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मध्यकालीन भारत के नेपोलियन-सम्राट हेमचंद्र!

हेमचंद्र विक्रमादित्य विद्युत की भांति चमके और दैदीप्यमान हुए

'भारतीय इतिहास में हेमचंद्र का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण अध्याय'

Sunday 5 October 2014 02:15:37 AM

विनोद बंसल

विनोद बंसल

samrat hemchandra vikramaditya

सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़कर रख दी। वे पृथ्वीराज चौहान (1179-1192) के बाद इस्लामी शासनकाल के मध्य दिल्ली के संभवतः एकमात्र हिंदू सम्राट, जो विद्युत की भांति चमके और दैदीप्यमान हुए। उन्होंने अलवर (राजस्थान) जिले के मछेरी गांव में जन्म लेकर एक व्यापारी, माप-तौल अधिकारी, 'दरोगा-ए-डाल चौकी', 'वजीर' (प्रधानमंत्री) और सेनापति होते हुए दिल्ली के तख्त पर राज कर अपार सफलता की ऊंचाईयां छुईं। उन्होंने अपने प्रचंड पराक्रम एवं 22 युद्धों में विजयी रहकर 'विक्रमादित्य' की उपाधि प्राप्त की। यह वह समय था, जब मुगल एवं अफगान-दोनों ही दिल्ली पर राज्य के लिए संघर्षरत थे। यद्यपि हेमचंद्र अधिक समय तक शासन न कर सके, तथापि इसे भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना अवश्य कहा जाएगा। हेमचंद्र की तूफानी विजयों के कारण कई इतिहासकारों ने उनको 'मध्यकालीन भारत का नेपोलियन' कहा है।
हेमचंद्र, राय जयपाल के पौत्र और राय पूरणदास (लाला पूरणमल) के पुत्र थे। इनका जन्म आश्विन शुक्ल विजयदशमी, मंगलवार, कलियुगाब्द 4603, विक्रमी संवत 1556, 2 अक्टूबर, 1501 ईस्वी को हुआ था। इनके पिता पहले पौरोहित्य कार्य करते थे, किंतु बाद में मुगलों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने के कारण वे कुतुबपुर रेवाड़ी में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे।हेमचंद्र की शिक्षा रेवाड़ी में हुई। उन्होंने संस्कृत, हिंदी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुड़सवारी में भी महारत हासिल की। उन्होंने पिता के नए शोरा व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरू कर दिया। हेमचंद्र अल्पायु से ही शेरशाह सूरी (1540-1545) के लश्कर को अनाज एवं बंदूक चलाने में प्रयोग होने वाले प्रमुख तत्व पोटेशियम नाइट्रेट अर्थात शोरा उपलब्ध कराने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे। इसी बारूद के प्रयोग के बल पर शेरशाह सूरी ने हुमायूं (1531-1540 एवं 1555-1556) को 17 मई 1540 ईस्वी को कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध में हराकर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था। हेमचंद्र ने उसी समय रेवाड़ी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी वहां पीतल, तांबा, इस्पात के बर्तन आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।
शेरशाह सूरी की 22 मई 1545 ईस्वी को मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र जलाल खां ने इस्लाम शाह सूरी के नाम से गद्दी संभाली और 1545 से 1554 तक दिल्ली पर शासन किया। पंजाब से बंगाल तक फैले हुए उसके राज्य में अनके अफगान सरदारों ने मौके का लाभ उठाकर बगावत करनी चाही, लेकिन इस्लाम शाह ने सबको पराजित कर दिया। इस्लाम शाह ने एक प्रतिष्ठित व्यापारी की सिफारिश पर हेमचंद्र को दिल्ली का बाजार अधीक्षक बनाया और बाद में उन्हें खाद्य एवं आपूर्ति विभाग का अधीक्षक तथा 'दरोगा-ए-डाक चौकी' के महत्वपूर्ण पद पर आसीन कर दिया। सैन्य गतिविधियों, प्रशासन और जनसामान्य के बीच एक अविच्छिन्न संपर्क-सेतु बनाकर वह आम नागरिक से लेकर सुल्तान तक की प्रशंसा के पात्र बन गए। अनेक अफगान सरदारों की अनिच्छा के बावजूद इस्लाम शाह ने हेमचंद्र को छह हजार सवारों की मुख्तियारी दी और 'अमीर' का खिताब दिया।
ग्वालियर में अपनी मृत्य के 22 नवंबर 1554 को पूर्व इस्लाम शाह ने पंजाब से हेमचंद्र को बुलाकर उनको दिल्ली की सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं सौंप दीं। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसका बारह वर्षीय पुत्र फिरोज शाह सूरी गद्दी पर बैठा, किंतु वह कुछ ही महीने शासन कर सका। सन् 1554 में ही उसे शेरशाह के भतीजे मुहम्मद मुबारिज खान ने मौत के घाट उतार दिया और स्वयं आदिल शाह सूरी के नाम से 1554 से 1555 तक शासन किया। आदिल शाह एक घोर विलासी और लंपट शासक था और शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता था। फलस्वरूप अनेक अफगान-अधिकारियों ने उसके विरूद्ध बगावत शुरू कर दी। विद्रोह को दबाने और राजस्व वसूली के लिए आदिल शाह ने हेमचंद्र को ग्वालियर के किले मे न केवल अपना 'वजीर' (प्रधानमंत्री) बनाया, वरन अफगान सेना का सेनापति भी नियुक्त कर दिया। हेमचंद्र पर शासन का भार डालकर आदिल शाह ने चुनार (मिर्जापुर के पास) की राह पकड़ी। इस प्रकार संपूर्ण अफगान शासन हेमचंद्र के हाथ में आ गया। यह अवसर पाकर हेमचंद्र ने हिंदू राज्य का स्वप्न देखा।
हुमायूं, जिसे पहले 1540 ईस्वी में शेरशाह सूरी ने हराकर काबुल खदेड़ दिया था, दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई सिकंदर सूरी को पंजाब से हराकर जुलाई 1555 ईस्वी में दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उस समय अफगान सरदार आपस में ही संघर्षरत थे। उत्तर भारत, मध्य भारत, बिहार और बंगाल तक उन्होंने अपने झंडे बुलंद कर दिए। आदिल शाह के सबसे बड़े शत्रु इब्राहीम खान ने कालपी में सिर उठा लिया था, तब आदिल शाह ने हेमचंद्र को बड़ी सेना और पांच सौ हाथी तथा तोपखाना देकर आगरा और दिल्ली के लिए भेजा। हेमचंद्र काल्पी पहुंचे तो उन्होंने निश्चय कर लिया कि पहले इब्राहीम को ही समाप्त किया जाए, इसलिए उन्होंने शीघ्रता से उसकी ओर कूच किया। एक बहुत बड़ी लड़ाई हुई, जिसमें हेमचंद्र विजयी हुए और इब्राहीम भागकर बयाना चला गया। हेमचंद्र ने उसका पीछा किया और बयाना को घेर लिया। यह घेरा तीन महीने तक चला। तभी हेमचंद्र को आदिल शाह का आदेश प्राप्त हुआ कि बंगाल के सूबेदार मुहम्मद ख़ान गोरिया (1545-1555) ने विद्रोह कर दिया है। हेमचंद्र ने बंगाल की ओर कूच कर दिया और आगरा से 15 कोस की दूरी पर छप्पर घाट गांव के निकट मुहम्मद ख़ान गोरिया से लड़ाई हो गई, जिसमें मुहम्मद ख़ान गोरिया मारा गया। इसके बाद हेमचंद्र ने बंगाल में अपने सूबेदार शाहबाज़ ख़ान को नियुक्त किया। इसके 6 माह बाद दिल्ली में हुमायूं की मौत (27 जनवरी 1556) का समाचार सुनकर हेमचंद्र ने समझ लिया कि अब हिंदू राज्य के स्वप्न को साकार किया जा सकता है।
हेमचंद्र ने मुगल साम्राज्य को उखाड़ फ़ेंकने के लिये दिल्ली की ओर कूंच किया और ग्वालियर से निकलकर बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व आगरा की कई रियासतों को जीतते हुए 22 युद्ध लड़े। छह अक्टूबर 1556 को हेमचंद्र ने अपने सभी सेना अधिकारियों, अनेक पठान योद्धाओं, 40 हज़ार घुड़सवारों, 51 बड़ी तोपों और 500 छोटी तोपों के साथ दिल्ली के कुतुब मीनार से सेंकेंड मील दूर तुगलकाबाद में अपना डेरा जमाया। दिल्ली के सूबेदार तारदीबेग ख़ान ने उनका मुकाबला करने का असफ़ल प्रयास किया, किंतु उसे अपने लगभग 3 हज़ार मुगल सैनिकों, अपार धन संपत्ति, 1 हज़ार अरबी घोड़े तथा लगभग 15 सौ हाथियों से हाथ धोना पड़ा और स्वयं जान बचाकर भागना पड़ा। अगले ही दिन अक्टूबर 1556 को दिल्ली के पुराने किले में अफ़गान और हिंदू सेनानायकों के सानिंध्य में पूर्ण हिंदू धार्मिक विधि से उनका राज्याभिषेक हुआ और उन्हें विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित किया गया। करीब 364 वर्ष के मुगल शासन में पहली बार किसी हिंदू शासक ने गद्दी संभाली थी।
हुमायूं की मृत्यु के पश्चात् उसके 14 वर्षीय पुत्र अकबर (1556-1605) को उसके कई सेनापतियों व संरक्षक बैरम ख़ान ने हेमचंद्र से युद्ध करने के लिए अकबर को प्रेरित किया। पांच नवंबर 1556 को पानीपत में हुए इस युद्ध में अकबर और बैरम ख़ान ने स्वयं युद्ध में भाग नहीं लिया और युद्ध क्षेत्र से सेंचुरी किलोमीटर दूर सौंधापुर गांव में शिविर में ही रहे, जबकि हेमचंद्र ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। एक ओर हेमचंद्र की सेना में कुलचिह्न लाख सैनिक 1500 सुरक्षा कवचधारी हाथी योद्धा व धनुर्धर थे, तो दूसरी ओर मुगल सेना में कुल 20 हज़ार अश्वारोही सैनिक ही थे। अकबर की सैन्य टुकड़ी की कूटनीतिक चालों ने एक बार तो हेमचंद्र के सैनिकों को तोपें छोड़ मैदान से भागने पर विवश कर दिया, किंतु जब हेमचंद्र जब स्वयं हाथियों के साथ आगे बढ़े तो मुगल सेना का बायां पक्ष हिल उठा था। 'हवाई' नामक एक विशाल हाथी पर सवार होकर सैन्य संचालन कर रहे हेमचंद्र ने ताबड़तोड़ तीरों की जो बौछार की उससे मुगल सेना भयभीत हो चुकी थी। वे भी शत्रुओं के तीरों से घायल तो थे किंतु, सहसा एक तीर उनकी आंखों को चीरता हुआ मस्तिष्क में घुस गया और वे मूर्छित होकर हौदे में गिर पड़े।
हेमचंद्र के गिरने की सूचना मात्र से उनके सैनिक बुरी तरह भयभीत होकर युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए और अकबर को बैठे बिठाए निर्णायक सफ़लता प्राप्त हो गई। बाद में उनके मृत प्रायः शरीर को शाह कुली ख़ान अनेक सैनिकों के साथ अकबर के समक्ष ले गया, जहां स्वयं बैरम ख़ान ने अकबर के ही समक्ष उनके टुकड़े-टुकड़े कर सिर को काबुल में और धड़ को दिल्ली में बेरहमी से दरवाज़ों पर लटका दिया। इतना ही नहीं दोबारा कोई विद्रोह न कर सके इसलिए अकबर ने हेमचंद्र के सैनिकों और शुभचिंतकों के हज़ारों कटे सिरों का बुर्ज बनाया, उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा कर उनके पिता राय पूरणदास के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले और उनका कुल नष्ट करने के लिए अलवर, रेवाड़ी, नारनौल, आनौड़ आदि क्षेत्रों में बसे उनके सहयोगियों को चुन-चुनकर बंदी बनाया। अनेक इतिहासकारों, समाजसेवियों ने हेमचंद्र विक्रमादित्य की महान राष्ट्रभक्ति, कुशल सैन्य संचालन का गुणगान करते हुए लिखा है कि चाहे उन्होंने मात्र एक महीने ही राज किया हो, किंतु जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व उनका था, वह भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उनकी और उनके हाथी की आंख में तीर लग जाने से अकबर की किस्मत लौट गई।
मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने हेमचंद्र विक्रमादित्य के प्रति न्याय नहीं किया तथा युद्धक्षेत्र की एक दुर्घटना ने उनकी विजय को पराजय में बदल दिया, अन्यथा संभवतः युद्ध का परिणाम दिल्ली में मुगलिया सल्तनत स्थापित करने के बजाए संपूर्ण भारत में हिंदू साम्राज्य की स्‍थापना के रूप में होता। भारत के इस गौरवशाली वीर सपूत को उसकी जयंती 5 अक्टूबर को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय सभागर में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना की ओर से एक गोष्ठी 'विस्मृत हिंदू सम्राट महाराजा हेमचंद्र विक्रमादित्य को स्मरणांजलि' आयोजित की गई है। आज आप सायं तीन बजे इस कार्यक्रम में भाग ले सकते हैं।

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