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ब्राह्मणों में कस्‍तूरी की खोज!

दिनेश शर्मा

Sunday 12 May 2013 10:29:32 AM

chanakya

लखनऊ। उत्तर भारत में ब्राह्मण राजनीति, सत्ता और सामाजिक जीवन का फिर से मुख्य मुद्दा बन गया है। उनके राजनीतिक महत्व और उसमें उनकी भूमिका पर आज खूब चिंतन हो रहा है। उनका समर्थन पाने के लिए राजनीतिक दलों में उनसे गठजोड़ की होड़ है। जिन्हें कल तक मनुवादी कहकर हांसिये पर धकेला जा रहा था, आज उनमें राजनीतिक दलों को ‘कस्तूरी’ नज़र आने लगी है। बसपा, भाजपा, सपा, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी इन्हें फिर से अपने राजनीतिक एजंडे में सजाकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। अपने महत्‍व से अभिभूत ब्राह्मणों का भी सर्वत्र ‘राजयोग’ फिर से चमक उठा है। कैसी विडंबना है कि आज जहां-जहां इनकी प्रचंड ताकत और काबलियत के कसीदे पढ़े जा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के खिलाफ जबरदस्त जातीय नफरत पैदा करके खड़ी हुई, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के लिए, आखिर यही ब्राह्मण सत्ता के कारक बने हैं। आज वह इनका सहारा लेकर देश में सत्ता पर कब्जा करने की राजनीति करने निकली हैं। पिछले दो दशक में ब्राह्मणों से दूरी बनाए रखने की मानों प्रथा शुरू हो गई थी, पर आज बसपा ने तो ब्राह्मणों के समर्थन के लिए अपने यहां एक कॉडर ही स्थापित किया हुआ है। भाजपा ब्राह्मणों को अपना परंपरागत सहयोगी और समर्थक मानती ही रही है, लेकिन उपेक्षित होकर जब वह भाजपा से दूर भागने लगा तो उसने भी उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्‍यों में ब्राह्मण सेवा शुरू कर दी है। कांग्रेस ने एक ब्राह्मण और वह भी एक महिला रीता बहुगुणा जोशी को काफी समय तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए रखा। सपा भी उससे पीछे नहीं है, वह ब्राह्मणों को रिझा रही है, उसके पास कद्दावर ब्राह्मण नेता के रूप में माता प्रसाद पांडेय के अलावा और कोई नहीं हैं। उनकी भी एक प्रकार से उपेक्षा ही मानी जाती है, यूं तो वेउत्‍तर प्रदेश विधानसभा के अध्‍यक्ष हैं, ‌योग्‍य, सर्वाधिक सम्‍मानीय, संवैधानिक और चुनौती भरे पद पर हैं, किंतु विधानसभा अध्‍यक्ष होने के नाते उनकी राजनीतिक भूमिका स्‍वतंत्र नहीं है। वे और जातियों में भी अपना प्रभाव रखते हैं, सपा में ब्राह्मणों के शक्‍तिसंपन्‍न नेताओं में प्रमुख माने जाते हैं।
सपा ने अपने को सनातन ब्राह्मण समाज के संगठन से भी जोड़ा हुआ है, लेकिन सपा की तुष्‍टिकरण की नीति के कारण ब्राह्मण सपा के साथ असहज दिखाई देता है, इस कारण सपा के ब्राह्मणों को जोड़ने के प्रयास संशयात्‍मक दिखाई देते हैं, सपा के लिए नीतिगत रूप से यह अत्‍यंत विचारणीय विषय है। परशुराम जयंती पर सपा में ब्राह्मणों का जमावड़ा यह कोई गारंटी नहीं देता कि लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण समाज सपा के साथ खड़ा होगा। ऐसे अनेक उदाहरण यहां दिए जा सकते हैं, जिनमें सपा नेतृत्‍व ब्राह्मणों की उपेक्षा करता है। हाल के दिनों में राज्‍य के एक मंत्री राजाराम पांडेय को जिस प्रकार केवल अखबार में छपी एक झूंठी रिपोर्ट के आधार पर मंत्रिमंडल से हटाया गया, वह ब्राह्मणों के गले नहीं उतरा। कुछ समय पूर्व बरेली में हुए सांप्रदायिक तनाव के दौरान एक कथावाचक ब्राह्मण का माधव नामका मंदबुद्धी का सत्रह-अठारह वर्ष का पुत्र आपत्‍तिजनक एसएमएस के झूंठे आरोप में राष्‍ट्रविरोधी जैसी गंभीर धाराओं में जेल में डाल दिया गया, उसकी फरियाद कहीं नहीं सुनी गई, इसे लेकर वहां के ब्राह्मणों में सपा के खिलाफ भारी गुस्‍सा है। मुलायम सरकार के दौरान मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी भी कभी सपा के साथ आए थे उन्‍होंने भी सपा के लिए प्रदेश भर के ब्राह्मणों के सम्मेलन किये थे। इनका परिवार सपा छोड़कर बसपा में चला गया। सपा के नेता कमलेश पाठक ने भी कभी ब्राह्मण सम्मेलन किए थे, पोस्टर बैनर लगवाए, क्‍या ह़आ? संगठनात्मक चुनावों में सभी राजनीतिक दल अपने पदाधिकारियों की सूची जारी करते हुए यह बताने में काफी जोर दे रहे हैं कि उन्होंने अपने संगठन में ब्राह्मणों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है।
माना जाता है कि ब्राह्मणों ने सदियों से सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में चली आ रही ब्राह्मणों की उपयोगिता सिद्ध की है, किंतु समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो हमेशा ब्राह्मणों से नफरत और असहज महसूस करता आया है, बल्कि उसका पूरा सामाजिक ताना-बाना और अस्तित्व ही ब्राह्मण विरोध पर टिका है। इन तीन दशकों में उत्तर भारत में और विशेष रूप से यूपी में इसकी कमान कांशीराम और मायावती के हाथ में ही रही है, और आज भी है, लेकिन उसके तौर तरीके बदल गए हैं। इनका ब्राह्मणों के खिलाफ आक्रामक संघर्ष का एक इतिहास है। इस विषय पर इतिहासकारों, राजनीतिज्ञों, सामाजिक चिंतकों ने समय-समय पर अपने-अपने नजरिये से खूब लिखा है। ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में ज़हर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए, इनके आगे-पीछे भाग रहे हैं। इस समय बसपा अध्यक्ष मायावती के ब्राह्मण प्रेम से बड़ा ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा?और सपा का ब्राह्मणों में लोक दिखावा सबके सामने ही है।
उत्तर-दक्षिण भारत में समय-समय पर ब्राह्मणों के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं। इन्हीं मे से कईयों ने बाद में ब्राह्मणों का सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक महत्व स्वीकार करते हुए ऐसे आंदोलनों से किनारा भी किया है। ऐसा करते समय आलोचकों ने चाहे अपनी गरज से ही, ब्राह्मणों के गुणों की आदर्श व्याख्याएं की हैं। इन अवस्थाओं की पुष्टि के लिए अनगिनत दृष्टांत प्रस्तुत किये जा सकते हैं। यूं तो ‘ब्राह्मण’ और ‘पंडित’ इन दोनों शब्दों के अर्थ भी अलग-अलग हैं। ब्राह्मण शब्द का प्रचलित संबंध जाति से है, जबकि पंडित का आशय विद्वान से माना जाता है, जो किसी भी जाति और धर्म में हो सकता है। बहुत सी जातियां और उप जातियां हैं, जो अपने नाम के सामने पंडित लगाती हैं। कुछ लोग अपने नाम के आगे ‘शर्मा’ लिखते हैं, मगर इसका प्रयोग दूसरी पिछड़ी जातियों में भी होता है, मगर आज इनकी भी ब्राह्मणों की आड़ में राजनीतिक लाटरी खुल गई है।
जनसंख्या अनुपात में सबसे कम होने के बावजूद ब्राह्मण का अस्तित्व हमेशा से एक जटिल चुनौती कायम किये हुए है। शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट मान्यता दी गई है, किंतु आज भी यह झगड़ा कायम है कि देश के आबादी प्रतिशत में सबसे कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? आजादी के बाद से आज तक यह अनुपात घटाने के लिए जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं, उनके सकारात्मक परिणाम क्यों नहीं सामने आए? राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या गुट, ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का इस्तेमाल या विरोध, अपने राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ती या सलामती के लिए करते आए हैं, इसे कौन नहीं जानता और समझता? उत्तर भारत में और खासतौर से यूपी में इन तीन दशकों में तिलक, तराजू, ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध पहले तो चरम पर पहुंचा और अब यह सत्ता का कारक है।
अतीत में देखें तो उत्तर-दक्षिण भारत में जाति-भेद का पहला शिकार ब्राह्मण ही हुआ है, इसलिए इसका विरोध आंदोलन के रूप में सामने आया। दलित समाज के नेताओं ने इसे अपना खास हथियार बनाया और ब्राह्मण विरोध की कमान संभाली और धीरे-धीरे यह आंदोलन कई धाराओं में चल पड़ा, लेकिन यह भी हुआ कि इनके विरोध के साथ-साथ गैर ब्राह्मण भी ब्राह्मणों के पक्ष में उतरे, जिससे आज तक यह सिद्घ नहीं किया जा सका है कि ब्राह्मण रंगभेद या अन्य तरीके से पक्षपात या दूसरों पर अत्याचार के लिए दोषी हैं। लंबे विरोध के बाद ब्राह्मण विरोधी ताकतों में आज उनके लिए सकारात्मक परिवर्तन आया है। सारे राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों का विरोध करते-करते अचानक उनका समर्थन हासिल करने या उन्हें चुनाव लड़ाने की हवा सी चल पड़ी है। बसपा की बैठकों या उसके सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाषणों की भाषा ही बदल गई है।
राजनीतिक टीकाकारों का अभिमत है कि बसपा अध्यक्ष मायावती या सपा अध्‍यक्ष मुलायम सिंह यादव जिस नजरिये से ब्राह्मणों के पीछे चलने का दिखावा कर रहे हैं, उससे उन्हें आगे चलकर इसलिए फायदा नहीं होगा, क्योंकि वे ब्राह्मणों को सत्ता हासिल करने का एक कार्ड मानकर चल रहे हैं, जबकि ब्राह्मण न तो मायावती की नीतियों का आंख मूंदकर समर्थन कर सकता है और ना मुलायम सिंह यादव के साथ आंख मूंदकर चल सकता है। मायावती या मुलायम यूपी में जिन विवादास्पद सामाजिक समीकरणों और कार्यक्रमों को लेकर चल रहे हैं, उनसे ब्राह्मणों का जब भी टकराव होगा तो इसके राजनीतिक परिणाम इनमे से किसी के अनुकूल नहीं होंगे। जहां तक कुछ ब्राह्मणों का शासन सत्‍ता में भौकाल का सवाल है तो यह सभी दलों में देखने को मिलता। उत्‍तर भारत में जातीय राजनीति को लेकर भारी राजनीतिक उथल-पुथल है और उत्‍तर प्रदेश में मौजूदा राजनीतिक हालात जिस तरफ जा रहे हैं, उनकी असली परीक्षा लोकसभा चुनाव में हो जाएगी, प्रतीक्षा कीजिए!

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