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तमिलों को भारत के खिलाफ भड़का रहा है हताश लिट्टे

बी रामन

लिट्टे लीडर्स-ltte leaders

श्रीलंकाईराष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे से बातचीत के लिए विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी की कोलंबो यात्रा के बाद लिट्टे से जुड़ी वेबसाइट ‘द तमिलनेट’ पर एक आलेख प्रकाशित किया गया है। इसमें आरोप लगाया गया कि भारत का मौजूदा सत्तार, प्रतिष्ठान, जिसका संचालन सोनिया कांग्रेस कर रही है, तमिल राष्ट्रवाद के खिलाफ जारी श्रीलंकाई जंग की सहायता कर रहा है और इसके द्वीपों पर खुद अपना छद्म युद्ध छेड़े हुए है। आलेख में भारत सरकार को चेतावनी दी गई है कि सरकार अपनी अक्षमता से उपजी हताशा में न सिर्फ श्रीलंका की शाश्वत समस्या को और बढ़ा रही है, बल्कि वह खुद अपने मुल्क के एक हिस्से में अशांति को न्यौता दे रही है। आलेख में आगे कहा गया है, ‘मौजूदा संप्रग सरकार इस द्वीप पर कोई आजाद तमिल राष्ट्र या तमिल राष्ट्रवाद नहीं देखना चाहती। पहले भी ऐसी रिपोर्टें मिली हैं कि श्रीलंकाई सेना के साथ जंग के मोर्चे पर भारतीय जवान मौजूद हैं और हाल ही में भारत सरकार ने श्रीलंका सरकार को टैंकों, विमानों और हथियारों की आपूर्ति की है। भारत तमिलों के खिलाफ जंग में श्रीलंका सरकार की चाहे जितनी भी मदद करे, लेकिन यदि उसने सिंहली लोगों के समर्थन की उम्मीद पाल रखी है, तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी।’
दरअसल, उत्तरी श्रीलंका के वन्नी इलाके में, जहां लिट्टे का श्रीलंका सेना के साथ घमासान हो रहा है, वहां लिट्टे एक सुरक्षित ठिकाना बनाना चाहता है, ताकि वह फिर से अपनी खोई ताकत हासिल कर सके। इसके लिए वह अब मासूम जनता को अपनी सुरक्षा ढाल बना रहा है। लिट्टे की यह ठीक वैसी ही रणनीति है, जैसी कि वर्ष 2006 में लेबनान में हिजबुल्ला और हाल ही में गाजा में हमास ने इस्राइली सेना के आक्रमण की धार को कुंद करने के लिए अपनाई थी। वन्नी के इलाकों में रहने वाली आबादी पर अब भी लिट्टे का नियंत्रण है और वह यहां से लोगों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने की श्रीलंकन सरकार की योजना को अवरुद्घ कर रहा है। इसके पीछे लिट्टे का तर्क है कि स्थानीय लोगों को यहां से तब तक उसकी मर्जी के खिलाफ नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय युद्ध विराम की गारंटी सुनिश्चित नहीं कराता।
लिट्टे पश्चिमी देशों में रह रहे श्रीलंकाई तमिलों को इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि वे श्रीलंका में तमिल जनता के साथ हो रही ज्यादती के खिलाफ सड़कों और दूतावासों के सामने प्रदर्शन करें। पश्चिमी देशों के विभिन्न शहरों में जनवरी में श्रीलंकाई तमिल प्रदर्शन कर चुके हैं। दूसरी तरफ, भारत के तमिलनाडु राज्यं में कुछ राजनीतिक दलों, छात्र संगठनों और वकीलों के धरना प्रदर्शनों को लिट्टे समर्थित वेबसाइटें बढ़-चढ़कर प्रकाशित और प्रसारित कर रही हैं। वेबसाइटों में यह मांग की जा रही है कि भारत सरकार तमिलों के पक्ष में श्रीलंका में हस्तक्षेप करे और वहां की सरकार पर दबाव बनाए। ये साइटें तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शनों को कुछ तरह पेश कर रही हैं, कि मानो उन्हें वहां व्यापक समर्थन मिल रहा है। तमिल भाषा की कुछ वेबसाइटें तो बेहद उत्ते जक विचार प्रकाशित कर रही हैं, जिनमें भारत के खिलाफ भी जहर उगला जा रहा है। भारत पर आरोप यह है कि पिछले दो वर्षों में लिट्टे को जो भी बड़ा झटका लगा है, उसमें जो हथियार इस्तेमाल किए गए हैं वे भारत सरकार ने ही श्रीलंकाई सेना को मुहैया कराए थे। इसलिए लिट्टे का समर्थन करने वाली वेबसाइटों में से एक ने दुनिया भर में फैले तमिल समुदाय के लोगों से अपील की है कि वे श्रीलंका में भारत की भूमिका का विरोध करने के लिए उसके दूतावासों के आगे धरना-प्रदर्शन करते रहें। वेबसाइटें कांग्रेस की यह कहते हुए आलोचना कर रही हैं कि वह वर्ष 1991 में राजीव गांधी की हत्या का बदला समूचे श्रीलंकाई तमिलों से ले रही है।
श्रीलंका में ताजा संघर्ष में वन्नी इलाके में करीब डेढ़ लाख श्रीलंकाई तमिलों की किस्मत सेना और लिट्टे के बीच फंस गई है। दोनों पक्षों की घमासान लड़ाई में अनेक बेगुनाहों नागरिकों और बच्चोंई की जान जा रही है। घायलों की संख्या भी बहुत है जो जिंदा रहकर भी हमेशा अपाहिज बने रहेंगे। वहां ऐसे हालात बन गए हैं, जिनमें यह तय कर पाना मुश्किल है कि कौन किसकी तोपों का शिकार बन रहा है। श्रीलंकाई सेना की सैनिक कार्रवाई का जहां तक सवाल है तो वह भी रेडक्रॉस की अंतरराष्ट्रीय समिति के जरिये नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकालने के प्रति नीरस है, क्योंतकि वह सोचती है कि ऐसे में लिट्टे को अपने बचाव का ज्यादा मौका मिल जाएगा जिससे श्रीलंका सरकार का विद्रोहियों को काबू करने का लक्ष्यि बिगड़ सकता है। इसी को दृष्टिसगत रखते हुए उसने प्रभावित इलाकों में मीडिया के प्रवेश को सीमित कर रखा है। लिट्टे प्रमुख वी प्रभाकरन भी लोगों को वहां से निकलने नहीं देना चाहता, क्योंकि ऐसे में श्रीलंका सेना को बढ़त मिल जाएगी। विडंबना यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय, जिसमें भारत सरकार भी शामिल है, किसी भी पक्ष पर दबाव बनाने में सफल नहीं हो रहा, जिसमें कि वहां फंसे नागरिकों की मदद की जा सके। श्रीलंका की सेना का आकलन है कि वह लिट्टे की पारंपरिक संघर्ष क्षमता को ध्वस्त करने से महज कुछ ही दूर है और वह यह लक्ष्य हर कीमत पर हासिल करना चाहती है। लिट्टे को डर है कि यदि उसने उत्तहरी श्रीलंका के प्रभावित क्षेत्रों से नागरिकों को सुरक्षित निकलने दिया तो उसका श्रीलंकाई सेना से मुकाबला करना मुश्कि्ल हो जाएगा।
अब वक्त आ गया है कि श्रीलंकाई तमिल समुदाय खुद पहल करे और लिट्टे कार्यकताओं से अपील करे कि वे वी प्रभाकरन को निकाल बाहर करें, उसे और उसके साथियों को श्रीलंका सरकार को सौंप दें और एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा करें। यदि वे ऐसा करने में विफल रहते हैं और इस नाजुक मोड़ पर प्रभाकरन को प्रोत्साहित करते हैं, तो यह श्रीलंकाई तमिलों के भविष्यर के लिए खराब ही साबित होगा क्योंकि श्रीलंकाई तमिल दोतरफा दबाव के बीच आखिर कब तक रहेंगे? इससे श्रीलंका सेना को सैनिक कार्रवाई से भी नहीं रोका जा सकेगा क्यों कि किसी भी देश को अपनी संप्रभुता की रक्षा करने का पूरा अधिकार है और इसके लिए उसे किसी बाहरी मार्गदर्शन की कोई जरूरत नहीं है। इस मामले में भारत सरकार को लिट्टे के दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए आखिर लिट्टे के कारण ही भारत ने देश के एक होनहार राजनीतिज्ञ राजीव गांधी को खोया है। भारतीय राजनीतिज्ञों के सामने भी यही सवाल है कि वे तमिलों केहितों को देखें लेकिन लिट्टे की रणनीतियों से परहेज करें जो कि आज तक खून-खराबे के अलावा तमिलों को कुछ नहीं दे पाया है।

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