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चित्रकूट के बीहड़ों में कौन बना रहा है इन्हें डाकू ?

वीरेंद्र वर्मा

चित्रकूट का गांव-chitrakoot village

चित्रकूट, उप्र। महाकाव्यों में चित्रकूट और उसके घाट से केवट का बड़ा पुराना, बहुत ही जग प्रसिद्ध और विश्वास का रिश्ता है, जो आज भी वैसा ही दिखाई देता है। चित्रकूट आध्यात्म और इतिहास से समृद्धशाली तपो-भूमि भी है, शायद इसीलिए महाकवि तुलसीदास ने रामायण महाकाव्य की रचना के लिए चित्रकूट को चुना होगा। यहां के केवट- मल्लाह नैया पार लगाने का काम करते हैं। इनकी और इनके पूर्वजों की मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य सेवकों में गणना होती आई है। सामाजिक एवं धार्मिक सरोकारों में भी वे सबसे आगे होते हैं। वे दिलेर होते हैं और पानी में रहकर मगर से बैर करने से भी नहीं डरते हैं। बाकी की तो बात ही क्या है। उनके मान सम्मान एवं स्वाभिमान पर कोई हमला हो तो उसका मुकाबला करते हैं, भले ही उनकी जान चली जाए, कोई उन्हें डाकू या अपराधी बना दे या पुलिस अपनी ताकत से हाथ पैर तोड़कर हिस्ट्रीशीट खोल दे। उनका आर्थिक पक्ष कितना ही कमजोर क्यों न हो, वे उसी में खुश भी रहते हैं। केवटों की दीनदशा और उनकी सामाजिक प्रगति का पारंपरिक आधार नौका से आजीविका और जलचर हैं। एक सवाल शासन और समाज का पीछा कर रहा है कि इन्हें डाकू किसने बनाया और वे कौन हैं जो इनकी बर्बादी और बीहड़ों में धकेलने के लिए जिम्मेदार हैं।
सामंतवादी
शक्तियां और इलाकाई पुलिस, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से यदि उन्हें आगे बढ़ने देती तो आज केवट न डाकू कहलाते और न अपराधी। उनका डाकू और अपराधी के रूप में चिन्हित होने का ज्यादातर मतलब है कि उन्होंने पुलिस और सामंतियों के असहनीय अत्याचारों का सामना किया होगा, जिससे उनमें से कई इस नाम से कलंकित कर समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग कर दिए गए। चित्रकूट और इसके दूर तक फैले बियावान में वर्षों से इन पर क्या-क्या घटता और गुजरता रहा है, यदि यह सरकार को पता भी चला है, तो वह चुप्पी ही मार गयी है, क्योंकि इसकी गाज़ बड़े अफसरों पर गिरनी लाजिम है और अफसर अपने को बचाने के लिए उनका बचाव करते हैं जो इनके अत्याचारों के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। अपनी बला टालने में वे अत्यधिक माहिर होते हैं, भले ही वह अपने मूल कार्य कानून व्यवस्था स्थापित करने में, अधिकांशतया फिसड्डी ही साबित हुए हैं। प्रशासन और कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले चित्रकूट और दस्यु इलाके में क्या-क्या गुल खिलाते आ रहे हैं, इसे न तो कभी देश के प्रधानमंत्री ने, न मुख्यमंत्री ने और न ही उन हुक्मरानों ने देखा जो बीहड़ों में रहने वाले लोगों को कभी डाकुओं और बदमाशों के रूप में चिन्हित करते हैं और उसी पर शासन की मुहर लगती चली जाती है।
यहां
पुलिस के अत्याचारों की शिकायत करने वालों को कुत्ते के जैसी मौत मिलती है। इनके सुधार के नाम पर सरकार में हर साल करोड़ों रूपए बहाए जाते हैं और इसकी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए उनमे से कुछ को नाहक ही मुठभेड़ दिखाकर मौत के घाट उतारा जाता है। यहां के वास्तविक जीवन और जीवनयापन में रोजमर्रा के बंधनों, दुश्वारियों और भावनाओं को देखने समझने एवं उनकी समस्याओं का निराकरण की किसी भी स्तर पर ईमानदारी से कोशिश की गई होती तो आज केवट के सामने डाकू, अपराधी जैसे नाम न जुड़े होते। सालों से इनके सुधार, विकास, पुर्नवास और समाज से भटके या गुमराह हुए लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिए अनवरत खर्च किया जाने वाला भारी धन आज तक कोई भी आशावादी परिणाम नहीं दे सका। यह धन मुखबिरों और फोर्स को विशेष हथियारों से सुसज्जित करने के नाम पर हर साल चित्रकूट के डाकुओं से भी ज्यादा शक्तिशाली संबंधित सरकारी अधिकारियों का एक गिरोह डकार जाता है। डाकू उन्मूलन अभियान को जिंदा रखकर उसके नाम पर हर साल दर्जनो घनश्याम केवट पैदा किए जाते हैं और तमगे हासिल करने के लिए उन्हें देर-सबेर मौत के घाट उतार दिया जाता है। घनश्याम केवट की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। वह भी बलात्कार के शिकार अपनी भतीजी को न्याय दिलाने के प्रयास में विफल होने के बाद एक दिन सलाखों के पीछे धकेल दिया गया और जो हुआ वह सबके सामने है।
घनश्याम
केवट के साथ इस मुठभेड़ से एक बार फिर पुलिस के अत्याचारों की फाइल खुल गई है। चित्रकूट और दस्यु के नाम से चिन्हित इलाकों में मुद्दत से गश्ती पुलिस जो गुल खिलाती आ रही है उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पुलिस ने सता-सता कर अधिकांश केवटों और उन जैसे अन्य युवाओं को क्रूर बना दिया है। यूपी पुलिस-पीएसी की सशस्त्र बटालियनों को एक राईफल के दम पर अनपढ़ घनश्याम केवट ने न केवल 50 घंटे नचाए रखा बल्कि चार सिपाहियों को मौत के घाट उतारकर साबित कर दिया कि यूपी पुलिस में न कोई तालमेल है और न ही योजनाबद्ध तरीके से सशस्त्र संघर्ष का सामना करने की हिम्मत है। सोचिए! घनश्याम केवट यदि एक प्रशिक्षित शस्त्रधारी होता और उसके साथ ऐसे ही तीन चार और सशस्त्रधारी होते तो ऑपरेशन घनश्याम केवट पूरा करने में न जाने कितने और पुलिस वाले अकारण मारे जाते।
यूपी
पुलिस के डीजीपी विक्रम सिंह और उनके आला अधिकारी आज चाहे जो दावे करें, उन्हें अपनी विफलता स्वीकार करनी होगी कि यदि केवल एक डाकू से निपटने के लिए राज्य के एडीशनल डीजीपी, आईजी, डीआईजी और एसएसपी को 50 घंटे मोर्चा लेना पड़े तो फिर प्रशिक्षित फोर्स के मायने ही क्या रहे? खबरों में पता चला कि आखिर एसओजी के जवान की गोली से घनश्याम केवट का अंत हुआ, और वह भी तब जब वह पुलिस की अभेद्य घेराबंदी तोड़कर डेढ़ किलो मीटर दूर निकलने में कामयाब रहा और एक नाले को पार कर बीहड़ों में भाग जाने के चक्कर में धराशायी हो गया। पुलिस के बेशर्म अधिकारी अब मीडिया वालों को बता रहे हैं कि इस मुठभेड़ में अधिकारी कैसे घायल हुए हैं और वे कितनी बहादुरी से घनश्याम केवट से लड़ रहे थे। प्रशंसा भी ऐसी ताकि राज्य की मुख्यमंत्री मायावती से अपने लिए ज्यादा से ज्यादा प्रसंशा और सहानुभूति बटोरी जा सके।
चित्रकूट
और उसके भूलभुलैया जैसे गांवों की कहानी बहुत वीभत्स और दिल दहला देने वाली है। यहां का अतीत अत्याचारों का एक गवाह है, और गांव वालों की आंखे अंजान को शक की नजरों से घूरती हैं। डाकुओं की शरणस्थली के रूप में ढहाए गए और जलाए गए घर के घर उजाड़ की दास्तान बयान करते हैं। जमौली गांव पूरी तरह तबाह हो गया है। दस्यु सरगना घनश्याम को गांव से बाहर निकालने के लिए पुलिस ने साठ-सत्तर घरों को फूंक दिया है। खाक हो चुके घरों के सैकड़ों लोग दाने-दाने को मोहताज होकर सड़क पर आ गए हैं। सरकार और प्रशासन ने इन्हें मदद और मुआवजे का भरोसा दिया है, लेकिन फिलहाल इन्हें मदद के नाम पर सिर्फ मिट्टी का तेल मिला है। इस बीच पुलिस ने घनश्याम केवट के मददगारों की शिनाख्त शुरू कर दी है। इससे भयभीतर होकर बड़ी तादाद में ग्रामीण गांव से पलायन कर गए हैं। बचे हुए लोगों पर जहां तहां बिखरे पड़े जिंदा बमों के कभी भी फट पड़ने का खतरा मंडरा रहा है।
राजापुर
थाने के केवट बहुल गांव जमौली में घनश्याम उर्फ नान केवट की रिश्तेदारियां हैं। इस वजह से उसका शुरू से ही जमौली आना जाना लगा रहा है। भतीजी से बलात्कार करने वालों को सजा दिलाने की कोशिश में खुद हवालात की हवा खाने से कुपित होकर बंदूक उठाकर वह बागी हो गया था। उसका यहां आना-जाना जमौली वालों को भी अर्से से रास नहीं आ रहा था। उसकी ताकत और खूंखार प्रवृत्ति को देखते हुए लोगों के मुंह मिल गए थे। ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें यह तो पता था कि घनश्याम की बेमन की मेहमाननवाजी एक न एक दिन उन सभी को महंगी पड़ेगी, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन उनके गांव को मलबे और राख के ढेर में बदल देगी।
जमौली
का मंजर सचमुच द्रवित कर देने वाला है। तकरीबन पचास घंटे तक चली मुठभेड़ के दौरान गांव में हुई तबाही के निशान चप्पे-चप्पे पर बिखरे पड़े हैं। एक-एक कर चार पुलिस वालों को मारकर आईजीव डीआइजी समेत सात जवानों को गोलियों का निशाना बनाने वाले घनश्याम उर्फ नान केवट को मोर्चे से बाहर निकालने की पुलिस की सभी कोशिशें नाकाम हुई। इसके बाद पुलिस ने घरों में आग लगाने का जो सिलसिला शुरू किया, वह तकरीबन साठ-सत्तर घरों को स्वाह करने के बाद जाकर थमा। राम प्रसाद, रामनरेश दिलीप, कल्लू, राजा, लल्लू, देशराज, बबली, राममनोहर, शत्रुघन, चिरौंजी, जागेश्‍वर जैसे लोगों का सब कुछ खाक हो गया है। सभी के मकान जमींदोज हो गए हैं या ढहने के कगार पर हैं। कपड़े और अनाज राख हो गए हैं। अब लोगों के सामने खाने-पहनने का भी संकट है। कुछ ग्रामीणों ने अनाज बेचने से मिली रकम भी घरों में रखी थी वो इससे भी हाथ धो बैठे हैं। हैरान परेशान महिलाएं व बच्चे बार-बार लौटकर घरों के मलबे को खंगालने लगते हैं। इस उम्मीद में कि शायद सलामत रह गया गृहस्थी का कोई आइटम हाथ लग जाए। लेकिन निराशा के सिवाए कुछ भी हाथ नहीं लग रहा है। इस कवायद में कुछेक के हाथ जरूरत जल गए हैं।
ग्रामीण
परिवेश में घूंघट से झांकती हुई बेबस आंखें कुछ कहती हैं लेकिन उनके लिए पुलिस की खौफनाक सी वर्दी कुछ कहने नही देती है, क्योंकि आज यहां का मंजर देखने और कुछ के मन की जानने आए, मीडिया वाले उनकी मदद के लिए कल मौजूद नहीं होगें। ये गांव के लोग पुलिस से बेहद नफरत करते हैं। आखिर ऐसा क्या है कि सिपाही को देखकर गांव के लोग उसे खत्म करने पर उतारू हो जाते हैं? और पुलिस का काफिला देखकर घरों में मौत का सा सन्नाटा छा जाता है। यही देखते-देखते कल का बालक आज घनश्याम का रास्ता अख्तियार कर रहा है। चित्रकूट के गांवों में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पुर्नवास जैसे कार्यक्रम चलाने वाले और घड़ियाली आंसू लेकर उनके मन से खौफ मिटाने आने वाले पुलिस के अफसरों पर उन्हें कोई यकीन ही नहीं है। क्योंकि उनकी नजर में ये सभी गंदे गुनाहगार और पुलिस के जासूस हैं। प्रश्न है कि जब देश के दूसरे इलाकों में आतंकवादियों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए करोड़ों रुपये के सामाजिक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तो फिर चित्रकूट जैसे इलाकों में ऐसे कार्यक्रम कहां हैं और यदि वे कहीं हैं भी तो क्यों बेअसर हैं? इसकी असली सच्चाई भी एक बार नहीं बल्कि हजारों बार सामने आई है।
गांव
के लोग पुलिस से यदि नफरत करते हैं तो उसके और भी और बहुत ही गंभीर कारण हैं। गांव वाले कहते हैं कि साहेब, पुलिस बदमाश ढूंढने के नाम पर उनके घरों में घुसती है और उनकी जवान बहू बेटियों को दबोच लेती है। परिवार के बाकी सदस्यों और बच्चों के सामने ही बलात्कार करती है। पुलिस वाले गांव वालों की बहू बेटियों पर सामंती अंदाज में टूटते हैं। यही इन इलाकों की असहनीय और अंतहीन सच्चाई और एक बड़ी समस्या है जो बच्चों को भी विद्रोही बना रही है। इलाके के दारोगा सिपाही अपने को कप्तान से कम नहीं समझते और जहां उनकी नहीं चलती तो वहां पुलिस और पीएसी के ट्रक भर कर लाते हैं और बच्चों बूढ़ो महिलाओं को बर्बर और अमानवीय तरीके से पीटते हैं। पुलिस वाले भोले भाले ग्रामीणों से छलकपट से और राजनीति में बात करते हैं। अफवाह उड़ाकर आपस में लड़ाते हैं और थानों में झूठी शिकायत दर्ज कर घरों के भीतर घुसने का बहाना तैयार करते हैं। एक गिलास पानी मंगवाकर बेटी को बाप के सामने ही पकड़कर अपनी मनमानी करते हैं।
इसीलिए
बारह साल के घनश्याम केवट ने एक दिन पुलिस के ऐसे ही कुकृत्य के खिलाफ विद्रोह किया और उसने दस्यु का मार्ग चुनकर अपना आक्रोश शांत किया। पुलिस ने उसकी हिस्ट्रीशीट खोल दी और फिर वह जिस मार्ग पर चला उससे वापस जाने का उसका रास्ता ही बंद हो गया। गांव के गांव बलात्कारी पुलिस वालों एवं उनके शोषण की दास्तान बयान करते हैं, इसीलिए इन इलाकों में कोई भी पुलिस की मदद करने को तैयार नहीं है। पुलिस यहां के युवको को मुखबरी के लिए मजबूर करती है। पुलिस पहले अधिकांश युवाओं को अपना मुखबिर बनाकर और फिर उसकी हिस्ट्रीशीट खोल कर उसे अपराधी या डाकू बनाती आ रही है। उसका इस्तेमाल करने के बाद उसे मौत के घाट उतार देती है और अगर वह बच निकला तो उसके बाद जो होता है वह घनश्याम केवट के रूप में सामने आता है।
चित्रकूट
के जंगलों एवं घाटियों में पैदा होते आ रहे इन विद्रोहियों का नेटवर्क इतना शक्तिशाली हो चुका है कि ज्यादातर गांव वाले उन्हीं के आदेशों पर चलते हैं। राजनीतिज्ञ बिना उनकी मर्जी के राजनीति नहीं कर सकता और न ही ग्राम प्रधान या विधायक बन सकता है। कभी कभार को छोड़कर यहां के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन पर इनका सख्त पहरा रहता है। यहां उनके लिए कोई रहम या सहानुभूति नहीं है जिन पर पुलिस की मुखबिरी का शक हो। उनका इलाज भी केवल मौत ही है। जितनी बार भी सुना गया कि चित्रकूट के जंगलों में डाकुओं ने ग्रामीणों को मौत के घाट उतारा तो उसके पीछे पुलिस की मुखबिरी करना ही प्रमुख कारण सामने आया है। सामान्य ग्रामीण इसीलिए उन्हें पूरा संरक्षण भी देते हैं। जो पुलिस वाले गांववालों की इज्जत से खेलते हैं, देर सबेर उन्हीं की लाशें घाटी पर मिलती हैं या उनका पता ही नहीं चलता है। यहां के सामतों और पुलिस के अत्याचारों के कारण आक्रोश से भरे बैठे लोग पुलिस को न रास्ता बताते हैं और न उनकी किसी मदद को आगे आते हैं। उत्पीड़न इस समस्या की मूल वजह है। विधायक जीतते हैं तो इनके आशीर्वाद से। इसीलिए उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पूर्वांचल से चुनकर जाने वाले अधिकांश विधायकों पर डाकुओं को संरक्षण देने या उनके सहयोग से जीतकर आने के खूब आरोप लगते हैं। विधायक इन इलाकों की दीनदशा को विधान सभा में उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन बसपा जैसी तानाशाह पार्टी से जीतकर आए विधायक मायावती के डर से अपनी समस्याओं को उठाने से भी डरते हैं - खामोश रहते हैं।
ब्लाक
प्रमुखों का जहां तक सवाल है तो पहले तय हो जाता है कि किसे चुनाव में खड़ा करना है ओर किसे चुनना है, किसे नहीं। ऐसे मामलों में पुलिस की नही चलती है। ऐसे मामलों में पुलिस से पंगा होता है। पुलिस यहां किसी की हिस्ट्रीशीट खोलती है, तो केवल नाम पता सुनकर। जिसकी हिस्ट्रीशीट खुली होती है उसको पुलिस न जानती है और न पहचानती है। फिर सारे मुकदमे उसके ही खाते में दर्ज होते रहते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि यहां बहुत से पुलिस वाले पुलिस के ही हथगोले, कारतूस और हथियार भी मुहैया कराते हैं। यहां कहीं कुछ लोग पुलिस के मुखबिर होते हैं तो पुलिस के कुछ लोग इन लोगों के मुखबिर होते हैं। बीहड़ों में उतरने वाले ददुआ, ठोकिया और घनश्याम जैसों के जीवन पर प्रकाश डाला जाए तो उनको सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक समर्थन की कभी कोई कमी नहीं रहती है इससे पता चलता है कि यहां डाकू पैदा होते हैं या व्रिदोही।
पुलिस
चित्रकूट में घनश्याम केवट को मारकर भले ही ढोल नगाड़े बजा रही है। कोई भी इस मुठभेड़ को पुलिस की एक विफलता और फूहड़पन ही कहेगा। इसमें न कोई तालमेल था और न ही गुप्तचर तंत्र की कोई रणनीति। यूपी पुलिस के लिए जनसामान्य में जो संदेश गया है उससे पुलिस अपनी पीठ खुद ही थपथपा रही है। पूरे देश ने देखा कि यूपी पुलिस किसी सशस्त्र अभियान का किस प्रकार सामना करती है। देश में दहशतगर्दी फैलाने वालों ने भी देख लिया होगा कि यूपी में कहीं भी और किसी भी वारदात को सफलता के साथ पूरा किया जा सकता है। राज्य पुलिस का खुफिया तंत्र तो पूरी तरह से तबाह है ही और अधिकारी भी अफवाहों या गपशप पर आधारित सूचनाओं को शासन में भेज कर अपनी खानापूरी कर रहे हैं। अभिसूचना के नाम पर वे मुख्यमंत्री से निकटता पाने के लिए हर रोज कोई कहानी गढ़ते हैं। चित्रकूट से लेकर बाकी प्रदेश का यही हाल है। इससे ज्यादा और क्या होगा कि राज्य की मुख्यमंत्री मायावती, बीहड़ों के कुछ विद्रोहियों डाकुओं के मारे जाने को आधार बनाकर कह रही हैं कि राज्य में अपराध कम हुए हैं।

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