ण न करके राज्य सरकार को धोखे में रखकर दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की प्रक्रिया को बिना थारू क्षेत्र में निवास कर रही जनजातियों के अधिकारों का निर्धारण किए, पूरा कर लिया गया। इस स्थिति में ग्राम सुरमा और गोलबोझी को कोर जोन में डाल कर अतिक्रमणकारी साबित करते हुये लगातार बेदखली के आदेश जारी किये जाते रहे।
सूरमा गांव के लोगों के पास कृषि योग्य खेती और घर के बदले वैकल्पिक व्यवस्था की तो गई मगर इसमें भी जिन 6 खंडों में इन्हें बसाने के लिये भूमि आवंटित की गई थी वहां पहले से ही थारू जनजाति के अन्य परिवार बसे हुये थे। इसके बाद सूरमा गांव के जागरूक नागरिकों ने सन् 1980 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में एक रिट याचिका दायर की जिस पर लगातार 23 वर्ष तक चली सुनवाई के बाद अन्ततः सन् 2003 में वन विभाग की ही जीत हुई। न्यायालय ने भी आदिवासी जनजाति के अधिकारों को मान्यता न देकर अतिक्रमणकारी ही करार दिया और उन्हीं 6 खण्डों में बसाने का आदेश दिया था। इस पर वन विभाग भी उच्च न्यायालय गया था जिसके अनुसार उच्च न्यायालय ने सुरमा गांव को उसे आवंटित की गयी भूमि पर ही पुर्नस्थापित किये जाने का आदेश दिया था, किन्तु सुरमा के निवासियों ने विस्थापित होने से साफ इन्कार कर दिया और वे उच्च न्यायालय के आदेश एवं वन विभाग के उत्पीड़न के खिलाफ राष्ट्रीय वन श्रमजीवी मंच के बैनर तले संघर्ष करते रहे।

वनाधिकार कानून 2006 के संसद में पारित होने के बाद थारू जनजाति के ग्राम सुरमा के निवासियों में एक बार फिर उम्मीद की किरण जाग उठी। सूरमा और गोलाबोझी गांवों के इस मामले को वनाधिकार कानून 2006 के तहत गठित की गयी राज्य स्तरीय निगरानी समिति में लगातार उठाया गया। सुरमा गांव से ही मनोनीत राज्यस्तरीय निगरानी समिति के सदस्य रामचन्द्र राणा का कहना है कि वन विभाग का एक छोटे से छोटा कर्मचारी भी आकर उनको काफी अपमानित करता रहता है और जब से यह कानून पास हुआ तब से वे बहुत जल्दी ही उन लोगों को यहां से भगाना चाहते थे, यहां तक कि उन्होंने प्रत्येक परिवार को 10-10 लाख रुपये देने का प्रलोभन भी दिया। उनका कहना है कि इसी जंगल में बिली अर्जुन सिंह के कब्जे में 250 एकड़ भूमि थी, लेकिन उन्हें इस अतिक्रमित भूमि से कभी भी बेदखल करने की कोशिश अथवा अन्य कोई कार्यवाही वन विभाग ने नहीं की। राणा ने सरकार से मांग की है कि अब बिली अर्जुन सिंह के मरने के बाद उनकी अतिक्रमण वाली समस्त भूमि ग्रामसभा के अधीन कर दी जानी चाहिये।
सूरमा और गोलबोझी के बारे में राज्य सरकार एवं राज्य निगरानी समिति में लगातार रामचन्द्र राणा और विशेष आमंत्रित सदस्य रोमा के यह मामला उठाने पर जहां महज छह महीने पहले वन विभाग और जिला प्रशासन ने सुरमा गांव की बेदखली की तैयारी पूर्ण कर ली थी, वहीं 2 दिसम्बर 2009 को मुख्य सचिव अतुल कुमार गुप्ता की अध्यक्षता में राज्य निगरानी समिति की बैठक में तमाम आलाअफसरों की मौजूदगी में सूरमा प्रकरण और जनपद खीरी में टॉगिया वन ग्राम एवं वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति पर रामचन्द्र राणा ने वन विभाग के उत्पीड़न का खुलासा किया और बताया कि राज्य सरकार का कोई आदेश न होने के बावजूद भी वन विभाग और जिला प्रशासन के लोग वहां कई गांवों के लोगों को 10 लाख रुपये देने का प्रलोभन देकर गांव खाली करने पर बाध्य कर रहे हैं। इस पूरे मामले की जांच कराने के बाद सरकार ने उच्च स्तरीय निर्देश जारी किये थे कि सूरमा गांव में ग्राम वनाधिकार समिति का गठन कर इस गांव के दावों को आमंत्रित किया जाये। परिणाम स्वरूप राजस्व विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों ने गांव पहुंचकर ग्रामीणों को उनकी जमीन पर मालिकाना हक देने के लिये नपाई शुरू कर दी है। इससे ग्राम सुरमा में ही नही पूरे थारू क्षेत्र में खुशी की लहर दौ़ड़ गई है।
इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि थारू क्षेत्र के अन्य कई गांवों के तमाम निवासियों ने सुरमा पहुंचकर जमीन की नाप-जोख होते देखकर इसे जनशक्ति की विजय बताई है। यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह जीत आदिवासियों की जनवादी संघर्ष और जनसंगठनों की भी विजय है। आजादी के 64 साल और भारतीय गणतंत्र के 60वें साल में सूरमा गांव के निवासियों के अपने बुनियादी संवैधानिक अधिकार बहाल होने जा रहे हैं, अब जल्द ही यह गांव राजस्व ग्राम में बदल जायेगा।

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