स्वतंत्र आवाज़
word map

मुंबई में लोहे की भट्टियों में झुलसता बचपन

आलोक नंदन

आलोक नंदन

लोहे की भट्टियों में बचपन

मुंबई। फिल्मों में अक्सर एक छोटा सा बच्चा फुटपाथ पर बूट-पॉलिश करता है और उसके सामने पॉलिश का पैसा फेंक देने पर वह स्वाभिमान में अकड़ते हुए डॉयलॉग बोलता है कि 'साहब वह मेहनत का पैसा ले रहा है न कि कोई भीख।' बूट-पॉलिश कराने वाला साहब उससे प्रभावित होता है और फिर उसके हाथ में पैसे दे देता है। ऐसे सीन वाली न जाने कितनी फिल्मे मुंबई में बनी हैं और सुपर-हिट भी हुई हैं, फिल्मों में प्रदर्शित स्वाभिमान की सच्चाईयों से दूर इसी मुंबई में ऐसे बच्चों की कहानी महाभयानक है। वास्तविकता देखनी हो तो मुंबई आइए जहां उसका स्वाभिमान तो छोड़िए, उसका जीवन ढाबों, होटलों, घरों, दुकानों और आग और ज़हर उगलने वाले कारखानों में सिसक रहा है।

रोजी-रोज़गार की तलाश में हर साल लाखों लोग भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई की ओर रुख करते हैं। इनमें बहुत बड़ी संख्या में दूर-दराज़ के वे बच्चे भी शामिल हैं जो गरीबी और भुखमरी से जूझते हुये अपनो का सहारा लेकर मुंबई में कदम रखते हैं और फिर यहां के कल-कारखानों में झोंक दिये जाते हैं। इन्हें दिहाड़ी मजदूरों से भी कम 30 रुपये से 50 रुपये प्रतिदिन तक दिये जाते हैं। जोगेश्वरी वेस्ट के पास एसवी रोड पर मुंबई के 'सेठों' की लोहे की कई फैक्ट्रियां हैं, जिनमें बाल श्रमिक कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बहुत बड़ी संख्या में कम उम्र के बच्चों से कठोर काम ले रहे हैं यह तब है जब मजदूरों के हितों और श्रम कानून के पालन की लड़ाई लड़ने वाले मजदूर नेता सबसे ज्यादा मुंबई में हैं।
इन
फैक्ट्रियों में मकान निर्माण से लेकर मोटर गाड़ी इत्यादि से संबंधित कई तरह के काम होते हैं। लोहे को तपती भट्टी में डालने के बाद उन्हें तोड़-मरोड़ कर मांग के अनुसार नये रूप और आकार में ढाला जाता है। चूंकि अनुभवी और परिपक्व कारीगर इस काम के लिए अधिक पैसों की मांग करते हैं, इसलिये इन फैक्ट्रियों के मालिक बहुत बड़ी संख्या में उन बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो काम की तलाश में मुंबई आते हैं और पैसे के लिए न सौदेबाजी करते हैं और नाही तनखाह के लिए कोई यूनियनबाज़ी। फैक्ट्री मालिक समझते हैं कि इन्हें रोजगार की तलाश है और ये अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए मेहनत से काम करते हैं, इनका कोई हाजिरी रिकॉर्ड भी नहीं रखना होता है।
पिछले
कुछ वषों से उत्तर प्रदेश और बिहार से बहुत बड़ी संख्या ऐसे बच्चों का पलायन हुआ है, जो अपने इलाके में गरीबी की मार झेलते आ रहे थे, और जिन्होंने गुरबत में स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। अधिकतर बच्चे मुंबई में रहने वाले अपने उन सगे संबंधियों का सहारा लेकर यहां पहुंचे हैं, जो पहले से ही मुंबई में दोयम दर्जे के काम लगे हुये हैं। इन बच्चों को यही कह कर काम पर लगाया जाता है कि लगातार काम करने से उनके हाथों में हुनर आ जाएगा, और हुनर सीख गये तो फिर उनके लिए मुंबई में पैसा कमाना आसान हो जाएगा। लोहे की इन फैक्ट्रियों में एक बार लग जाने के बाद, वर्षों काम सिखाने के नाम पर उनका खूब शोषण होता रहता है। तमाम तरह के उपक्रमों के साथ तपती भट्टी के नजदीक काम करने से आग की तेज आंच से झुलस कर वे जवान होने के पहले ही बूढ़े हो जाते हैं। लोहे की गर्मी और उनसे निकलने वाली चिंगारियों का नकारात्मक असर उनकी आंखों पर भी पड़ रहा है इसलिए इनमें कई बच्चे तो ऐसे हैं जिनकी आंखों की रोशनी अभी से ही उनका साथ छोड़ रही है।
लोहे
की बारीक कटाई और छटाई करने वाली मशीनों पर भी इन बच्चों से खूब काम लिया जा रहा है। जरा सी नजर चूकने की स्थिति में ये मशीने बच्चो की मांसपेशियों को चीरते हुये सीधे हड्डी तक को काट डालती हैं। यहां काम करने वाले अधिकतर बच्चों के शरीर पर कटे-फटे के निशान इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वे किन खतरों के बीच अपनी रोटी और अपने परिवार की खराब आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए जूझ रहे हैं। इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले बच्चों को बाल श्रमिक कानूनों के भय से लिखित रूप में नहीं रखा जाता है, इसलिए किसी तरह की दुर्घटना होने की स्थिति में फैक्ट्री के मालिक न सिर्फ इनके सेवायोजन से साफतौर से इंकार कर देते हैं बल्कि उन्हें गालियां भी देते हैं कि ठीक से काम करना आता नहीं है और पता नहीं कहां-कहां से चले आते हैं।
स्टील
और आयरन फैक्ट्रियों में काम करने की कोई समय सीमा भी निर्धारित नहीं है। सुबह से लेकर देर रात तक बच्चों को यहां पर काम करना पड़ता है। काम करने का माहौल भी काफी खतरनाक है। लोहे की उड़ती हुई गर्म बुरादों के बीच उन्हें काम करना पड़ता है। फैक्ट्री के अंदर चारों ओर फैले विभिन्न तरह के रसायनिक अवयवो से उनका शरीर लिपटा रहता है। इन रासायनिक अवयवो का उनके शरीर पर क्या-क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे बच्चे पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं और फैक्ट्री के मालिक भी इस विषय पर सोचने की जहमत नहीं उठाते हैं। उन्हें तो बस आर्डर को समय पर पूरा करने की रहती है।
फैक्ट्रियों
में काम करने वाले अनुभवी कारिगर, मालिकों से नजरें बचा कर काम सिखाने के नाम पर बालश्रमिकों का यौन-शोषण भी कर रहे हैं। काम सीखने और अधिक पैसा पाने की लालच में ये बच्चे बड़ी सहजता से उनके झांसे में आ जाते हैं। चूंकि विभिन्न उम्र के बच्चों को एक ही साथ काम पर लगाया जाता है, इसलिये समय से पहले ये बच्चे विकृत यौन प्रवृतियों के शिकार भी हो रहे हैं। पड़ताल करने पर पता चला कि इनमें अधितर बच्चे अपने दूर के उन सगे संबंधियों के पास रहते हैं, जो पहले से मुंबई में रहते आ रहे हैं और ये ही दूर के सगे संबंधी इन बच्चों को सबसे ज्यादा और खुलकर यौन शोषण कर रहे हैं।
एसवी रोड
के पास लोहे की ये फैक्ट्रियां नाले के किनारे स्थित हैं, जिसमें पूरे इलाके की गंदगी गिरते रहती हैं। इस नाले से निकलने वाली दमघोटू बदबू ने लोहे की फैक्ट्रियों में अपना डेरा जमा रखा है। इसी दमघोटू बदबू के बीच इन बच्चों को काम करना पड़ता है। सबसे बुरी स्थिति तो खाने के समय होती है। एक तो इन्हें स्वास्थ्यकर खाना उपलब्ध नहीं होता है, दूसरी बात यह कि जब ये खाने के लिए बैठते हैं तो ऐसा लगता है कि खाने से ही बदबू आ रही है। इन सब के बावजूद अन्य राज्यों से बच्चों के यहां आने का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। किसी-किसी फैक्ट्री में तो एक ही परिवार के तीन-चार बच्चे हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं। इस संबंध में बात करने पर ये बड़ी सहजता से बताते हैं कि अपने गांव में गरीबी और भुखमरी झेलने से अच्छा है यहां काम कर के कुछ कमा ले रहे हैं। अभी भले ही पैसा कम मिल रहा है लेकिन आगे चलकर इतना पैसा उन्हें जरूर मिल जाएगा कि कुछ घर भेज सकेंगे। इन फैक्ट्रियों में नियमित काम करने के बावजूद इनका भुगतान एक दिहाड़ी मजदूर की तरह ही होता है। बच्चे की उम्र और काम सीखने की काबिलियत के मुताबिक इन्हें दिहाड़ी के पैसे दिये जाते हैं।
मुंबई
में बाल श्रम और बाल अधिकारों पर कार्य करने वाली बहुत सारी संस्थायें हैं, लेकिन इन फैक्ट्रियों में जाकर इन बच्चों की दुर्दशा को देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं है, और इन बाल मजदूरों की सबसे बड़ी मजबूरी और कमजोरी यह है कि यदि ये यहां पर काम न करें तो कहां जाएं और क्या करें?

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]