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किस किसका ‘मुख’ देखेगी धरती ?

जॉन टीयनीर

भीड‌

एक परिस्थिति विज्ञानी और एक अर्थशास्त्री ने 1980 में पांच धातुओं की भविष्य में लगने वाली कीमतों को लेकर 1,000 डॉलर की शर्त बदी। पर दांव पर इससे भी कुछ ज्यादा ही यानी इस ग्रह की सहन क्षमता तथा मानवता की नियति से संबंधित सोच और दृष्टि ही लगी थी। एक ने कीटनाशकों को रिस-रिस कर जल के भूमिगत स्रोतों तक पहुंचते देखा, तो दूसरे ने अन्न के भंडारों को कीर्तिमान उपज से अंटते। एक ने वर्षा वनों का नाश होने की कल्पना की, तो दूसरे ने लोगों के और दीर्घायु होने की।

दो बौद्धिक सिद्धांतों के ये दोनों प्रणेता हैं। इनमें से एक सर्वनाश का भविष्यवक्ता कहा जाता है तो दूसरे प्रचुरता का मसीहा और इस प्रकार बहस जारी है कि धरती बेहतरी का मुख देखेगी या कि बरबाद होगी।

परिस्थिति विज्ञानी पॉल आर ऐरलिक 1968 की अपनी पुस्तक ‘द पॉपुलेशन बम’ के प्रकाशन के बाद से संसार के अपेक्षाकृत मशहूर वैज्ञानिकों में से एक रहे हैं। वह कैलीफोर्निया राज्य के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापन अथवा तितलियों का अध्ययन नहीं कर रहे होते तो उन्हें भाषण देते, पुरस्कार लेते या फिर सुबह के टीवी समाचार में ही प्रस्तुत होते देखा जा सकता है। यही निराशावादी हैं।

‘द पापुलेशन बम’ की तो शुरूआत भी कुछ इस प्रकार से होती है। ‘संपूर्ण मानवता का पेट भरने की जद्दोजहद में सैकड़ों लाख लोग भूख से मरने जा रहे हैं।’ ऐरलिक ने लिखा, ‘विश्व की मृत्यु दर को यथेष्ट रूप से बढ़ने से कोई चीज नहीं रोक सकती।’ इन्होंने 1974 में भविष्यवाणी की। ‘1985 से पहले ही मानवता अभावों के एक युग में प्रवेश करेगी,’ जिसमें कई प्रमुख खनिजों की सहज उपलब्धि करीब-करीब समाप्ति का मुख देखेगी।’

60 वर्षीय अर्थशास्त्री जूलयन एल साइमन मैरीलैंड के कॉलेज पार्क स्थित मैरीलैंड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। पिछले दो दशक से उनके विचारों ने वाशिंगटन को अपनी नीतियां निर्धारित करने में सहायता की है। हां, इन्हें ऐरलिक जैसी शैक्षणिक सफलता या लोकप्रियता कभी हासिल नहीं हुई। और यही हैं उपरोक्त आशावादी सज्जन।

साइमन का विश्वास है कि जनसंख्या वृद्धि समस्या के बजाए एक ऐसी प्रचुरता देती है जिसका मतलब होता है अंततः बेहतर पर्यावरण और कहीं अधिक स्वस्थ मानवता आने वाले कल की दुनिया बेहतर होगी, क्योंकि वहां मेधावी विचारों वाले और भी ज्यादा लोग विद्यमान होंगे। पृथ्वी के संसाधन परिमित नहीं हैं इसलिए प्रगति भी अनिश्चित रूप से चलती ही रहनी है।

साइमन ने भविष्य की अपनी खुशगवार दुनिया के अपने सपनों के बारे में ‘साइंस’ पत्रिका में 1980 में लिखा तो उनसे क्रुद्ध पाठकों के पत्रों का अंबार ही लग गया। ताव खाकर ऐरलिक ने भी अपना सीधा सादा गणित पेश कर दिया। इस ग्रह के संसाधनों को उस आबादी में बांट देना होगा जो तब 7.5 करोड़ की वार्षिक दर से बढ़ रही थी। इस तरह धरती की ‘वहन क्षमता’, इस पर उपलब्ध अन्न, जल व खनिजों के भंडार बैठ जाएंगे।

साइमन ने इस चुनौती का जवाब दिया। कोई भी प्राकृतिक संसाधन-अन्न, तेल, कोयला, लकड़ी, धातु-और भविष्य का कोई भी दिन चुन लें। दुनिया की आबादी बढ़ने से अगर संसाधन कम होते जाएंगे तो उन की कीमतें भी जरूर बढ़ेंगी। ऐरलिक ने साइमन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अक्टूबर 1980 में पांच धातुओं-क्रोम, तांबा, गिलट, टिन, और टंगस्टन पर उन्होंने 1,000 डॉलर की शर्त लगाई। 1990 में अगर इनकी सम्मिलित कीमतें मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए भी 1,000 डॉलर से अधिक हुई तो साइमन उन्हें कीमतों के बीच के अंतर के बराबर की राशि की भरपाई करेंगे। हां, कीमतें घटी हुई मिलीं तो ऐरलिक ही उन्हें इसी हिसाब से शर्त की रकम भरेंगे। अतः एक अनुबंध पर भी हस्ताक्षर हुए और ऐरलिक और साइमन, जिन का परस्पर साक्षात्कार तक नहीं हुआ था, एक दूसरे पर शोले उगलने लगे।

संसार की आबादी के बारे में ऐरलिक सही थे। यह 1991 के शुरू में 5.3 अरब हुई जो उनकी ‘द पॉपुलेशन बम’ के प्रकाशन के समय से 1.8 अरब अधिक पड़ती है। फिर भी औसत आदमी कहीं अधिक स्वस्थ्य और समृद्ध है। शिशु मृत्यु दर घटी है और तीसरी दुनिया में तो अत्यंत नाटकीय रूप से जीवन दर भी बढ़ी है। युद्ध, सूखा और गलत कृषि नीतियों से ग्रस्त देशों में अकाल तक पड़े, मगर खाद्यान्नों का कुल उत्पादन जनसंख्या वृद्धि की गति को टप गया है। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि तीसरी दुनिया का औसत आदमी आज 1968 की अपेक्षा कहीं बेहतर ढंग से पोषित है। अतः कयामत के दिन की उपरोक्त गणना नए सिरे से भी करनी होगी।

इस परिमित विश्व के लिए ऐरलिक का विचार है भी बड़ा सहज एवं ग्राह्य, वस्तुएं चुक जाते हैं। पर्यावरणवादियों ने तो इसके लिए एक बढि़या नारा तक दे रखा है। ‘हम लोगों को अपने माता-पिता से यह धरती विरासत में नहीं मिलती है। हम इसे अपनी संतानों से उधार लेते हैं।’ यह विचार हमारी क्रियाओं की शक्ल भी ले लेता है जब लकड़ी की कमी होने के अंदेशे से हम अखबारों का गट्ठर ही घर में भर लेते हैं। इस का विरोधी तर्क यों सहज बोध की दृष्टि से इतना विश्वसनीय भी नहीं लगता है। यह आम तौर पर एक सीधे सरल से प्रश्न को लेकर चलता है। चीजें अभी तक आखिर चुकीं क्यों नहीं?

अतिशय आबादी को लेकर साठादि के अंत में जूलयन साइमन ने जब भयावह भविष्यवाणियों को सुना तो उन्होंने औरतों को कम बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करने की जरूरत पर लिखना शुरू किया। मगर तभी उन्होंने कई ऐसे अध्ययन पढ़े जिनसे पता चला कि जिन देशों में आबादी तेज गति से बढ़ रही है, वहां दूसरे देशों की अपेक्षा कहीं अधिक तकलीफ भी नहीं है। कई तो उल्टे बेहतर ही जा रहे हैं।

उन्हें ऐसे प्रमाण भी मिले कि प्राकृतिक संसाधनों की कीमतों में वास्तविक रूप से 1870 से निरंतर गिरावट ही आई है। आज का औसत कामगार अपने एक घंटे की पगार से पिछली शताब्दी की तुलना में कहीं ज्यादा कोयले की ही तरह कहीं अधिक धातु और खाद्यान्न भी खरीद सकता है। आबादी बढ़ने के साथ विभिन्न वस्तुओं का अभाव कहीं कम पेश आया है।

साइमन और दूसरे लोगों ने भी संसाधनों के संकट के 10,000 वर्षों के इतिहास में एक क्रमबद्धता भी पाई। वस्तुएं कम होती जाती हैं तो लोग नवोन्मेष के साथ आगे आते हैं। वे आपूर्ति के नए स्रोत ढूंढ़ते या फिर उपलब्ध सामग्री को बचाकर सावधानी से ही उसका उपभोग करने लगते हैं।

कमी के कारण बहुधा बेहतर विकल्प की तलाश होती है। करीब 3,000 साल पहले व्यापार में बाधा आने के कारण यूनानी लोग कांस्य युग से लौह युग में आ गए। कांसा बनाने में काम आने वाले टिन की कमी होने लगी तो यूनानी लोगों ने लोहे को आजमाया। इसी तरह 16वीं शताब्दी में इंग्लैंड में लकड़ी की कमी होने के कारण कोयले के युग का प्रादुर्भाव हुआ। व्हेल के तेल की 1850 के करीब कमी हुई तो 1859 में कच्चे तेल का पहला कूप पेश आया।

फिर अस्थाई अभाव भी होते हैं, मगर साइमन और दूसरे प्रचुरतावादियों ने तर्क दिया कि सरकार हस्तक्षेप न करें यानी अनिवार्य संरक्षण और मूल्य नियंत्रण लागू नहीं करे तो लोग अपने आप ही विकल्प भी ढूंढ़ लेते हैं।

अपनी 1981 की पुस्तक ‘द अल्टिमेट रिसोर्स’ में साइमन ने लिखा कि मानवीय मेधा व कौशल पृथ्वी की ‘वहन क्षमता’ को अनिश्चित रूप से बढ़ा सकती है। इस विचार से साइमन और ऐरलिक के बीच एक उल्लेखनीय अंतर का पता चला। धरती का पर्यावरण एक बंद व्यवस्था नहीं है, बल्कि लचीले बाजार जैसी है।

साइमन ने माना कि बाजार में भी कुछ विनियम की जरूरत है। मगर अमरीका जैसे देश के हवा पानी दशकों से स्वच्छ होते जा रहे हैं। हमें इसके लिए समृद्धि (धनी समाज प्रदूषण नियंत्रण का खर्च बरदाश्त कर सकते हैं) और प्रौद्योगिकी (इस शताब्दी के शुरू में अमरीकी शहरों में कार से होने वाला प्रदूषण कायेले की भट्ठियों से निकलने वाली राख और घोड़ों की लीद से उत्पन्न ठोस गंदगी की तुलना में कम है) का शुक्र मनाना चाहिए।

साइमन जोर देकर कहते हैं कि पर्यावरण संकट को बहुत बढ़ा चढ़ाकर बताया जा रहा है। उनकी शिकायत है, ‘कोई पूर्वघोषित दुर्घटना घटी नहीं कि सर्वनाशवादी एक और तुर्रा छोड़ देते हैं।’ नई समस्याओं को लेकर चिंता करना कोई गलत भी नहीं- किंतु ये यह क्यों नहीं देखते कि कुल नकारते हैं।’ मिलाकर चीजें बेहतर होती जा रही हैं। ये तो समाधान ढूंढ़ने की हमारी रचनात्मक शक्ति को ही साइमन को सबसे कांटे का सामना ऐरलिक के इस विचार से करना पड़ा कि दुनिया में बहुत अधिक लोग हैं। साइमन स्वीकारते हैं कि आबादी बढ़ने से अल्पावधिक समस्याएं पेश तो आती हैं, मगर वह कहते हैं कि इसके दीर्घावधिक लाभ भी होते हैं जब बच्चे उत्पादक और साधन संपन्न वयस्क बन जाते हैं। उन्होंने ऐरलिक के इस सुझाव का जोरदार विरोध किया कि सरकारों को चाहिए कि जोर जबरदस्ती से भी वह परिवार का आकार सीमित करे और उन देशों को खाद्य सहायता तक नहीं दी जाए जो जनसंख्या वृद्धि को रोकने की बात न मानते हों।

विद्वत्जनों के बीच बहस में विजयी होते नजर आ रहे हैं साइमन। बहुत से मनोवैज्ञानिकों को उनकी आशावादिता से काफी असुविधा हो रही है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि पहले वाली प्रवृत्तियां आगे भी चलती रहेंगी-मगर आम राय अब ऐरलिक के इस विचार से दूर होती जा रही है कि जनसंख्या वृद्धि भयंकर अभिशाप है।

अब जहां तक लोगों को प्रभावित करने की बात है तो इसमें साइमन अभी भी काफी पीछे हैं। 23 अप्रैल 1990 के पृथ्वी दिवस से पहले ऐरलिक टीवी पर अपनी उस नई पुस्तक ‘द पॉपुलेशन एक्सप्लोज़न’ का प्रचार कर रहे थे जिसमें उन्होंने घोषणा की है कि ‘जनसंख्या के बम का विस्फोट हो चुका है।’ वाशिंगटन में आयोजित पृथ्वी दिवसीय रैली में 10,000 लोगों की भीड़ ने तुमुल ध्वनि भी की जब ऐरलिक ने बताया कि बढ़ती आबादी के कारण वह दुनिया भी पेश आएगी जिससे उनके नाती पोते सड़कों पर भोजन के लिए दंगों का भी मुख देखेंगे।

उसी दिन इमारतों की कुछ ही कतारें छोड़कर एक छोटे से सम्मेलन कक्ष में साइमन जनसंख्या वृद्धि को ‘मौत पर एक विजय’ की संज्ञा दे रहे थे, क्योंकि 1750 आदि के दशक से औद्योगिक क्रांति की शुरूआत के बाद से लोगों की जीवन की संभावनाएं दोगुनी हो गई है। ‘यह जबरदस्त विजय है,’ उनका कहना था। ‘आप मानव जीवन के प्रेमियों से इस पर खुशी के मारे उछलने की उम्मीद कर सकते हैं, फिर भी वे लोग व्यथित हैं कि इतने अधिक लोग जीवित हैं।’ पर साइमन के इस संदेश को सुनने वाले केवल 16 लोग थे।

1990 के शिशिर में बिना किसी समारोह के ही उपरोक्त शर्त का फैसला हो गया। ऐरलिक ने साइमन को एक कागज पर धातुओं की कीमत का हिसाब पर धातुओं की कीमत का हिसाब और 576.07 डॉलर का चेक भेज दिया। ऐरलिक के दल द्वारा चुने गए उन पांचों धातुओं की कीमतें 1980 से पेश आई मुद्रास्फीति के संदर्भ में कम हुई है।
कीमतें घटीं भी उन्हीं कारणों से जो पिछले दशकों में भी थे यानी उद्यमशीलता और प्रौद्योगिक में निरंतर सुधार। खनिजों की खोज करने वालों को और नए-नए भंडार भी मिले। कंप्यूटर, नई मशीनों और नई प्रौद्योगिकी के कारण अयस्कों को निकालने और परिष्कृत करने के कुशलतर ढंग निकल आए।

उपभोग के बहुत से क्षेत्रों में धातु की जगह सस्ती सामग्री ने ले ली। प्लास्टिक तो उन में सर्वोपरि है। उपग्रह के जरिए फोन मिलाए जाने लगे और तांबे के तार की जगह फाइबर आप्टिक्स ने ले ली। काटने के औजारों में टंगस्टन की जगह सिरेमिक्स आ गया।

क्या इसमें भविष्य के लिए भी कोई सबक है? ‘बिलकुल नहीं,’ ऐरलिक जवाब देते हैं। ‘नई से नई समस्याओं की ओर भी जरा देखिए ओज़ोन छिद्र, अम्ल वर्षा, पृथ्वी के पर्यावरण का उत्तम होना। मुझे कतई संदेह नहीं कि हम लोगों ने पर्यावरण को इसी तरह से गर्त में जाने दिया तो अगली शताब्दी में हम आबादी के भयंकर संकट के शिकार हो जाएंगे।’

साइमन को अपने प्रतिद्वंद्वी की ऐसी प्रतिक्रिया सुनकर बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘तो अब ऐरलिक आबादी के संकट की बात कर रहे हैं। मैं इस पर भी उनसे और तगड़ी शर्त बदूंगा।’

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