जस्टिस वीएन खरे
भारतीयन्याय व्यवस्था का आधार अदालत में मुकदमे की स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई है, लेकिन सवाल उठता है कि यदि हमलावर या आरोपी विदेशी नागरिक हो और उसने बहुत सुनियोजित तरीके से देश की संप्रभुता पर हमला किया हो तो क्या उसे भी देश के नागरिकों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं? इसके जवाब हां और नहीं, दोनों ही हो सकते हैं। मगर संविधान के अनुच्छेद 22 में गिरफ्तारी के मामले में नागरिकों को प्राप्त संरक्षण का लाभ शत्रु या दूसरे देश के नागरिक को प्राप्त नहीं है। सामान्य परिस्थितियों में किसी भी अभियुक्त को अपने बचाव के लिए वकील की सेवाएं लेने का अधिकार प्राप्त है और यदि वह वकील का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं हो तो शासन के खर्च पर उसे वकील की सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। लेकिन कसाब का सामान्य मामला नहीं है। कसाब ने पाकिस्तान के नौ अन्य आतंकवादियों के साथ भारत की व्यवसायिक राजधानी मुंबई पर हमला किया जिसमें 190 से अधिक व्यक्ति मारे गए।
आतंकवादी हमलों के दौरान ही घटनास्थल से भाग रहा कसाब सुरक्षा बलों के चंगुल में आ गया। पूछताछ के दौरान कसाब ने खुद को पाकिस्तान के फरीदकोट का निवासी बताने के साथ ही भारत स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग से कानूनी सहायता मांगकर नागरिकता से जुड़े सवालों के जवाब खुद दे दिए हैं। अब सवाल कसाब पर चलने वाले मुकदमे की सुनवाई के दौरान उसका बचाव करने वाले वकील को लेकर है। देश की संप्रभुता के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में कसाब के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के साथ ही महाराष्ट्र संगठित अपराध रोकथाम कानून के तहत भी मुकदमा चलाया जा सकता है।
अदालत में कसाब को अपने बचाव का मौका मिलेगा लेकिन इसके लिए उसे खुद ही कोई वकील करना होगा। बचाव के लिए वकील की सेवाएं लेने में असमर्थ होने अथवा वकील द्वारा पैरवी करने से इंकार की स्थिति में अदालत चाहे तो उसे कानूनी सहायता उपलब्ध कराने का अनुरोध सरकार से कर सकती है, लेकिन यदि कसाब का बचाव करने में दिलचस्पी दिखाने के कारण अमरावती के वकील के घर पर शिवसैनिकों के हमले जैसी घटना की पुनरावृत्ति होती है तो इस आतंकवादी का मुकदमा महाराष्ट्र से बाहर किसी अन्य राज्य में स्थानांतरित भी किया जा सकता है।
पाकिस्तान ने अब आतंकवादी कसाब को अपना नागरिक मान लिया है। इससे पहले जरदारी हुकूमत के रवैए पर सबकी निगाहें पाकिस्तान उच्चायोग को भेजे गए कसाब के पत्र से उठ रहे सवालों की ओर टिकी हुई हैं। देखना यह है कि आतंकवादी गतिविधियों के आरोप में पकड़े गए अपने नागरिक को कानूनी सहायता देने के मामले में पाकिस्तान सरकार क्या कदम उठाती है। मुंबई में 26 नवंबर के आतंकवादी हमले और संसद भवन पर 13 दिसंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमले में समानता की रेखा खींचने का प्रयास किया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि दोनों ही आतंकवादी हमले थे लेकिन इनमें सिर्फ इतना अंतर है कि संसद भवन पर आतंकवादी हमले के मामले में भारतीय नागरिकों पर मुकदमा चला था जबकि मुंबई हमलों के सिलसिले में एक पाकिस्तानी आतंकवादी को हथियारों के साथ गिरफ्तार किया गया है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और उसके संविधान में नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार भी प्राप्त हैं। इसमें गिरफ्तारी के मामले में संविधान के अनुच्छेद 22 में प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का वकील करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन शत्रु और दूसरे देश के नागरिक के मामले में यह प्रावधान लागू नहीं होता है। यही वजह है कि संसद भवन पर आतंकवादी हमले की घटना में गिरफ्तार लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी मोहम्मद अफजल को भी अपना बचाव करने के लिए शासन के खर्च पर वकील मुहैया कराया गया था।
मोहम्मद अफजल द्वारा वकील मुकर्रर करने से इंकार किए जाने पर दिल्ली की विशेष अदालत ने उसे प्रभावी कानूनी सहायता देने का भरसक प्रयास किया था। अदालत ने इस मामले में अफजल की मदद के लिए वकील भी नियुक्त किया था जिसने कुछ समय बाद इस मुकदमे की पैरवी से इंकार कर दिया था। इसके बाद अदालत ने अफजल के लिए एक नया वकील भी नियुक्त किया था। यही नहीं, इस दौरान मोहम्मद अफजल ने सुनवाई के दौरान चार वकीलों के नाम पेश किए थे लेकिन इनमें से कोई भी वकील उसका मुकदमा लेने के लिए तैयार नहीं हुआ था। मोहम्मद अफजल को विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। अफजल की सजा की हाईकोर्ट की पुष्टि के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी सजा बरकरार रखी थी। मोहम्मद अफजल की फांसी का मामला इस समय राष्ट्रपति के पास विचाराधीन है। इस बीच कसाब की पैरवी कौन करेगा? मुकदमा शुरू होने के समय जैसे सवालों के बीच शिवसेना ने इस पाकिस्तानी आतंकवादी को सरेआम फांसी देने की मांग करके सारे मामले को नया मोड़ देने का प्रयास किया है।
महाराष्ट्र में वकीलों का पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब की पैरवी नहीं करने का फैसला कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन ऐसा करने वाले वकीलों की भावनाओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भाजपा के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के आरोपी केहर सिंह का मुकदमा लड़ने वाले पूर्व कानून मंत्री राम जेठमलानी पहले ही कसाब के मामले में वकीलों के रवैए के प्रति अपनी असहमति जगजाहिर कर चुके हैं। लेकिन फौजीदारी के मामलों के जानकार वकीलों का मानना है कि कसाब के मामले में अधिक कुछ नहीं है। अदालत में आरोप पत्र दाखिल होने के एक सप्ताह के भीतर ही उसके मुकदमे की सुनवाई पूरी करके आतंकवादी कसाब के मामले में फैसला सुनाया जा सकता है। लेकिन फिलहाल कसाब को बचाव के लिए वकील मिलना या उसे अदालत के हस्तक्षेप से मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध कराए जाने की ओर उसकी निगाहें टिकी हुई हैं। (जस्टिस वीएन खरे भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायधीश हैं।)