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कांग्रेस की यह चूक!

दिनेश शर्मा

राहुल गांधी/Rahul Gandhi

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में दलित वोटों को अपनी रैयत समझकर उन्हें ठेकेदारों, गुंडों और माफियाओं को बेचती आ रहीं बसपा अध्यक्ष मायावती के भ्रष्टाचार जनित अहंकार का 'मर्दन' करने निकले कांग्रेस महासचिव और सांसद राहुल गांधी का जो तरीका है, उनके दृष्टिकोण से वह उनकी श्रेष्ठ रणनीति हो सकती है लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में किसी ताकतवर दलित नेता को आगे किए बिना ऐसा कर पाना उनके लिए संभव भी नहीं है। राहुल गांधी को कांग्रेस के 'दलित मिशन' के लिए ऐसा दलित नेता चाहिए जो दलित राजनीति की गहरी-समझबूझ रखता हो। कहना न होगा कि मायावती, बसपा के संस्थापक कांशीराम की राजनीतिक विरासत पर कब्जा करके बैठी हुई हैं, यदि मायावती को वास्तव में राजनीति आती तो उनको प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से कोई रोक नहीं पाता। मायावती ने खुद ही अपने भ्रष्ट आचरण से दलित समाज के भी इस पद के दावे को चौपट कर लिया है। उनका साथ लेने में उनसे आज सभी राजनीतिक दल सतर्क हैं। राहुल गांधी के दलित प्रेम का जहां तक सवाल है तो उसकी फिलहाल चर्चा तो हो रही है मगर आम दलितों में यह संदेश भी साथ-साथ चल रहा है कि राहुल गांधी ऐसा राजनीतिक स्वार्थवश कर रहे हैं ताकि दलितों का मायावती से मोह भंग हो और वह कांग्रेस में वापस लौट आएं। राग और द्वेष से परिपूर्ण अपने प्रतिक्रियावादी राजनीतिक और प्रशासनिक फैसलों की चौराहों पर छीछालेदर से बौखलाई मायावती ने सवर्ण समाज की तीव्र महत्वाकांक्षी नई पीढ़ी को राजनीतिक अवसर और दलित वोटों का लालच देकर बाकी राजनीतिक दलों के लिए एक समस्या पैदा कर रखी है। इसीलिए कहा जा रहा है कि राहुल गांधी इस समस्या से अकेले निपट लेंगे, ऐसे राजनीतिक हालात में बहुत मुश्किल है। इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कुछ ऐसे लोग मिले हैं जो मायावती के दलित एजेंडे को तहस-नहस कर देने के लिए बेहतर काम कर सकते हैं- बशर्तें इसके लिए उनको पूरा अवसर देकर उन्हें सहयोग भी किया जाए। इसका एक अवसर आया भी था। केंद्रीय मंत्रिमंडल के पहले विस्तार में ही इस राजनीतिक अवसर के उपयोग की उम्मीद थी लेकिन कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश को निराश किया।
उत्तरsonia gandhi with rahul gandhi प्रदेश की विषम राजनीतिक स्थिति पर इस विश्लेषण में विभिन्न प्रसंगों का वर्णन तथ्यों, परिस्थितियों और आवश्यकतानुसार किया गया है। यूपी में मायावती के शासन से हर कोई त्रस्त है, स्वयं दलित समाज भी और अधिकांश वह भी जोकि बसपा में हैं। मायावती की भ्रष्ट और तानाशाही कार्यप्रणाली से ये सब भी मुक्ति चाहते हैं, मगर उनके सामने दिक्कत यह है कि बाकी राजनीतिक दल भी तो मायावती शासन को बदल डालने की स्थिति में नहीं दिखते हैं। जनता ने तो लोकसभा चुनाव में साफ संदेश दिया था। राजनीतिक जानकार कह रहे हैं कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में उम्मीद से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतने के इस संदेश को नहीं समझ पा रही है। वह ग़लतफहमी में है कि इस जीत का कारण राहुल गांधी या सोनिया गांधी के प्रयास हैं। सब जानते हैं कि यूपी में उनकी कोई लहर नहीं थी, हां! लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता से राहुल गांधी को सीना चौड़ा करके यूपी में घूमने का एक कारण जरूर मिल गया है। अमेठी रायबरेली की तरह राहुल गांधी अपने राजनीतिक दौरो में भी स्थानीय कांग्रेस नेताओं की उपेक्षा करके अकेले चल रहे हैं यानि कांग्रेस के नेताओं को दौरो में साथ रहने की इज़ाजत नहीं है, इसलिए आपने देखा होगा कि राहुल गांधी जहां भी जाते हैं उनके साथ उनके दल के पदाधिकारी नहीं दिखाई देते हैं। यह स्थिति कांग्रेस के फायदे के लिए है कि नहीं यह राहुल गांधी समझ सकते हैं, मगर जहां तक आम कांग्रेसियों का सोचना है तो वे राहुल, सोनिया या प्रियंका की इस कार्यप्रणाली से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं।
कहते हैं कि राजनीति में सहानुभूति, रहम, भूल और चूक के लिए कोई स्थान नहीं है। जानकार कह रहे हैं कि केंद्र में नई सरकार के पहले शपथ-ग्रहण समारोह में कांग्रेस से बड़ी चूक हुई। ऐसी चूक जोकि कमान से निकले हुए तीर के समान है जो फिर कभी कमान पर वापस नहीं आ सकता। लोकसभा चुनाव में जिस उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस को अपने यहां स्वीप दिया उसे यूपीए के पहले ही मंत्रिमंडल विस्तार में महत्व नहीं दिया गया। कांग्रेस के आंतरिक तर्क चाहे जो भी हों और कितनी ही गूढ़ रणनीतियों से लैस हों लेकिन सामान्य जनता में इसका संदेश नकारात्मक गया है। इससे कांग्रेस का नुकसान हो रहा है। दूसरों के शब्दों में यह कांग्रेस की वह आत्मघाती रणनीति है जो आगे कांग्रेस को आसानी से चलने नहीं देगी। बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों का अभिमत है कि जो कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा से राजनीतिक और सत्ता संघर्ष मान रही है और जिस कांग्रेस को अब तक बसपा और उसकी नेता मायावती ने त्रास दिया हुआ है, उससे निपटने का वास्तव में वही पहला दिन और पहला कदम था, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल की शपथ हुई थी। एक राजनीतिक कदम से ही बसपा गहरे राजनीतिक अवसाद में चली जानी थी, मगर उस वक्त ऐसा न होने पर बसपा को राजनीतिक राहत मिल गई जिसमे कांग्रेस ने घिसे-पिटे सलाहकारों की घिसी-पिटी और स्वार्थपरक रणनीतियों से हाथ आए मौके को यूं ही गंवा दिया।
मायावती के आज मुकाबिल कौन?
कांग्रेस p l puniaके टिकट पर उत्तर प्रदेश की बाराबंकी सुरक्षित लोकसभा सीट से जीतकर आए राज्य की मुख्यमंत्री मायावती के नंबर वन के राजनीतिक और सजातीय 'दुश्मन' पीएल पुनिया का उस वक्त केंद्रीय मंत्रिमंडल में शपथ-ग्रहण हो जाना मात्र ही बहुजन समाज पार्टी और मायावती को राजनीतिक रूप से कमजोर कर देने के लिए काफी था, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा न करके उस वक्त कौनसी रणनीति से काम लिया, यह तो वो ही जाने, लेकिन राजनीति के जानकार अब तक यही जान रहे हैं कि कांग्रेस में समय पर राजनीतिक निर्णय लेने का साहसिक दौर खत्म हो रहा है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नए दलित नेता और पीएल पुनिया के नाम से विख्यात पन्ना लाल पुनिया के लोकसभा चुनाव जीतने पर उस वक्त मुख्यमंत्री मायावती की बौखलाहट किसने नहीं देखी थी? लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद मायावती ने अपने मंत्रियों, विधायकों और नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक में पीएल पुनिया को अपना गद्दार पीए कहकर उनके जीवन चरित्र पर जोरदार हमला किया था। उस बैठक में मायावती बहुत देर तक पीएल पुनिया को निशाना बनाकर कोसती रहीं। यह इस बात का प्रमाण है कि वे पुनिया से कितनी खौफजदा हैं। तब मायावती के निशाने पर न सपा थी न भाजपा और ना ही कांग्रेस।
पीएल पुनिया के सरकारी सेवा में रहते राज्य के पिकअप जैसे वित्तीय संस्थानों और अन्य विभागो में काम करने के समय की उनसे संबंधित फैसलों और आदेशों की फाइलों की भी आजकल गहन पड़ताल की जा रही है ताकि पीएल पुनिया के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर मामले बनाकर और उन्हें दर्ज करके जेल भेजा जा सके। सुनने में आया है कि राज्य के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह की देखरेख में आपरेशन पीएल पुनिया चलाया जा रहा है। नौकरशाहों मे हर कोई जानता है कि पीएल पुनिया जब मुख्यमंत्री मायावती के प्रमुख सचिव हुआ करते थे तब उनमें और तत्कालीन औद्योगिक विकास आयुक्त (वर्तमान में कैबिनेट सचिव) शशांक शेखर सिंह से छत्तीस का आंकड़ा था। आज मायावती चाहती हैं कि पुनिया को जैसे भी हो भ्रष्टाचार के मामलों में फंसाया जाए और यह काम अंजाम की तरफ बढ़ रहा है।

मायावती को डरहैकि कांग्रेस कहीं पीएल पुनिया को केंद्रीय मंत्री न बना दे या कांग्रेस संगठन में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी न दे दे, नहीं तो पुनिया उन्हें उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में तबाह कर देगा, क्योंकि पीएल पुनिया न केवल राज्य के एक शक्तिशाली दलित नौकरशाह रहे हैं, बल्कि वह मायावती की हर एक कमज़ोरी से पूरी तरह से वाकिफ हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश के गली-कूचों, गांवों को और राज्य की नौकरशाही को अपने हाथ की रेखाओं की तरह जानते हैं। वे करीब से जानते हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति कैसी है, क्योंकि उनका पूरा प्रशासनिक जीवन उत्तर प्रदेश में ही बीता है। उन्होंने कई बड़े राजनेताओं के साथ काम किया है और राज्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभागों में रहे हैं, इसलिए वह उत्तर प्रदेश को जितना जानते हैं, उतना मायावती राज्य की चार बार मुख्यमंत्री बनकर भी नहीं जान पाईं हैं। गौर करने वाली बात है कि मायावती की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता भी सबसे नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति से हो जाती है जो उनके सामने थोड़ा भी खड़ा होना चाहता है। उनके गिरे हुए राजनीतिक सोच की पराकाष्ठा यह है कि यदि कोई उनको इतना समझा दे कि फलां दलित, विधायक या नेता बनने की कोशिश कर रहा है तो वे उसे ही अपना प्रतिद्वंदी मानकर चलने लगेंगी। उनकी प्रतिद्वंदिता दलित समाज के राजनीतिज्ञों से ख़ास तौर से है, जिन्हें मायावती नेता के रूप में पनपने नहीं दे रही हैं। बसपा में जिसने भी दलित राजनीति करने की कोशिश की उसे ठिकाने लगा दिया गया। इनमें आरके चौधरी और राज बहादुर जैसे कई प्रभावशाली बसपा नेताओं के नाम गिनाए जा सकते हैं।
इस सच्चाई को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती कि मायावती के घटिया से घटिया हथकंडों और जबर्दस्त विरोध करने के बावजूद लोकसभा चुनाव जीतने वाले पीएल पुनिया आज मायावती के नंबर वन के राजनीतिक प्रतिद्वंदी नहीं बल्कि 'राजनीतिक दुश्मन' माने जाते हैं, जिन्हें निपटाने के लिए मायावती को अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पैर पकड़ने पड़ जाएं तो मायावती वह भी कर जाएंगी। एक समय मायावती ने बसपा संस्थापक काशीराम के अत्यंत प्रिय शिष्य और बसपा के प्रमुख दलित नेता आरके चौधरी को अपमानित करके बसपा से निकलवाकर उन्हें नेस्तनाबूत करने में आजतक भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसा ही बसपा के दूसरे प्रमुख दलित नेता राजबहादुर के साथ भी हुआ। काशीराम की नज़र में ये दोनो बसपा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बसपा में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारो में गिने जाते थे। कहा जाता है कि मायावती ने अटल बिहारी वाजपेयी से विनय करके आरके चौधरी को उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के मंत्रिमंडल में हासिए पर डलवाए रखा यह अलग बात है कि मायावती उन्हें मोहनलालगंज से विधानसभा चुनाव हरवाने में कभी कामयाब नहीं हो सकीं। एक और उदाहरण-मायावती ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रसन्न रखने के लिए उनकी देवरानी और आंवला से भाजपा सांसद मेनका गांधी के पुत्र वरूण गांधी के खिलाफ विषम परिस्थितियों में घोर अपराधियों और देश द्रोहियों पर लगाए जाने वाले रासुका जैसे महाशक्तिशाली कानून का इस्तेमाल किया। मायावती अभी भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी के भाजपा की ओर से समानांतर प्रतिद्वंदी और उनके सगे चचेरे भाई और नवोदित भाजपा लीडर वरूण गांधी के खिलाफ पीलीभीत में गंभीर अपराधिक मुकदमे दर्ज कराने और उनका प्रचार कराने में लगी हैं।
मायावती ने ऐसा करके कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एहसास कराने की कोशिश की है कि वह वरुण गांधी के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मुकदमे कायम कराके उसका राजनीतिक जीवन बरबाद कर रही हैं ताकि वरूण गांधी कभी भी राहुल गांधी के सामने नहीं ठहर सके। यह शायद इसलिए कि सोनिया गांधी, मायावती के इस राजनीतिक योगदान को समझेंगी और उनके प्रति भविष्य में राजनीतिक उदारता से काम लेंगी। मायावती ने एक बार नहीं बल्कि कई बार अपने राजनीतिक स्वार्थ में सोनिया गांधी के सामने घुटने टेके हैं। मायावती, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ देश भर में जहर उगलने के बाद इस बार भी केंद्र की नवगठित यूपीए सरकार को बिन मांगा समर्थन देने के लिए दिल्ली पहुंच गईं। मायावती की यह एक ऐसी चालाक पैतरेबाजी थी जिसमे उनकी अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता अनिश्चितता और बौखलाहट का साफ तौर पर प्रकटीकरण होता है। यूपी का राज-पाट चलाने में विफल मायावती में अब उतनी राजनीतिक शक्ति नहीं बची है कि वह केंद्र सरकार से सीधी लड़ाई मोल लेकर चलें। यह इससे सिद्ध होता है कि पिछले दिनों वे केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की बात कह कर खुद ही पीछे हट गयीं। यह एक ऐसा उदाहरण है जो उनकी राजनीतिक कमज़ोरी को उजागर करता है। ये उदाहरण यहां इसलिए प्रासंगिक हैं कि मायावती से निपटना अकेले राहुल गांधी या सोनिया गांधी के वश में नहीं है। उत्तर प्रदेश में पीएल पुनिया या उन जैसे प्रोफाइल के किसी भी दलित नेता को शुरू में ही किसी भी महत्वपूर्ण भूमिका में आगे किया जाता तो आज मायावती को उत्तर प्रदेश में अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखना मुश्किल होता और अब तक बसपा को यूपी की सत्ता से भी बाहर करने का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता।
यह तो सर्वविदित है ही कि मायावती राजनीति में प्रबल विरोध का ज्यादा समय तक सामना नहीं कर पाती हैं। इसीलिए उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए दलितों की भारी उपेक्षा करके उन अराजक तत्वों को साथ में ले लिया जिनके अत्याचारों के खिलाफ दलितों ने संघर्ष किया है और जिन्होंने दलितों को आतताइयों की तरह सताया है। आज वे मायावती के दलित वोट खरीद कर न केवल राजनीति कर रहे हैं बल्कि मायावती से उलटे दलितों को ही डटवांते भी रहते हैं और प्रताड़ित भी करवा रहे हैं। इससे दलित समाज में मायावती को लेकर भारी निराशा है। मायावती क्रूर व्यवहार करके अपने विरोधियों को डराती धमकाती रहती हैं। मायावती को अपनी भ्रष्ट कार्यप्रणाली की चौराहों पर आलोचना होने की भी चिंता नहीं है, जिसमे उन्हें अपनी छवि की भी चिंता नहीं है जोकि रहे या जाए। पीएल पुनिया, राजबहादुर या आरके चौधरी (आरके चौधरी कांग्रेस में नहीं हैं) मायावती की कारगुज़ारियों, सामाजिक और राजनीतिक कमज़ोरियों से पूरी तरह से वाकिफ हैं, इसलिए मायावती कभी नहीं चाहेंगी कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में, पीएल पुनिया या राजबहादुर को भी कोई भी महत्व दे या आरके चौधरी को कांग्रेस में शामिल करने का कोई प्रयास करे। राजनीतिक टीकाकारों का कहना है कि अभी भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में थके-थकाए और मगरमच्छ सरीखे नेताओं के पीछे चल रही है। उसे इनके पीछे चलना कम करके, कुछ ऐसे प्रयोग करने होंगे जिनसे बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश में पराभव हो। यह तभी संभव है कि जो काम दलितों के घर जाकर राहुल गांधी कर रहे हैं उसमे वे अपने प्रमुख दलित नेताओं को राजनीतिक महत्व देकर अपने आगे रखें। कांग्रेस यदि शुरू से ही ऐसे नेताओं को आगे लेकर चलती जो बसपा प्रमुख मायावती का वास्तव में मुकाबला कर सकते हैं तो कांग्रेस और राहुल गांधी की राह और आसान हो जाती, मगर कांग्रेस ने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया है।
जो मायावती, राहुल गांधी के अपने ही लोकसभा क्षेत्र अमेठी में दलितों के घर जाने खाना खाने और सोने मात्र से इतनी बौखलाई हुई हैं तो वह उनके किसी सजातीय राजनीतिक दुश्मन को अपने मुकाबले खड़ा पाकर कितनी सामान्य रह पाएंगी? राहुल गांधी को दलित सर आंखों पर जरूर बैठाएंगे लेकिन सामाजिक एवं राजनीतिक मामलों में वे पीएल पुनिया या उन जैसे कद और प्रभाव के किसी अन्य दलित नेता की ही ज्यादा सुनेंगे। इंदिरा गांधी ने दलित नेता बाबू जगजीवन राम को राजनीति में यूं ही आगे नहीं बढ़ाया था। वे जानती थीं कि दलित जितनी बाबू जगजीवन राम की बात सुनेंगे या मानेंगे उतनी उनकी नहीं। यही स्थिति राहुल गांधी, सोनिया गांधी के साथ भी है। उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति में विजय हासिल करने के लिए जिससे मुकाबला जीतना है वह पहले से ही सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अत्यंत शक्तिशाली है जिसके सामने उसकी ही कमजोरी को खड़ा करना होगा। ध्यान रहे कि महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य की सबसे बड़ी कमजोरी उनके पुत्र अश्वत्थामा थे और युद्ध में उसके के मारे जाने की मात्र झूठी खबर से ही वे टूट गए और युद्ध पाण्डवों के पक्ष में चला गया। इसलिए उत्तर प्रदेश में यह राजनीतिक लड़ाई केवल दलितों के घर जाने खाने-सोने से नहीं जीती जा सकती। कुछ समय बाद इसका क्रेज़ भी जाता रहेगा और अंतत: कांग्रेस को किसी भी बड़े दलित नेता को ही आगे रखने की रणनीति पर चलना होगा लेकिन कांग्रेस की मौजूदा कार्यप्रणाली को देखते हुए वही बात लौटती है कि 'का वर्षा जब कृषि सुखाने'।
जिस वोट से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपना फिर से अभेद्य दुर्ग खड़ा करना है तो वह दलित वोट ही है, जिसके साथ आए बिना कांग्रेस यूपी में अपने राजनैतिक लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकती। दलित और मुस्लिम गठजोड़ कांग्रेस के लिए एक शानदार उत्तरदान रहा है। फिलहाल मुसलमान तो कांग्रेस की तरफ रुख कर रहा है लेकिन अगर दलित भी उसी प्रकार से कांग्रेस में वापस आ जाएं तो यूपी में कांग्रेस का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यह तभी संभव है कि जब दलितों का बसपा से मोह भंग हो और इस मोह भंग करने के लिए कांग्रेस के पास कोई ठोस रणनीति हो और ऐसे कार्ड हों जिनसे मायावती की राजनीतिक कमजोरियों का लाभ उठाया जा सके, जिनमे यह विश्वास स्थापित करने की शक्ति हो कि कांग्रेस ही दलितों की असली शुभचिंतक है और कांग्रेस के पास भी मायावती से ज्यादा अच्छे दलित नेता हैं जो कि दलितों के हित के लिए सर्वाधिक काम कर रहे हैं जबकि बसपा अध्यक्ष मायावती दलित वोटों को गुंडे माफियाओं और ठेकेदारों के हाथों बेचकर दलितों की मान-मर्यादा समृद्धि और जान-माल की सुरक्षा नहीं कर सकती हैं। ऐसा करने के लिए इस बार लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पीएल पुनिया के रूप में ऐसा राजनीतिक कार्ड मिला है जिससे कांग्रेस मायावती की भ्रष्ट राजनीति का उपचार कर सकती है। देखें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास राजबहादुर और पीएल पुनिया के अलावा कोई दलित नेता नहीं है जो राजनीतिक रूप से मायावती का मुकाबला कर सके, जो हैं भी तो उनमे अधिकांश ऐसे हैं जिनके परिवार के सदस्य सभी दलों में हैं या वे रहते तो कांग्रेस में हैं मगर काम बसपा के लिए करते हैं।
मायावती के नए भाई
राष्ट्रपति manmohan singhके यहां राजनीतिक दलों के समर्थन के पत्र देने जाते समय मीडिया से बात करते हुए यूपीए संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह का उनकी सरकार को बसपा के बिना शर्त समर्थन के लिए केवल धन्यवाद देना ही काफी था। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात एवं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें बसपा के समर्थन पत्र पर बोलना नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए था। वैसे भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के साथ न तो एक साथ तालमेल बैठा सकती है और न इन दोनों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकती है। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ने के लिए और विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत का लक्ष्य पाने के लिए इन दोनों ही दलों से दूरी बनाए रखना जरूरी माना जाता है। मगर उस वक्त मीडिया से मुखातिब मनमोहन सिंह ने समर्थन देने वालों में बसपा और सपा का पहले नाम लेकर एक निराशाजनक संशय उत्पन्न कर दिया। यहीं से बसपा के पतन की नींव पड़ सकती थी, लेकिन तब भाजपा के नेता लालजी टंडन के बाद सरदार मनमोहन सिंह मायावती के नए भाई हो गए और मायावती उनकी छोटी बहन। कांग्रेस ने मायावती को एक ऐसा मौका दे दिया कि जिसमें मायावती आज यह इल्जाम लगा रहीं हैं कि केंद्र सरकार का समर्थन करने के बावजूद उसकी आर्थिक मदद रोकी जा रही है और उसके खिलाफ साजिशन कार्रवाईयां की जा रही हैं। मायावती एक एहसान करने के बदले किसी भी तरह से उसकी कीमत भी वसूल करती हैं तो कांग्रेस अब किस मुंह से मायावती के खिलाफ चल रहे मामलों के खिलाफ जाएगी? यह कौन सा धर्म होगा कि जिसका राजनीतिक समर्थन लिया जा रहा हो उसको संरक्षण न देकर बल्कि उसके विरुद्ध भी चला जाए।
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में दुगुनी से भी ज्यादा लोकसभा सीट मिली हैं जिसका श्रेय कांग्रेस में राहुल गांधी को दिया जा रहा है। मगर माना यह जाता है कि कांग्रेस को जो यूपी में सफलता मिली है वह मायावती सरकार की बदनामियों और नाकामियों पर जनता की एक तीखी प्रतिक्रिया है। यूपी की जनता ने समाजवादी पार्टी सरकार की बुराईयों को भी ध्यान में रखा है और इन दोनों दलों के नेताओं की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखकर कांग्रेस को विकल्प के रूप में भरसक कोशिश करके जिताया है। अमेठी रायबरेली में राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के दलितों के घर जाने, उनके यहां खाना खाने या सोने से कांग्रेस के लिए दलितों में लहर नहीं चली और न चलने वाली है। वैसे भी कभी इस परिवार की दिलचस्पी लोकसभा के टिकट बांटने और अमेठी रायबरेली के बाहर नहीं दिखाई दी है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का ही वह दौर था जब पूरे देश में इनका राजनीतिक महत्व स्वीकार किया जाता था। इनके बाद सारी स्थितियां पलटी हुई हैं। अब न वो संगठित कांग्रेस है और न उसके पास उस तरह के दूरगामी सोच वाले निष्ठावान नेता हैं। सलाहकारों के रूप में एक सिंडीकेट नजर आता है जो राहुल गांधी और सोनिया गांधी को अपनी लाभ-हानि के हिसाब से सलाह देता रहता है। इनके राजनीतिक एजेंडे में यदि उत्तर प्रदेश प्रमुखता पर होता तो विधानसभा चुनाव में मायावती डेढ़ सौ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पातीं। कांग्रेस में अनुशासन भी अब वैसा नहीं रहा है उसके नाम पर अंतरविरोधियों के पर जरूर कतरे जाते हैं।
ध्यान देने वाली बात है कि दलित यह अच्छी तरह से जानते हैं कि मायावती अपने सामने किसी को भी नेता बनते नहीं देख सकतीं, उसमे भी किसी दलित को? उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वे नहीं चाहतीं कि दलित समाज उनके अलावा किसी और को लीडर माने। कांग्रेस के लिए यह एक गंभीर मुद्दा हो सकता है कि बसपा में रहकर कोई दलित, नेता नहीं बन सकता जबकि दूसरे राजनीतिक दलों में किसी दलित के बड़ा नेता बनने की अपार संभावनाएं हैं और नेता बने भी हैं। कांग्रेस ने देश को बाबू जगजीवन राम जैसे कई महान दलित नेता दिए हैं। मायावती किसी को राज्यसभा या विधान परिषद में नामित कराती हैं तो कहा करते हैं कि उसकी स्थिति बंधुआ सदस्य से बढ़कर कुछ भी नहीं होती है। उनके मंत्रिमंडल में भी किसी भी सदस्य को काम करने की आज़ादी नहीं है। मायावती की यह ऐसी कमजोरी है कि जिसका कांग्रेस क्यों नहीं लाभ उठा सकती है?

सवर्ण समाज की नई पीढ़ी असमंजस में है कि वह अपने राजनीति कॅरियर के लिए किस राजनीतिक दल के साथ चले? वह प्रतिक्रियावादी राजनीति की ओर झुकती दिख रही है। इसमें कांग्रेस ने क्या रास्ता बनाया? उत्तर प्रदेश में अब यूं ही सवर्ण राजनीति के दिन लद रहे हैं। रीता बहुगुणा जोशी का लखनऊ में बसपाइयों ने घर फूंका और कांग्रेस, रीता बहुगुणा जोशी के मुरादाबाद में दिए विवादास्पद बयान पर अपना बचाव ही करती रही। मायावती कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक हैं और इसके कुछ बड़े कांग्रेसी नेता उत्तर प्रदेश में मायावती के आर्शीवाद से अपने इंजीनियरिंग, मेडिकल कालेज और दूसरे व्यवसायिक कार्य कर रहे हैं। राहुल, सोनिया और प्रियंका के अमेठी, रायबरेली और प्रदेश के कुछ दूसरे जिलों में दौरों और दलितों के घर जाने या उनके घर खाना खाने के अलावा प्रदेश में मायावती सरकार की कारगुजारियों एवं कुशासन के खिलाफ क्या कर रहे हैं? उनका प्रदेश में चलाया हुआ आंदोलन कहां है? यहां तो केवल समाजवादी पार्टी ही मायावती के लाठी-डंडे खा रही दिखाई पड़ती है, रेलें रोक रही है, धरने दे रही है। कांग्रेस सड़क पर संघर्ष में कहां है?
राहुल गांधी अमरीका इंग्लैड की जनता के बीच काम नहीं कर रहे हैं। वहां और भारत में जनता के बीच काम करने में बहुत ही फर्क है। भारत सार्वजनिक रूप से जितना विकसित दिखाई दे रहा है वह अंदर से उतना ही कमजोर है। वह सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी टूट रहा है। यहां के चुनावी और विकास के एजेंडे जातिगत राजनीति पर तय हो रहे हैं और उसमें भी राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजों में लिप्त हैं। राजनीति की नई पीढ़ी इसमें और भी ज्यादा लिप्त हो रही है इसलिए राहुल गांधी को अभी ही सोचना होगा कि उनकी वर्तमान राजनीतिक कार्यप्रणाली कितनी कारगर हो सकती है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अकेला चलकर भी एक तरह से दो नावों पर सवार दिखाई देती है। उसे सपा भी चाहिए और बसपा भी। इनमे से पता नहीं कब किसके समर्थन की जरूरत पड़ जाए। उत्तर प्रदेश में चाहे जो होता रहे। इसीलिए कुछ अनुभवी कांग्रेसी बोला करते हैं कि जब कांग्रेस हाई कमान सपा बसपा से जब चाहे दोस्ती गांठ लेता है तो उन्हें भी सपा बसपा की बुराई मोल लेने की क्या जरूरत है? इसलिए देखना है कि राहुल गांधी के दलितों के घर जाने खाने और सोने से यूपी में राजनीतिक क्रांति लाने का सपना कब तक पूरा होता है।
उत्तर प्रदेश ने देश को आठ प्रधानमंत्री दिए हैं। पिछले साठ वर्ष से कांग्रेस जिन नेहरू-गांधी के नाम की कमाई खा रही है, उन्हें भी उत्तर प्रदेश ने ही दिया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास सभी जातियों में योग्य लोगों की कोई कमी नहीं रही है मगर लोग प्रश्न करने लगे हैं कि उनका उपयोग क्या है? लोकसभा के लिए चुनकर आए कई ऐसे चेहरे हैं जिन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था। सलमान खुर्शीद तो कांग्रेस के पुराने नेता हैं और मनमोहन सिंह की तरह ही स्वामी भक्त कांग्रेसी हैं, नरसिंहराव सरकार में मंत्री रह चुके हैं, और कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा भी हैं, उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था। श्रीप्रकाश जायसवाल मनमोहन सिंह के साथ भी काम कर चुके हैं और विषम परिस्थितियों में भी कानपुर से लगातार जीतते रहे हैं, उन्हें भी कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था। अवध के इलाके अयोध्या-फैजाबाद जैसी सीट कांग्रेस ने जीती है। कुर्मी समाज के प्रमुख और प्रभावशाली समाजवादी और पूर्व केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा भी कांग्रेस की इस जीत के कारण रहे हैं। उन्हें भी उस समय मंत्री नहीं बनाया गया। मोहिसना किदवई तकनीकी रूप से तो छत्तीसगढ़ से राज्यसभा सदस्य हैं लेकिन हैं तो उत्तर प्रदेश से। उनको मंत्री बनाने से मुस्लिम कोटा, उत्तरप्रदेश कोटा और महिला कोटा तीनों भरे जा सकते थे। यह क्या कि चार सांसदों वाले हिमाचल प्रदेश से जहां से कांग्रेस सिर्फ एक सीट जीती है, दो कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं। जम्मू कश्मीर से भी दो कैबिनेट में लिए गए हैं। सीपी जोशी पहली बार सांसद बने और कैबिनेट मंत्री बना दिए गए। बंगाल से आठ मंत्री हैं। उत्तर प्रदेश के लिए ऐसी कौन सी खास रणनीति है जिसमे कांग्रेस अपने नेताओं की उपेक्षा करके या उनको समय से राजनीतिक अवसर दिए बिना कोई चमत्कार कर दिखाएगी?

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