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ललचाते भरमाते इश्तिहार

पल्लवी प्रकाश

Wednesday 13 March 2013 03:54:58 AM

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आधुनिक युग में किसी भी उत्पाद की व्यवसायिक सफलता के लिए विज्ञापन जरुरी बन गए हैं। विज्ञापनों का मुख्य कार्य बाज़ार में आ रहे उत्पादों के विषय में उपभोक्ता को महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्‍ध कराने के साथ ही किसी खास कंपनी के उत्पाद के बारे में उपभोक्ता की वफादारी को बनाए रखना भी है, ताकि वह बार-बार उसी कंपनी के उत्पाद खरीदे। दूसरे शब्दों में विज्ञापन, उत्पादक और उपभोक्ता के बीच संवाद की वह प्रक्रिया आरंभ करते हैं, जिसमें विभिन्न सामाजिक और आर्थिक कारक भी निहित होते हैं। विज्ञापनों की सर्वव्यापकता आज विश्व के आर्थिक परिदृश्य में आ रहे बदलाव से भी संबंधित है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में संपूर्ण विश्व में समाजवादी व्यवस्‍थाओं के विघटन ने संगठित पूंजीवाद को मजबूती प्रदान की है। इस संगठित पूंजीवाद ने जिस भूमंडलीकरण को वैश्विक परिदृश्य पर प्रस्तुत किया, वही उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार और प्रसार में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
भूमंडलीकरण से पहले के विज्ञापनों को अगर गौर से देखें तो ऐसा लगता है कि उस दौर में विज्ञापन काफी हद तक सामाजिक रूप से सही, औचित्यपूर्ण और पूर्वानुमानित होते थे, लेकिन आज के विज्ञापन हमारी सोच के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ते। विज्ञापन ही यह तय करना चाहते हैं कि हम क्या खाएं, क्या पिएं और क्या पहनें? किसी खास फेयरनेस क्रीम के इस्तेमाल से कोई लड़की अपने ‘प्रिंस चार्मिंग’ को पा सकती, तो किसी खास डियोडरेंट या आफ्टर शेव के इस्तेमाल से कोई पुरूष अपनी ड्रीम गर्ल को। मां और बच्चे के बीच प्यार बढ़ाना हो तो मैगी, नूडल्स और नॉर सूप काम आते हैं और प्रेमी-प्रेमिका, जो सांस या बदन की दुर्गंध की वजह से दूर हो जाते हैं, किसी खास टूथपेस्ट या डियोडरेंट की मदद से पास आ जाते हैं। पति-पत्नी के बीच बढ़ती दूरियों को कम करता है, पॉड्स की एज मिरेकल क्रीम तो पारिवारिक रिश्तों को प्रगाढ़ करता है, कैडबरी का डेयरी मिल्क चॉकलेट। यही नहीं करवा-चौथ, रक्षा-बंधन, और वेलेंटाइंस-डे को मानने के नाम पर भी कई तरह के विज्ञापन बाजार में आ चुके हैं। विज्ञापनों क‌ी दृष्टि-परिधि से आज कोई भी रिश्ता अछूता नही है, चाहे वह पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका का रिश्ता हो, माता-पिता और बच्चे का रिश्ता हो या फिर बॉस‍ या कुली का रिश्ता हो।
मानवीय संबंधों का पूरी तरह से व्यवसायीकरण आज विज्ञापनों में दिखाया जाता है। पूरे विश्व में स्‍त्री और पुरूष के बीच सभी स्तरों पर होने वाले भेदभाव की चर्चा हो रही है, लेकिन हमारे विज्ञापन इस चर्चा को पूरी तरह से खारिज करते हैं। आज विज्ञापनों को देखने के बाद लगता नहीं कि सौंदर्य का क्षेत्र स्त्रियों का विशेषाधिकार प्राप्त क्षेत्र है। आज विज्ञापनों में जो पुरूष आता है, वह क्लीन-शेव्ड होता है, वैक्स कराके, फेशियल कराके और खास मर्दों के लिए आने वाली फेयरनेस और सनस्क्रीन क्रीम का प्रयोग करके पूरी तरह से तथाकथित मेट्रोसेक्सुअल मैन की जिस तस्वीर को पुख्ता करता है, उससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पुरूषों के लिए काजल और लिपिस्टिक भी बाजार में पेश किया जाएगा। वैसे भी कई फैशन शोज़ में पुरूषो को बिंदी लगाए हुए स्कर्ट पहने हुए दिखाया गया है।
दुनिया की सभी सामाजिक व्यवस्‍थाओं में स्‍त्री हाशिए पर खड़ी है। हाशिए पर खड़ी स्‍त्री को विज्ञापनों के माध्यम से फिर से पराधीनता की बेड़ियां पहनाई जा रही हैं। विज्ञापनों में स्‍त्री केवल वस्तु बेचने का साधन बन कर ही नहीं आती है, बल्कि स्वयं भी एक वस्तु बन कर ही प्रस्तुत होती है। जिस परम सुंदर स्‍त्री की छवि विज्ञापनों के माध्यम से सामने आती है, उस छवि को वास्तविक जीवन में हासिल करना लगभग असंभव है। पहली बात तो यह है कि मॉडल की शारीरिक बनावट वास्तविक जीवन में पांच फीसदी से ज्यादा स्त्रियों के पास नहीं होती। दूसरी बात यह है कि एयर-ब्रशिंग और फोटो-शॉपिंग जैसी तकनीकों का इस्तेमाल करके तस्वीरों में काफी हेर-फेर किया जाता है। इस तरह जिस अप्रतिम सुंदरता का पैमाना विज्ञापनों के माध्यम से सामने आता है और जिसे देखकर वैसा बनने का असफल प्रयास करने वाली ज्यादातर स्त्रियां कुंठित हैं, वह सुंदरता एक छलावे के सिवाय कुछ नहीं। इसी तरह, एक तरफ तो हम पूरी दुनिया से रंगभेद और नस्लभेद को मिटाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर विज्ञापनों के माध्यम से रंगभेद एवं नस्लभेद को बढ़ावा दे रहे हैं। विज्ञापनों में आने वाला यह स्लोगन कि फेयर लवली ही होता है, किसी भी कमतर रंग की स्‍त्री और पुरूष को हीनभावना से भर देने के लिए काफी होता है। त्वचा के गोरे रंग को काले रंग के ऊपर प्राथमिकता देना, समानता के हमारे संवैधानिक दावे को भी झूंठा साबित करता है। कुछ ही समय पहले एक मैग्जीन के कवर पृष्ठ पर ऐश्वर्या राय की जो तस्वीर आईं थी, वह भी विवाद का कारण बनी थी, क्योंकि उसमें ऐश्वर्या की त्वचा के रंग को और हल्का किया गया था। जाहिर सी बात है कि विश्व के कई समुदाय के लोग जैसे अफ्रीकी-अमेरिका समुदाय या भारत में ही द्रविड़ और आदिवासी समुदाय के लोग, जिनकी त्वचा का रंग गहरा होता है, वे इस प्रकार के विज्ञापनों से न सिर्फ स्वयं को अपमानित महसूस करेंगे, बल्कि कुंठित भी होंगे।
स्‍त्री-मुक्ति के नाम पर जिस तरह से विज्ञापनों को प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे स्‍त्री-मुक्त होने की बजाय फिर से पराधीन हो रही है। अगर पुराने दौर में स्‍त्री पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्‍था की दास थी तो आज उपभोक्तावादी संस्कृति की। देह से मुक्ति के नाम पर उसका विज्ञापनों के माध्यम से बाजारीकरण हो रहा है। विज्ञापन निर्माता यह जानते हैं कि बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर विज्ञापनों का गहरा असर पड़ता है, इसलिए उनका प्रयास यह रहता है कि सबसे ज्यादा बच्चों को प्रभावित किया जाए। बच्चों के कार्टून धारावाहिकों मे आने वाले लोकप्रिय पात्र जैसे डोरेमॉन, छोटा भीम वगैरह को भी विज्ञापनों में प्रस्तुत किया जा रहा है। जाहिर सी बात है कि बच्चे अपने प्रिय पात्रों को जो कुछ भी खाते-पीते या पहने हुए देखेंगे, उसे ही अपने अभिभावकों से खरीदने की ज़िद करेंगे। बच्चों को नाराज़ करना आसान नहीं, इसलिए माता-पिता भी बच्चों की ज़िद पूरी करेंगे ही और इस तरह न सिर्फ बच्चे, बल्कि एक पूरा परिवार ही विज्ञापनों का शिकार बन जाता है। बच्चों की लोकप्रिय डॉल है, बार्बी डॉल जिसे बच्चे अपना स्टेटस सिंबल मानते हैं। बार्बी के न जाने कितने संस्करण बाजार में मौजूद हैं। यही नहीं, बार्बी के हेयर को कलर और शैंपू करने के लिए उत्पाद भी बाजार में आ चुके हैं। बार्बी डॉल की इसी लोकप्रियता को भुनाने के लिए पॉप ग्रुप ऐक्वा ने 1997 में आइएम ए बार्बी गाना रिलीज किया था, जो कि मैटल से उत्पादित बार्बी और केन डॉल्स के विषय में है, यही नहीं गाने में बार्बी के लिए ब्लॉडी और बिंबो जैसे विशेषणों का प्रयोग किया गया है, जो उस स्‍त्री को प्रस्तुत करते हैं, जो कि शारीरिक रूप से सुंदर तो है, परंतु दिमाग से कमतर हैं। एक्वा की यह बार्बी अपने घुटनों पर झुकी हुई है और अपने प्रेमी को खुश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। मैटल कंपनी के आपत्ति जताने के बावजूद भी इस गाने को प्रतिबंधित नहीं किया जा सका। इस गाने में स्‍त्री की जो छवि उभर कर सामने आती आती है, वह छोटी बच्चियों को पुरूष के अधीनस्‍थ बने रहने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने के लिए काफी है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस गाने की आठ अरब प्रतियां बिक चुकी हैं।
लोकप्रिय फिल्मी हस्तियां और खिलाड़ी विभिन्न ब्रांड्स का एंबेसडर बन कर आ रहे हैं। किसी खास उत्पाद को प्रयुक्त करने के लिए वे उपभोक्ता-दर्शक वास्तविक अमिताभ बच्चन या वास्तविक सचिन तेंदुलकर को नहीं जानता। वह सिर्फ उनकी उस सुपर-इमेज को जानता है, जो विज्ञापनों के माध्यम से सामने आती है। इस प्रकार उपभोक्ता, वास्तविकता को भी छवियों में देखता है। इधर विज्ञापन-कंपनियां-एजेंसियां भी चालाक हो गई हैं। उन्हें यह पता चल चुका है कि आज का उपभोक्ता किसी भी पेज-थ्री सेलिब्रिटी के उस दावे पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं करता,जो वह किसी उत्पादन के विज्ञापन में करते हैं, इसलिए विज्ञापन का एक नया जरिया निकाला गया है और वह है-अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञापन की प्रस्तुति। अगर लोगों की याददाश्त अभी धुंधली नहीं हुई हो तो 1997 में प्रदर्शित फिल्म हिमालय पुत्र का जिक्र किया जा सकता है। इस फिल्म में हीरो अक्षय खन्ना को गोदरेज के सिंथॉल साबुन से नहाते हुए दिखाया गया था। इसी प्रकार आजकल विभिन्न प्रकार के स्पोर्ट्स या चैरिटी इवेंट्स और फैशन शोज़ के दौरान पेज-थ्री सेलिब्रिटीज़ को विभिन्न कंपनियों के उत्पाद धारण किए हुए देखा जा सकता है। दर्शकों पर अपनी गिरफ्त मजबूत करने के लिए या अपनी विश्वसनीयता बढा़ने के लिए ली उत्पादक इस तरह से अप्रत्यक्ष विज्ञापनों का प्रयोग कर रहे हैं। विज्ञापनों की उपस्थिति आज सर्वव्यापी है। उनसे बचना लगभग असंभव है। आज चाहे पत्र-पत्रिकाएं हों, टीवी या कंप्यूटर हो, मोबाइल फोन हो, पेट्रोल पंप हों, चौराहे पर लगे पोस्टर हों, कोई सार्वजनिक कार्यक्रम हो, विज्ञापन हर जगह मौजूद हैं।
हमारी संपूर्ण जीवन-शैली ही विज्ञापनों से निर्देशित और निर्धारित हो रही है। विज्ञापनों के आकर्षक माया-जाल में फंसे दर्शक को यह पता ही नहीं चल पाता कि वह वास्तव में प्रायोजकों के हाथों बेचा जा चुका है और उसकी सोच पर भी विज्ञापनों का ही नियंत्रण है। इस उत्पादों को प्रयुक्त करते-करते वह स्वयं भी एक वस्तु में तब्दील हो जाता है। आज विज्ञापनों का फैलाव बढ़ता ही जा रहा है। एक औसत अमेरिकी को करीब पंद्रह सौ विज्ञापन प्रतिदिन देखने पड़ते हैं। यही नहीं, अमेरिका में हर साल लगभग आठ अरब डॉलर विज्ञापनों का खर्च किए जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, विज्ञापनो की मदद से न सिर्फ वैश्विक और स्‍थानीय छवियों का निर्माण कर रही हैं, बल्कि उनका प्रचार और प्रसार भी कर रही हैं। सामूहिकता के स्‍थान पर आज विज्ञापनों के माध्यम से वैयक्तिता को बढ़ावा दिया जा रहा है। इक्कीसवीं सदी में विकास की परिभाषा केवल सकल राष्ट्रीय उत्पाद और आय के मानकों तक ही सिमट कर रह गई है। विकास की इस परिभाषा ने मानव के उत्पादक और उभोक्ता स्वरूप की परिकल्पना को ही दृढ़ किया है। विज्ञापन आज उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने को हर संभव प्रयास कर रहे हैं। फ्रांसीसी विचारक जया बॉद्रीला के मुताबिक उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य की जरूरत और उत्पादकता के मध्य नकारात्मक संबंध बनाया है, उपभोक्तावाद में समाज एक हिस्टीरिया की अवस्‍था में पहुंच जाता है, जिसका सिद्धांत है अधिक और अधिक, कभी भी यथेष्ट नहीं। इस प्रकार सुख-संचय की लालसा ही उपभोग की प्रक्रिया को जरूरत से ज्यादा नियंत्रित करती है। विकसित देशों में कपड़े, फर्नीचर और यहां तक कि गाड़ी जैसी वस्तुएं भी भौतिक रूप से जीर्ण-क्षीर्ण होने से पहले ही मनुष्य ठिकाने लगा देता है, क्योंकि वे मनोवैज्ञानिक रूप से पुरानी हो जाती हैं। इस प्रकार मांग और आपूर्ति की यह प्रक्रिया लंबी होती चली जाती है।
उपभोक्तावादी संस्कृति ने बाजार को गांवों में भी पहुंचा दिया है। बाजार की संस्कृति ने सौंदर्य के संवेदानात्मक मूल्य को विस्‍थापित कर उत्तेजनात्मक मूल्य को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। बाज़ार का आदर्श वह नहीं है, जहां मनुष्य अपनी बुनियादी जरूरत की चीजों को इकट्ठा करने के लिए जाता था, जिसके लिए ग़ालिब ने कहा था- और बाज़ार से ले आएंगे गर टूट गया, जामे जम से मेरा ये जामे सिफाल अच्छा है, बल्कि यह वह बाज़ार है, जहां हर कुछ बिकाऊ है। आप पैसे खर्च कीजिए, आपसे डेटिंग, चैटिंग और प्यार करने के लिए पार्टनर मौजूद है। इस तिलिस्मी मायालोक में मानवीय भावनाएं और संवेदनाएं सब कुछ बिकती हैं। ग़ालिब के ही शब्दों में-इस बाज़ार के लिए कह सकते हैं, ले आएंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जां और, लोकतांत्रिक और नैतिक अवमूल्यन के मौजूदा दौर में जहां विज्ञापन-निर्माताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे दिग्‍भ्रमित करने वाले और छिछोरे किस्म के विज्ञापनों को दर्शकों के सामने न परोसें, वहीं दर्शकों को भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसे विज्ञापनों को देखकर भी उनसे प्रभावित न हों। वे अपने आप से यह सवाल करें कि जिस विज्ञापन को वह पढ़ रहा है या देख रहा है, उसमें सच्चाई का कितना अंश है? सरकार को भी विज्ञापन कंपनियों के विज्ञापनों पर किए जाने वाले अरबों रूपयों को नियंत्रित करना चाहिए और उन्हें मुफ्त शिक्षा और स्वास्‍थ्य संबंधी सेवाओं के लिए प्रयुक्त करना चाहिए। आज के मनुष्य को अपनी इच्छा और जरूरत में फर्क करना होगा, तभी वह व्यक्ति से वस्तु में तब्दील होने से बच पाएगा। जनसत्ता से साभार।

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