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उप्र विधानसभा: अब न अभिभाषण पर शांति ना बजट पर चर्चा!

दिनेश शर्मा

उप्र विधान भवन‌

लखनऊ। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल कम से कम पिछले दो दशक से विधान सभा में अपना पूरा अभिभाषण नहीं पढ़ पा रहे हैं। विधान सभा सत्र का इतिहास गवाह है कि राज्यपाल को अपना अभिभाषण हर बार एक मिनट में ही पूरा कर देना पड़ा। यह बात आश्चर्यचकित कर देने वाली है किंतु ये सत्य है कि ऐसा होता आ रहा है। विधानसभा सत्र शुरू होने के मौके पर विपक्ष सदन में इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर देता है कि राज्यपाल को अपना अभिभाषण पढ़ना मुश्किल हो जाता है जिससे अब अभिभाषण की पहली और अंतिम लाइन पढ़कर ही जय हिंद के साथ अभिभाषण पढ़ा हुआ मान लिया जाने लगा है। यही हाल राज्य सरकार के वार्षिक बजट का है जिसे बिना बहस के ही पास किया जाने लगा है। इससे जहां बजट की गड़बडि़यां ढक गई हैं वहीं उस पर तार्किक बहस की गौरवशाली परंपराओं का पतन हो रहा है।
आखिर राज्यपाल का अभिभाषण है क्या? और उसे विधानसभा सत्र के शुभारंभ पर ही क्यों पढ़ा जाता है, यदि आज किसी से यह सवाल पूछा जाए तो शायद ही इसका संतोषजनक उत्तर मिले। राज्यपाल का अभिभाषण सरकार की कार्यप्रणाली, उपलब्धियों, भावी कार्यक्रमों और योजनाओं का एक दस्तावेज होता है। इसमें सरकार की नीतियों, सामाजिक आर्थिक सरोकारों पर भी टिप्पणियां होती हैं। इसमें सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाली बातें होती हैं। इसी आधार पर सदन में विपक्ष सरकार को घेरता है और उसमें कही गई बातों पर बहस करता है। इसे सरकार की झूंठी कहानियां कहकर वह राज्यपाल के अभिभाषण का सदन से बहिष्कार करता है, सरकार के सामने उसकी प्रतियां फाड़ देता है। कभी तो उस समय सदन की कार्रवाई दिनभर के लिए स्थगित कर देनी पड़ती है। विधानसभा में अब तो जैसे अभिभाषण पूरा करने की कोई आवश्यकता या सार्थकता ही नहीं रह गई है। इसे बिना पढ़े ही पढ़ा मान लिए जाने की परंपरा अमर हो गई है। सदन की कितनी बैठकों का उदाहरण लें जब राज्यपाल को अभिभाषण शुरू ही नहीं करने दिया गया।
हर कोई चिंतक यह पूछता है कि इस सदन में जिसमें नैतिक मूल्यों के पक्षधर, बड़े-बड़े दार्शनिक, नीतिज्ञ और बुद्घिजीवियों का समृद्घशाली इतिहास मौजूद हो, राज्यपाल का अभिभाषण पूरा क्यों नहीं होने दिया जाता? ऐसा नहीं है कि सदन में सभी विधायक व्यवधान पैदा करते हैं। ऐसे भी हैं जो लोकतंत्र की खातिर अभिभाषण की महत्ता को समझते हैं, मगर उन विधायकों की आवाज आज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनी हुई है। राज्यपाल का अभिभाषण सुनने के लिए विधानसभा की दर्शक दीर्घाओं की सीटें कभी बुद्घिजीवियों और राजनीतिक सामाजिक आर्थिक टीकाकारों छात्रों और शोधकर्ताओं से भरी रहा करती थीं मगर आज इन दीर्घाओं में इनमे से कोई नजर ही नहीं आता। इनकी जगह नेताओं के चेलों ने ले ली हैं।
राज्यपाल के अभिभाषण का अवसर ही क्यों, सरकार के वार्षिक बजट का भी यही हाल है। इसे भी अब बिना बहस के ही पारित कर दिया जाने लगा है। देखा गया है कि सदन में बजट की जटिल बहस में न पड़ने की दोनों ओर से ही अपरोक्ष रजामंदी सी दिखाई पड़ती है। विपक्ष के सदस्य केवल विरोध प्रकट करने की रस्म सी निभाते दिखते हैं। इसका एक बड़ा कारण सदन में बजट पर बहस करने वाले सदस्य गिने चुने ही बचे हैं। सदन ऐसे सदस्यों से पामाल होता जा रहा है। विधान सभा के बजट सत्र का यह भी इतिहास है कि एक समय एक विभाग के बजट पर दिनभर चर्चा हुई जो रात के दो-दो बजे तक जारी होने के बाद बजट पास हुआ।
बजट पर बोलने वाले एक से बढ़कर एक दिग्गजों के तर्कों के सामने सरकार निरुत्तर रहा करती थी। बहस के समय तक दोनो पक्ष पर्याप्त संख्या में सदन में मौजूद रहा करते थे। मगर आज तो आए दिन सदन का कोरम ही पूरा नहीं रहता है। सरकार से सवाल पूछने का स्तर दिनों-दिन गिरता जा रहा है। महत्वपूर्ण विषयों पर तो चर्चा ही नहीं हो पाती। कारण? इनमें किसी की दिलचस्पी नहीं होती, अधिकांश विधायक ऐसे मौकों पर सदन में मौजूद नहीं होते हैं या अपनी सीट पर सोते रहते हैं। या फिर उस वक्त कैफेटेरिया में या सचिवालय में अफसरों के यहां दिखाई देते हैं। ऐसा लगने लगा है कि नए चुनकर आ रहे माननीय सदस्य क्या अब सदन की शानदार परंपराओं को किताबों से ही जाना करेंगे?
विधान सभा मंडप की बाहरी गैलरी और उसके आसपास राज्य पुलिस बल के जवान कभी प्रवेश नहीं करते थे मगर आज वहां भी इन जवानों का पहरा होता है। सत्र के दौरान अराजकता के भय से वहां की सुरक्षा की रोजाना समीक्षा होती है। सुरक्षाबलों की नजरें माननीयों और उस परिसर में प्रवेश करने वालों को ऐसे घूरती हैं कि जैसे वे कुछ असामाजिक काम करने वाले हैं।
माननीय विधायक तक की तलाशी की नौबत आ गयी है। यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है जिसका समाधान माननीयों के अलावा और किसी के पास नहीं है।

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