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खजुराहो कला संस्कृति के स्वर्ग में मेरी यह यात्रा

विनीता `राज`

विनीता `राज`

कला संस्कृति

करीब ढाई घंटे सड़क पर दौड़ती मेरी टैक्सी अपने मुकाम तक पहुंच रही है कि पुरातत्‍व विभाग के एक बोर्ड पर मेरी नज़र पड़ी- खजुराहो में आपका स्‍वागत है! कला, संस्‍कृति और उससे झांकती हुई एक जीवंत शैली से जल्‍दी से जल्‍दी रू-ब-रू ‌होने की मेरी जिज्ञासा से मेरे मन में अनेक तरंगे उठ रही थीं। क्‍योंकि यहां के बारे में मैने जो सुना था, वह मेरे लिए बहुत जिज्ञासाजनक था। चौड़ी सड़क छोड़ती हुई टैक्सी जैसे ही खजुराहों में दाखिल हुई तो मन रोमांचित हो उठा। आखिर मैं भारत ही नहीं अपितु विश्व की अनुपम धरोहरों में गिनी जाने वाली चंदेल राजवंश के राजाओं की नगरी खजुराहो आ ही गई। मेरे देशाटन में केवल मध्‍य प्रदेश के बांधवगढ़ के प्राकृतिक और वन्‍य साम्राज्‍य का वैभव देखने जाना था, यहां के बाद मैयर में शारदा देवी सिद्घ शक्‍तिपीठ के दर्शन का कार्यक्रम था, किंतु भला हो एक पर्यटक का जिसने हमसे कहा कि खजुराहो भी तो है इसलिए उसे किसलिए मिस किया जाए। शक्‍तिपीठ के दर्शन के बाद हमारी टैक्‍सी ने खजुराहो की तरफ रूख किया और ढाई घंटे में हम विश्‍व की शानदार वास्‍तु और शिल्‍प के बेजोड़ संगम खजुराहो मे खड़े थे। जनवरी के महीने में भी यहां इतना खुशनुमा मौसम जैसे बसंतराज ने अपनी छटा पहले ही बिखेर दी हो और वह खजुराहो मंदिरों में दर्शन नमन के लिए अपने श्रद्घा पुष्प लिए पहले आ गया हो। किसी देशाटन का भी अपना आनंद होता है। शाम के गहरे धुंधलके में रोड लाइटों में नहाते मनोरम दृश्य, चौड़ी सड़क के दोनों ओर हरियाली और बाई तरफ भव्य होटलों के दृश्य वाकई प्रभावित करने वाले थे। मुझे अपनी सरकार पर गर्व हो आया आखिर हमने अपनी अनमोल विरासतों को समेटे शहरों को सहेजना सीख ही लिया है।
हमारा ड्राइवर यहां के बारे में पहले से ही अच्‍छा जानकार था सो उसने बताया कि छोटे से शहर के गांव खजुराहो में आबादी कम ही है, यहां लोग बहुत शांतिप्रिय हैं। ऐसी जगह पर अतिरिक्‍त निर्माण कार्य या आबादी बिलकुल नियंत्रित होनी चाहिए नहीं तो प्राचीन इमारतों पर खतरा मंडराने लगता है। ड्राइवर को यहां के होटलों की भी जानकारी थी, इस‌लिए मेरे पति ने उसे सही से होटल पर ले चलने को कहा। ऐसे मामलों में जागरूक रहना बेहतर रहता है। वो शहर के बीचों-बीच ले आया, जहां हमने बाजार की चहल-पहल से सजी-धजी दुकानें बस एक नजर भर देखीं। अभी रूकने का इंतजाम करना था क्‍योंकि यहां के लिए पहले से बुकिंग नहीं थी। कहा ना, खजुराहो का कार्यक्रम भी एक तरह से देवयोग था या मेरी किस्मत थी कि बांधवगढ़ से हमारे प्रोग्राम में बदलाव आया और मेरे पति ने खजुराहो का प्रोग्राम बना लिया, और तो और वापसी का रिर्जेवेशन भी पहले का था जिसे खजुराहो जाते समय उन्होंने आगे का करवा लिया था। तारीफ करूंगी कि मेरे पति बहुत ही अनुशासित और सुनियोजित ढंग से ऐसे प्रोग्राम बनाते हैं, और हो भी क्यों नहीं, आखिर देश की शानदार और अनुशासित फौज में अफसर जो हैं। इस कारण प्रबंधन और अनुशासन उनके स्वभाव का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है। मेरे जीवन में भी वैसे ही अनुशासन का महत्व और ज्यादा हो गया है, जिससे मुझे निजी तौर पर फायदा ही होता है।
बाजार में टैक्‍सी से उतरते ही एक अनुभव हमारा इंतजार कर रहा था। मैंने अभी तक सामान बेचने वालों को तो ग्राहकों के पीछे पड़ते देखा है पर होटलों के बाहर अपने एजेंट को खड़ा करके ग्राहकों को लुभाने का तरीका बहुत ही खीझ भरा देखा। वहां कुछ होटल पास-पास थे, इसलिए शायद चार-पांच एजेंट साथ ही खड़े थे। टैक्सी ड्राइवर तो अपनी समझ से अच्छे होटल में ही ले गया था, लेकिन हमें वहां ठीक नहीं लगा। बाहर खड़े एजेंटों ने जिस तरह से हमें घेरा सच मानिये कि हम खीझ हो उठे। तभी मेरे मन में यह भी प्रश्न आया कि चलो हम तो भारतीय हैं और हिंदी भाषी हैं मगर ये लोग जब विदेशी पर्यटकों के साथ ऐसा व्यवहार करते होंगे तो वे खजुराहो से भारत की और मध्य प्रदेश की कैसी छवि लेकर वापस होते होंगे? यह स्‍थानीय प्रशासन ‌की जिम्‍मेदारी है कि वह ऐसे दलालों पर लगाम लगाए जो एक साथ पर्यटक को गुंडों की तरह से घेर लेते हैं और अपने सामान को खरीदने या अपने होटल में ठहरने के लिए मजबूर सा करते हैं। हमने एक सबक लिया कि ठहरने के मामले में सबकी सुनिए, लेकिन कीजिए अपने मन की, और हो सके तो ठहरने जैसी जानकारियां जरूर पहले से ही अपने पास रखें। यह निजी सुरक्षा से जुड़ा मामला है।
खैर मेरे पति ने ड्राइवर को मध्‍यप्रदेश पर्यटन के होटल चलने को कहा और हम वहां पहुंच गए यानी होटल झंकार। मुझे मध्य प्रदेश सरकार का ये होटल ज्यादा अच्छे स्तर का व सुविधाजनक लगा। हममें से ज्यादा लोग सस्ते होटलों के चक्कर में कई मुसीबतें मोल ले लेते हैं, जबकि हमारी सरकार के टूरिज्म होटल ज्यादा विश्वसनीय व उच्च स्तर के होते हैं। मुझे लगा कि जन सामान्‍य की नज़र में सरकारी प्रबंधन की खराब छवि का बहुतों को खामियाजा भुगतना पड़ता है, अब देखिए कि कुछ मामलों में सरकारी चीजें निजी क्षेत्र से बहुत ज्यादा अच्छी होती हैं, लेकिन एक बार छवि पर संशय स्‍थापित हो जाने के कारण ऐसा भी होता है कि आदमी की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। बहरहाल आइडिया काम आया और हम सुरक्षित होटल की ‌चिंता से मुक्‍त हुए।
होटल में चेक इन के बाद हमने यहां के बारे में स्‍वागत पटल से कुछ जानकारियां लीं। पता चला कि कुछ ही कदम की दूरी पर शिल्प ग्राम साउथ कल्चर सेंटर नागपुर का एक संस्‍थान है, जहां रोज सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। यह अपनी संस्कृति से जुड़ाव या आकर्षण कहिए या भारतीय संस्कृति की वैभवता का सम्‍मोहन कि आप जितना देखते या समझते हैं, उतने ही जिज्ञासा के नए पन्ने खुलते जाते हैं। हर प्रदेश का अपना पुराना और नयापन अपने आप में अनोखा अनुभव देता है। शायद यही है भारत की वह शक्‍ति जो यहां की कला और संस्‍कृति की ओर दुनिया को अपनी ओर खींचती ही रहती है। वाकई में सम्‍मोहन के भी कई अलौकिक रूप हैं। होटल में हमें बताया गया कि य‌हां शाम को 9 बजे कार्यक्रम शुरू होता है, इसलिए आप 8-45 तक निकल लें। होटल के स्‍वागत पटल का धन्‍यवाद कि हमारे टिकट भी उन्होंने मंगवा दिए।
कहते हैं कि हर एक पल जीवन का एक अनुभव होता है। दिन भर ‌के थके-हारे, और मैं तो आराम से कुछ देर बैठना चाहती थी, पर समय कहां था? घड़ी की सुइयां ऐसे समय पर हमेशा मुझसे तेज भागती हैं। यहां पतिदेव पर खीझना भी ठीक नहीं था, वैसे भी वो मेरा और मेरी जिज्ञासाओं का पूरा ध्‍यान रख रहे थे। कहीं भी जाएं तो समय की मर्यादा का ध्यान तो होना ही चाहिए। हमें निकलते-निकलते 8-50 हो गए और हम पैदल ही शिल्प ग्राम की ओर निकल पड़े। हलकी गुलाबी ठंडी, चौड़ी सड़क, हरियाला मौसम, सच में खुशनुमा था। आखिर सही समय पर हम शिल्प ग्राम में दाखिल हो गए। घुसते ही लॉन व गैलरी इतनी भव्य मूर्तियों से सजी थी कि कहने को शब्द ही नहीं मिल रहे हैं। ब्रास व अन्य धातुओं की मूर्तियां एकदम सजीव अपनी भव्य सुन्दरता स्वयं ही बखान कर रही हैं। हमारी कला कितनी समृद्घ है कि हर जगह की नई विविधता से हम चमकृत हो जाते हैं।
अभी उनकी कला व सौन्दर्य का आनन्द लेने का समय नहीं था। शो शुरू होने वाला था, हमें ऑडिटोरियम को देख के हैरानी हुई। भीड़ के नाम हम दोनों के अलावा दो विदेशी महिलाएं बैठी थीं, बस। क्या लोगों को इन कार्यक्रम के बारे में पता नहीं या बाजार व मंदिर से दूर होने के कारण यहां लोग कम आते हैं? खैर, दिमाग से ऐसे सारे ख्याल झटक कर मैं रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेना चाहती थी। सच में एक घंटे के उस कार्यक्रम में देश के विभिन्न राज्यों के नृत्य पेश हुए और सच मानिए, हर प्रदेश के रंग सिमट कर यहां आ गए, हम तो मंत्र मुग्ध हुए बैठे रहे। मेरी सारी थकान और उलझन भी जाती रही। वाकई पर्यटकों के लिए ऐसे कार्यक्रम आयोजित करना सराहनीय है। रंग-बिरंगी पोशाकें, संगीत, नृत्य सभी कुछ बहुत मनोरम था। कार्यक्रम समाप्त होते ही पतिदेव बाहर आ गए पर अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण मैं वहां ही आयोजिका से बात करने लग गई। वो सब कलाकर मुझे 15 से 18 वर्ष के बीच के लग रहे थे। पूछने पर पता चला कि ये मुंबई के कलाकार हैं और 6 महीने के लिए अनुबंधित होते हैं। यहीं पर रहते हैं, उतने समय के लिए। मुझे वाकई आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं सोच रही थी, कि ये शायद यहीं किसी स्कूल-कालेज के विद्यार्थी होंगे, जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारने और प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। वे इतने प्रतिभाशाली थे कि गायकों के ग्रुप से एक लड़की और 15-16 साल का एक लड़का था, बाकी सब साज संभाले हुए थे। नृत्य करने वालों में भी 5-17 साल के बीच कलाकार होंगे जो बारी-बारी से विभिन्न प्रदेशों के लोक नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे।
हर प्रदेश का गान व संगीत, सही लय में इतने छोटे कलाकार, कितने सुंदर ढंग से प्रस्तुत कर रहे थे कि जैसे वे प्रोफेशनल हों। मैंने आयोजिका से पूछा कि अगर 6 महीने लगातार ये कलाकार यहां रहते हैं तो पढ़ते कब हैं? उनके पास कोई सही उत्तर नहीं था। ये महसूस करके मन तो उदास होता ही है कि प्रतिभा के साथ-साथ पढ़ाई का अवसर नहीं मिलता। अपनी जीविका के लिए ये बच्चे अपनी अनुपम प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं तो क्या सरकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं जो इनकी शिक्षा का भी रास्ता निकाले? ये सब सोचते हुए मैं बाहर निकल आयी और फिर से उन मूर्तियों की कला-सौंदर्य को निहारते हुए हम अपने होटल पर लौट आए।
अगले दिन नई सुबह के साथ खजुराहो के भव्‍य और ऐतिहासिक मंदिर देखने हम निकल पड़े। सबसे पहले बाजार की तरफ वाले मंदिर देखने निकले, जिन्‍हें पश्‍चिम समूह या वैस्‍टर्स ग्रुप कहा जाता है। यहां मुख्‍यतः तीन समूह हैं, पहला वैस्‍टर्न ग्रुप, दूसरा ईस्‍टन ग्रुप और तीसरा साउदन ग्रुप कहा जाता है। सबसे प्रसिद्घ वैस्‍टर्न ग्रुप के मंदिर हैं। एक विशाल प्रांगण में पांच मंदिर हैं, जो अपनी संपूर्ण भव्‍यता वास्‍तुकला के अनुपम उदाहरण बने खड़े हैं। बुकिंग आफिस से टिकट लेकर हम सबसे पहले लक्ष्‍मण मंदिर में गए। उसके ठीक सामने वाहरा मूर्ति है। इस मंदिर के पीछे कंदरिया महादेव और साथ जगदम्‍बनी मंदिर और कोने में एकमात्र सूर्यदेव का मंदिर है, जिसे चित्रगुप्‍त मंदिर बोलते हैं। फिर विश्‍वनाथ मंदिर जिसके सामने नन्‍दी की मूर्ति है इसके अलावा मतंगेश्‍वर मंदिर जैसे मंदिर हैं। हमने शुरूआत, लक्ष्‍मी मंदिर से की। मंदिरों की मूर्ति कला, वास्‍तुकला निहारते हुए मानो हम उसी काल में पहुंच गए जब वह बनी होंगी। इतनी अनोखी कारीगरी, बोलती मूर्तियां, अदभुत बनावट व मंदिर का एक-एक पक्ष या पत्‍थर भी कला से अछूता नहीं है।
अपने इतिहास कला और सभ्‍यता पर हम जितना भी गर्व करें वह कम ही होगा। एक के बाद एक मंदिर देखते हुए हम उन मंदिरों पर पहुंचे जहां जीर्णोंधार भी चल रहा था। मंदिरों के पीछे बहुत ही बेशकीमती पत्‍थर ऐसे पड़े थे जैसे ‌कि मोटी ईंटों की गिट्टियां पड़ी हों, जो कि किन्‍हीं मंदिरों के ही दुर्लभ अवशेष थे। इनके महत्‍व से अनजान मजदूर इन्‍हें अपनी बुद्घि से इधर-उधर करते दिखे। जहां एक तरफ हम अपनी अनोखी विरासत को देख कर चमत्कृत हो रहे हों वहीं दूसरी ओर उसकी मरम्‍मत का काम इतने हल्‍के ढंग से लिया जाए यह अच्‍छा नही लगा। इतनी कीमती धरोहर की साज संभाल विशेषज्ञों की टीम व निपुण कारीगरों की देखभाल में होनी चाहिए। जहां ऐसा काम चल रहा हो वहां तो पर्यटकों का आना बंद ही कर देना चाहिए या वो इन्‍हें दूर से देखें, क्‍योंकि मुझे इस पक्ष की महत्‍वपूर्ण बात यह लगी कि यहां एक-एक पत्‍थर से किसी न किसी का इतिहास जुड़ा हुआ है। मैने देखा कि ऐसे पत्‍थरों की कोई सुरक्षा भी नहीं है। वहां ऐसा भी लगा कि हम जहां कला व संस्‍कृति में इतने समृद्घ हुए हैं, वहीं उन्‍हें संभालने में उतने ही लापरवाह भी हो गए हैं। एक सामान्‍य नागरिक होने के नाते इतना तो मुझे पता है कि अगर एक भी मूर्ति या पत्‍थर को नुकसान पहुंचा तो उसकी भरपाई कहां से और कैसे होगी? जहां तक मैंने डिस्‍कवरी जैसे चैनल देखें हैं, ऐसी इमारतों, मूर्तियों, मंदिरों आदि की देखभाल उसी क्षेत्र में निपुण विशेषज्ञों की टीम के द्वारा होती है। क्‍योंकि इनमें गलती की तो कोई गुंजाईश ही नहीं है। यहां 85 मंदिरों में 22 मंदिर बचे हैं जो कि विश्‍व के महान कलात्‍मक आश्‍चर्य में गिने जाते हैं।
खजुराहो के ये मंदिर चंदेल राजपूत राजाओं की देन माने जाते हैं। तो आइए नमन करें, उन राजाओं को जो हमारे लिए खजुराहो में धरती पर अद्भुत कला शिल्‍प संस्‍कृति और एक बेजोड़ जीवन शैली का स्‍वर्ग लेकर आए। आप भी ऐसे देशाटन पर जरूर जाइए और अपनी महान कला सभ्‍यता को निहारते हुए अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट कीजिए, जिन्‍होंने युग-युगांतर तक हमारे लिए अपनी विरासत और ये बेशकीमती निशानियां छोड़ी हैं। इन मंदिरों में मानव सभ्‍यता, उनके दृष्‍टिकोण और जीवन शैली के प्रति व्‍यापक नजरिया दिखाई देता है। चंदेल राजाओं के शासन के बाद मुसलमान शासकों के समय में ये मंदिर भारी उपेक्षा के शिकार हुए। मानों विशाल और घने जंगलों में ओझल हो गए, भुला दिए गए। बीसवीं सदी में इनका पुर्नःउत्‍थान किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि जब-जब इस कला सभ्‍यता को नुकसान पहुंचा, तब-तब प्रकृति ने इसे अपनी गोद में शरण दी। महमूद गजनी और मुहम्‍मद गौरी के बर्बर शासनकाल के बाद ये मंदिर पुनः अपनी गरिमा के साथ स्‍थापित हुए। देखें तो वास्‍तुकला के हिसाब से भी ये अपने समय के मंदिरों से भिन्‍न और अनोखे हैं। हर मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना है जो ऊपर की ओर जाते हैं और मुख्‍य हिस्‍सा अपनी छत से ढका है, मध्‍य में ऊंचा कुछ ऐसा है जैसे कि हिमालय की चोटियों को फिर से बनाया गया हो।
छोटे-बड़े होते मंदिरों के शिखर अपनी भव्‍यता और विशालता को बढ़ाते जाते हैं, और मूर्तियां तो पांच भागों में बांटी जा सकती हैं, गोलाकार परिवार दर्शाती अप्‍सराएं और मिली जुली मूर्तियां, गुरु शिष्‍यों, नृत्‍य संगीत आदि को दर्शाती हैं। सिंह एवं घुड़सवार आदि भी शिल्‍प एवं वास्‍तुकला के दुर्लभ नमूने हैं। इन कलाओं को समझने के लिए इतिहास व वास्‍तुकला की जानकारी बहुत जरूरी है। भारतीय कलाएं हमारे आध्‍यात्‍म व दर्शन को तो दिखलाती ही हैं, भोग-योग से निर्वाण तक का मार्ग भी दिखाती हैं। इस पुरातत्‍व मूर्तिकला को समझने के लिए अपने इतिहास व दर्शन की गहरी समझ होनी चाहिए। मेरा इतिहास की विद्यार्थी होना व पुरातत्‍व में रूचि होना यहां मेरे बहुत काम आया। उस समय मुझे मंदिरों की भाषा समझने में कठिनाई नहीं हुई। मेरी नजर एक विदेशी महिला पर्यटक पर पड़ी जो कि एक किताब के पन्‍ने पलट रही थी। उत्‍सुकता वश उससे पूछने पर पता चला कि वह किसी अंग्रेज लेखक की खजुराहो पर पुस्‍तक है। कितने आश्‍चर्य की बात है कि हमारी कला सभ्‍यता पर भारतीयों से ज्‍यादा विदेशियों ने शोध किया है। पर्यटक ने मुझसे इन मंदिरों की निर्माण शैली की विशेषता का वर्णन करते हुए कहा कि वास्‍तु का यह एक खास पहलू है कि किसी खास महीने में सूर्य की किरणें सीधे मूर्तियों पर पड़ती हैं।
पूर्वी व दक्षिणी साउदन भाग के मंदिर भी देखे। इन मंदिरों के आगे मुझे जो देखने को मिला वह बहुत ही खराब अनुभव था। अचम्‍भा हुआ कि भिखारियों के रूप में छोटे-छोटे बच्‍चे पर्यटकों को घेरे खड़े थे। खेलते-कूदते ये बच्‍चे जैसे ही पर्यटकों को देखते थे, उनसे मांगने के लिए उन्‍हें घेर लेते थे। देश भर के लिए न ही सही, मगर ऐसी जगहों पर प्रशासन सख्‍त कदम उठा ही सकता है, क्‍योंकि भिक्षावृत्‍ति से आखिर देश की ही छवि धूमिल होती है। शायद ऐसे ही कारणों से भारत की गरीबी पर दुनिया के देशों में नकारात्‍मक प्रकाश डाला जाता है। दूसरे देशों को इसीलिए यहां गरीबी का एक विकृत रूप पेश करने का मौका मिलता है। शायद स्‍लमडाग जैसी फिल्‍में इन्‍हीं बुराइयों के ‌इर्द-गिर्द घूमती नजर आती हैं। भारत में ऐसे स्‍थलों पर इस प्रकार के नजारे जब विदेशी पर्यटकों को घेरते हैं तो उनके मन में हमारी बनती हुई छवि दूसरी ओर बिगड़ा हुआ रूप ले लेती है।
हमारे साथ चल रहे ड्राइवर ने बताया कि यहां एक नया मंदिर हाल में ही मिला है, जिसके बारे में सुनकर मैं जिज्ञासा से भर गयी और हमने उसे उसी जगह ले चलने को कहा। कच्‍ची-पक्‍की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलते हुए हमें लग गया था कि जरूर वहां पर भी कुछ ऐसा ही है जहां उसकी उपेक्षा हो रही है। उस जगह पहुंचते और देखते ही बहुत हैरानी हुई। इतनी नायाब खोज और अतीत के पन्‍नो से निकलता भगवान शिव का एक मंदिर-शीश, मानो हमसे कह रहा है कि ऐसे अभी और भी पुरातन अवशेष हैं जो मेरी तरह से उपेक्षित और प्रायःलुप्‍त हैं। इस मंदिर की कहानी इसकी उपेक्षा बता रही है। खजुराहो में मंदिरों का एक-एक पत्‍थर और उन पर नक्‍काशी हमारे लिए एक नयी खोज है। मैंने महादेव को श्रद्घापूर्वक नमन किया जिनका श्‍वेत शिवलिंग, शीर्ष पर यूं ही उपेक्षित सा दिखा। वहां मजदूर खुदाई का काम कर रहे थे। वहां जाने वाली सड़क पर भी काम चल रहा था। मेरी खोजी प्रवृत्‍ति मुझे मजबूर कर वहां ले गई थी। मेरे पूछने पर पता चला कि एक ठेकेदार मजदूरों से काम करवा रहा है। वेमन मंदिर व ब्रह्मा मंदिर गांवों के बीच में हैं। मेरी नजर अचानक गांव की छोटी सी दुकान पर पड़ी, वहां कुछ अनोखी चीजें दिखीं। अंदर गए तो अनेक एंटीक धातुओं की वस्‍तुएं, पुराने जमाने के जेवर आदि दिखाई दिए। दुकान पर एक लड़के ने बताया कि इस क्षेत्र में खुदाई होती रहती है और वहीं से ये चीजें मिलती हैं। मैंने बहुत उत्‍साह से कुछ चीजें ले ली। दूसरी दुकान गांव के अंदर थी। इतनी बेशकीमती चीजों के दाम भी काफी थे।
बहरहाल हम वहां से वापस हुए और यह सोचकर कि यह अनमोल धरोहरें न जाने कब से इसी तरह से बिक रही हैं। शायद ऐसे ही राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी की बहुमूल्‍य वस्‍तुएं भारत से बाहर गई होंगी, जिनकी नीलामी का विषय आज हमारी अस्‍मिता की हंसी का कारण बन गया है। यहां से हम जैन मंदिर गए। वहां भी उसी तरह की दुकानें थी। देखने और जानकारी करने पर पता चला कि यहां दिल्‍ली-मुरादाबाद से नयी धातु आदि के शोपीस लाकर ऐसे केमिकल में डाल दिए जाते हैं जिससे कि वे पुरानी एंटीक चीजों का आभास देने लगते हैं और यहां के दुकानदार उन्‍हें यहां से खुदाई में मिली वस्‍तुएं बताकर ग्राहकों को बेचते हैं। आदिनाथ मंदिर के आगे एक दुकानदार ने तो यहां का यही सच बताया। उसकी ईमानदारी से वाकई हम प्रभावित हुए और राहत मिली कि हम भारतीयों में अभी भी नैतिकता और सच्‍चाईयां जिन्‍दा हैं। मैंने यहां से जो चीजें खरीदी थीं इस सच्‍चाई के जानने के बाद लौटते समय दुकानदार को वापस कर दीं।
हमारे इस देशाटन में एक आकर्षण वैर्स्टन ग्रुप मंदिर में आयोजित होना वाला लाइट एंड साउंड बाकी था। वो शो देखकर हमें शीघ्र ही सतना के लिए रवाना होना था और उसके बाद लखनऊ के लिए ट्रेन पकड़नी थी। हम मंदिर पर पहुंचे जहां यह शो होना था। गेट पर विदेशी देशी पर्यटकों की भीड़ जमा हो गयी। ठंड बढ़ने लगी थी पर हमारे नए अनुभव का उत्‍साह उस पर भारी पड़ रहा था। ठीक समय पर हम सब अंदर पहुंचे। खुला आकाश था। अभी सब बैठ ही रहे थे कि किसी विदेशी पर्यटक ने पीछे से आकर सबको जोरदार ढंग से नववर्ष की बधाई दी और भारतीय अंदाज में अभिवादन किया। लगा हम दुनिया के किसी भी कोने में हों पर प्रेम सद्भाव की डोरी हमें हमेशा बांध कर एक कर देती है। पचास मिनट के उस शो ने सभी दर्शकों ने खूब आनंद लिया। यहां के बाद हम लोग अपने होटल पहुंचे सामान लिया और चलने से पहले ध्‍यान आया कि मतंगेश्‍वर महादेव के दर्शन करने से तो रह गए। देर हो रही थी पर इच्‍छा जोर दे रही थी कि ईश्‍वर दर्शन हो ही जाएं। मैंने ड्राइवर से पूछा कि आप बताए सीधे चले या दर्शन करके? उसने कहा कि भोलेबाबा के दर्शन करके ही जाएं। मंदिर पहुंचकर दस मिनट में दर्शन कर हम सतना के लिए रवाना हो गए। शिवजी का आशीर्वाद लेकर हम अपने घर की ओर चल पड़े।
वन्‍य अभ्‍यारण्‍य बांधवगढ़ से कला शिल्‍प और सभ्‍यता के स्‍वर्ग खजुराहो तक का मेरा सफर मुझे अपनी संस्‍कृति और इतिहास के प्रति गहरा लगाव विश्‍वास और जागरूकता प्रदान करता है। मेरी यह यात्रा उन सभी को समर्पित है जो ऐसे देशाटन पर जाने की इच्‍छा रखते हैं। गहरे सम्‍मोहन से भरी अपनी शिल्‍प कला संस्‍कृति को निहारते हुए आप भी अपने उन पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट कीजिए जिन्‍होंने हमारे निहारने के लिए अपनी बेशकीमती निशानियां छोड़ी हैं। उन्‍हें इसके लिए अनेकानेक बार धन्‍यवाद कि उन्‍होंने अपनी बुद्घिमानी के जो दुर्लभ अवशेष छोड़े हैं, वे उनकी कला संपदा के रहस्‍यों उसकी शिक्षा और भावनाओं के चरम निष्‍कर्ष तक पहुंचने और उन्‍हें आगे ले जाने के लिए प्रेरित करते रहेंगे। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि उन धरोहरों के साथ हम न्‍याय क्‍यों नहीं कर पा रहे हैं, जिनके पीछे कला सभ्‍यता और प्रेम का महान इतिहास खड़ा है। वे ज्ञात और अज्ञात महान कला शिल्‍पी हमें माफ करेंगे, जिनकी विरासत को हम असहाय और मौन होकर ध्‍वस्‍त होते देख रहे हैं, जिनके कुछ निशान आज हमारे जैसों के शोध की महत्‍वपूर्ण कड़ी बने हुए हैं। इस यात्रा में मैं देशाटन और वन्‍य प्राणी प्रेमी अपने पति का भी धन्‍यवाददूंगी जिन्‍होंने मुझे पूर्वजों के ऐसे चमत्‍कारों को करीब से देखने और इस खूबसूरत दुनिया में देशाटन का अवसर दिया है।

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