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सामाजिक संबंधों में ठहराव से निराश दिवाकर

'बनास जन' में प्रोफेसर रामधारी सिंह दिवाकर का कहानी पाठ

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Wednesday 4 March 2015 04:34:34 AM

professor ramdhari singh diwakar

नई दिल्ली। 'बाबूजी प्रसन्न मुद्रा में बोल रहे थे और मुझे लग रहा था कि अपने ही भीतर की किसी दलदल में मैं आकंठ धंसता जा रहा हूं, कोई अंश धीरे-धीरे कटा जा रहा था अंदर का, लेकिन बाबूजी के मन में गज़ब का उत्साह था।' सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार प्रोफेसर रामधारी सिंह दिवाकर ने अपनी चर्चित कहानी 'सरहद के पार' में सामाजिक संबंधों में आ रहे ठहराव को लक्षित करते हुए कथा रचना में यह प्रसंग सुनाया। मिथिला विश्वविद्यालय में अध्यापन कर चुके प्रोफेसर रामधारी सिंह दिवाकर ने हिंदी साहित्य की पत्रिका 'बनास जन' के इस कार्यक्रम में कहानी पाठ किया। उन्होंने कहा कि छोटे शहर और ग्रामीण परिवेश से आ रहे रचनाकारों के लिए पाठकों तक पहुंचना अब भी चुनौती है। अपनी रचना यात्रा से संबंधित संस्मरण सुनाते हुए सामूहिक जीवन के विलोपित हो जाने का त्रास उन्हें आज भी सालता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सह आचार्य डॉ संजय कुमार कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। उन्होंने कहा कि हिंदी में प्रोफेसर रामधारी सिंह दिवाकर के पाठक लंबे समय से हैं और सारिका, धर्मयुग के दौर से उनकी कहानियां चाव से पढ़ी जाती रही हैं। उन्होंने सामाजिक संबंधों की दृष्टि से उनकी रचनाशीलता को उल्लेखनीय बताया। जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान में हिंदी अध्येता डॉ मुन्ना कुमार पांडेय ने देश में आंतरिक विस्थापन की स्थितियों को रेखांकित करते हुए कहा कि यह समस्या बहुआयामी है तथा इसकी जटिलताओं को समझने में दिवाकरजी की रचनाएं मददगार हो सकती हैं। समीक्षक मनोज मोहन ने प्रोफेसर रामधारी सिंह दिवाकर की कथा रचनाओं को बिहार के ग्रामीण अंचल का वास्तविक वर्तमान बताते हुए कहा कि हिंदी आलोचना को अपना दायरा बढ़ाना होगा।
भारती कालेज में हिंदी अध्यापक नीरज कुमार ने प्रोफेसर दिवाकर की कथा भाषा को माटी की गंध से सुवासित बताया। आयोजन में युवा आलोचक प्रणव कुमार ठाकुर, डॉ प्रेम कुमार, कुमारी अंतिमा और कुछ अन्य पाठक भी उपस्थित थे। इससे पहले बनास जन के संपादक पल्लव ने प्रोफेसर दिवाकर की रचनाशीलता का परिचय दिया। डॉ पल्लव ने कहा कि उनकी कहानियां समकालीन कथा चर्चा से बाहर हों, लेकिन उनमें अपने समय की विडंबनाओं को देखा जा सकता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ परमजीत ने आयोजन की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि साहित्य को समाज का दर्पण बताया गया है, किंतु इस दर्पण की पहुंच जन-जन तक सुलभ करने के लिए अनेक स्तरों पर एक साथ सक्रिय होना पड़ेगा। डॉ परमजीत ने बनास जन के इस आयोजन को सार्थक प्रयास बताते हुए कहा कि कला के क्षेत्र में छोटे-छोटे कदम भी मानीखेज बन जाते हैं। बनास जन के सहयोगी भंवरलाल मीणा ने आभार प्रदर्शित किया।

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