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नौकशाहों ने फंसाया प्रतिस्पर्धा कानून

एके भट्टाचार्य

नई दिल्‍ली। अगर आपको इस सबूत की दरकार हो कि आर्थिक कानून बनाने और उसे लागू करने में सरकार कितनी धीमी गति से काम करती है तो प्रतिस्पर्धा कानून 2002 से बेहतर उदाहरण आपको नहीं मिल सकता। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का विचार था कि एक ऐसा स्वतंत्र निकाय होना चाहिए जो बाजार में प्रतिस्पर्धा पर बुरा असर डालने वाले क्रियाकलापों पर रोक लगा सके और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिला सके। साथ ही उपभोक्ता के हितों की रक्षा की जा सके और बाजार के सभी प्रतिभागियों को ऐसा वातावरण मिले जिसमें वे स्वतंत्र रूप से कारोबार को अंजाम दे सकें। इस तरह के स्वतंत्र निकाय की दरकार काफी लंबे समय से थी, खास तौर से इसकी जरूरत उस समय और बढ़ गई जब 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया।
इस तरह से प्रतिस्पर्धा कानून 2002 को संसद की मंजूरी मिली और साल 2003 में राष्ट्रपति ने उस पर अपनी मुहर लगा दी। राजग सरकार ने भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग का चेयरमैन तत्कालीन वाणिज्य सचिव दीपक चटर्जी को बनाया और कंपनी मामलों के सचिव विनोद ढल को सदस्य नियुक्त किया। प्रतिस्पर्धा आयोग के गठन के कुछ दिनों के भीतर ही विनोद ढल स्वतंत्र निकाय में शामिल हो गए और शुरुआती काम को अंजाम देने में जुट गए। लेकिन दीपक चटर्जी वाणिज्य मंत्रालय का अपना कार्यकाल पूरा होने का इंतजार कर रहे थे। उस दौरान कानकुन में विश्व व्यापार संगठन की मंत्रिस्तरीय महत्त्वपूर्ण बैठक होनी थी। तब तक सब कुछ ठीक रहा, जब तक कि न्यायपालिका ने नए कानून में चेयरमैन की स्थिति, उनके चयन की प्रक्रिया और अपील के तंत्र से जुड़े कुछ प्रावधानों को लेकर सवाल किए। यानि क्या भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग के चेयरमैन को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष होना चाहिए? उसका चयन किस तरह होना चाहिए? आयोग के आदेश के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई के लिए किस तरह का अपील तंत्र होना चाहिए?
प्रतिस्पर्धा कानून 2002 में साफ तौर पर लिखा गया है कि आयोग के चेयरमैन को वैसा होना चाहिए जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने की क्षमता रखते हों।
उसमें इस बात का भी विवरण है कि चेयरमैन और अन्य सदस्य का चयन उसी तरीके से होना चाहिए जैसा कि लिखा गया हो। लेकिन अपील तंत्र के बारे में किसी तरह का जिक्र नहीं था। साफ तौर पर कानून में कई तरह की खामियां थीं। ऐसे कानूनी पचड़े को दूर करने में चार साल का वक्त लगा। इसका यह भी मतलब है कि बतौर चेयरमैन दीपक चटर्जी आयोग में शामिल नहीं हो सकें, और न ही सरकार तब तक नए चेयरमैन की नियुक्ति कर सकती थी जब तक कि न्यायपालिका के सवालों का निपटारा नहीं हो जाता। इस तरह आयोग अकेले सदस्य विनोद ढल की अगुवाई में निष्क्रिय निकाय की तरह काम करता रहा।
प्रतिस्पर्धा कानून-2002 को साल 2007 में संशोधित किया गया। इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। इस कानून में काफी बदलाव किए गए। आयोग के चेयरमैन को सक्षम होना चाहिए, लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष होना जरूरी नहीं है। चेयरमैन और सदस्यों के चयन की बाबत सिफारिश साफ तौर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता या उनके द्वारा नामांकित व्यक्ति की अध्यक्षता वाली समिति करेगी। साथ ही अपील ट्रिब्यूनल के गठन का भी प्रावधान रखा गया, जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में होगा।
साल 2007 में उपरोक्त मुद्दों का समाधान हो गया, लेकिन साल 2008 में इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। आयोग के एक मात्र सदस्य विनोद ढल ने साल 2008 में पांच साल पूरा होने से कुछ महीने पहले ही समय से पहले सेवानिवृत्त होने के लिए आवेदन किया। इस तरह ढल की विदाई के बाद आयोग कई महीनों तक एकमात्र सदस्य के बिना काम करता रहा। विडंबना यह है कि अब जिसे आयोग का चेयरमैन बनाया जा रहा है वह भी भारतीय प्रशासनिक सेवा(आईएएस) के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं। दीपक चटर्जी भी आईएएस अफसर थे। नियामक के बड़े पदों पर, जो मुख्य रूप से न्यायाधीशों के लिए होता है, जिस तरह से नौकरशाहों की नियुक्ति की जा रही थी उससे न्यायपालिका काफी खिन्न थी।
महत्त्वपूर्ण नियामक पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति होनी चाहिए।
इस प्रकार प्रतिस्पर्धा कानून में संशोधन कर न्यायपालिका की शिकायतें दूर की गईं, उससे लगता था कि शासनादेश से न्यायपालिका संतुष्ट हो गई। लेकिन संशोधनों के बाद भी चेयरमैन के चयन का काम जिस तरह से लंबा खिंच रहा है। न सिर्फ चेयरमैन बल्कि आयोग के चार सदस्यों की सूची में से एक पूर्व आईएएस अफसर हैं। बाकी तीन सदस्यों में से एक भारतीय राजस्व सेवा के हैं। इसके बाद भी क्या किसी और सबूत की जरूरत है कि भारत के नौकरशाह कितने प्रभावशाली हैं?

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