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दलित पर चालीस साल से सामुहिक अत्याचार

लखनऊ के जिलाधिकारी से मिला न्याय एडीएम ने घुमा दिया

उत्तर प्रदेश में न्याय पाने के लिए मुनेश्वर की जारी है जंग!

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Wednesday 10 September 2014 05:58:00 PM

muneshwar

लखनऊ। अदालतों और अफ़सरों के सामने अपनी सच्चाई के शपथ-पत्र देते-देते मुनेश्वर 75 वर्ष की उम्र को पार कर गया है, लेकिन उसे आजतक न्याय नहीं मिल सका है। न्याय मिला भी था तो ‘कालनेमी’ बीच में आ गए। मुनेश्वर का भी यह कसूर है कि वह एक ‘दलित’ है। सामंतवादियों के कुटिल और कपट, प्रशासन के भ्रष्ट और अकर्मण्य अधिकारियों तक उनकी तगड़ी पहुंच और धोखेबाज़ समाजसेवियों एवं आस-पास के घोर स्वार्थी तत्वों के सामने वह बेबस है। कौन नहीं है, जिसने इस जमीन के लिए मुनेश्वर को उजाड़कर उसे सपरिवार गटर में फेंक देने की कोशिश नहीं की? अपवाद को छोड़कर जो भी मुनेश्वर के पास आया, उसने मुनेश्वर को ललचा-भरमा कर ठगा ही है, किंतु मुनेश्वर की भी हिम्मत देखिए कि अपने ऊपर ऐसे तमाम हमलों के बावजूद वह टूटा नहीं है और बड़ी हिम्मत से अपनी सच्चाई और लड़ाई पर कायम है। सच में उसकी यह हिम्मत उनको भी रास्ता दिखाने काबिल है, जो न्याय पाने में आतताईयों से डरकर घर में बैठ गए और निराशा एवं घुटन में तिल-तिलकर मर रहे हैं।
मुनेश्वर का मुकाबला तो उन ‘बड़ों’ से है, जिनकी ‘पहुंच’ के सामने मुनेश्वर की कोई हैसियत नहीं है। ‘साहेब सन् 2002 में लखनऊ में एक कलेक्टर साहेब आये थे, उनका नाम नवनीत सहगल था, वह तो हमारे लिए न्याय और भगवान बनकर आए, लेकिन कपटपूर्ण ताकतों के सामने उनका दिया हुआ न्याय भी उनके जाने के बाद दम तोड़ गया, हम फिर उसी कुएं में ढकेल दिए गए, जहां से नवनीत सहगल साहेब ने हमें बाहर निकाल कर हौसला और नया जीवन दिया था।’ हुआ यह कि अवैध कब्जेदारों का गिरोह डीएम के इस निर्णय के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ गया, जहां से यह आदेश स्टे हो गया और मुनेश्वर फिर अकेला पड़ गया। मुनेश्वर ने बताया कि एक बार फिर एक आस जगी और सन् 2010 एवं सन् 2012 में उच्च न्यायालय की पीठ ने इस बार उसके ही पक्ष में फैसला सुनाते हुए अवैध कब्जेदारों को सबक सिखाया, मगर जब उसने लखनऊ जिला प्रशासन से उच्च न्यायालय के आदेश का पालन कराने की गुहार लगाई तो चुपचाप तरीके से सांठगांठ का एक शर्मनाक खेल हुआ, जिसमें अपर कलेक्टर प्रशासन लखनऊ राजेश कुमार पांडेय ने मुनेश्वर का यह भूमि आवंटन ही अनियमित करार देते हुए खारिज कर जमीन पूर्ववत खाते में दर्ज करा दी। यानी ना बांस रहा और ना बांसुरी।
मुनेश्वर अब करे मुकद्मेबाज़ी। मुनेश्वर को इस फैसले का बहुत देर से पता चला और उसके होश उड़ गए, किंतु उसने अपने को संभाला और अपने वकील विमल कुमार से अपर कलेक्टर प्रशासन लखनऊ राजेश कुमार पांडेय के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय की पीठ में अर्जी दाखिल की जिस पर इसी महीने की 29 तारीख को सुनवाई होगी। मुनेश्वर को न्यायपालिका पर भरोसा है, मगर उसकी आपबीती से लगने लगा है कि वास्तव में आम आदमी के लिए आज न्याय पाना बहुत मुश्किल हो गया है। न्याय के साथ खड़े होने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है, जबकि अन्याय का साथ देने वाले झुंड के झुंड मिलेंगे। मुनेश्वर को नहीं मालूम कि आगे और क्या होगा, किंतु वह इस विश्वास पर कायम है कि उसे न्याय मिलकर रहेगा। वह अनपढ़ है और उसकी सारी कानूनी लड़ाई उसके वकील विमल कुमार पर विश्वास और खुद की हिम्मत के भरोसे है। अन्याय, भ्रष्टाचार, अत्याचार, सरकारी पदों पर न्याय की जिम्मेदारी लिए बैठे जनसेवकों और समाज के चालाक एवं ताकतवर लोगों के एक गरीब और निर्बल के खिलाफ नीचतापूर्ण गठजोड़ की चालीस साल से चली आ रही यह एक असहनीय व्यथा है और इस मामले को सही से जानने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। लखनऊ जिले की सदर तहसील के तकरोही गांव के मुनेश्वर पुत्र नन्हें, जो एक अनुसूचित जाति का गरीब भूमिहीन है को 1976 में तकरोही गांव के पास ही खेती के लिए गाटा संख्या 98स 289 में एक बीघा 17 बिस्वा कृषि भूमि का आवंटन किया गया।
लखनऊ जिले के राजस्व अभिलेख में खातेदार मुनेश्वर पुत्र नन्हें के नाम असंक्रमणीय भूमिधर के रूप में दर्ज है। जबतक वह जंगल था, मुनेश्वर ने इस जमीन पर खेती की और जब इस भूमि की शहर से जुड़ने वाली खास जमीन के रूप में पहचान शुरू हुई तो पहले कुछ लोगों ने इस खेत के बीच से चिनहट और दूसरे गावों के लिए जबरन आना-जाना शुरू कर दिया और बाद में ताकतवर अवैध कब्जेदारों का इस जमीन पर पहाड़ टूट पड़ा। मुनेश्वर ने जब विरोध किया तो दबंग लोग उसे आखें दिखाने लगे। शह देते हुए इनमें वो भी जुड़ते गए, जिन्हें तहसीलदार, कानूनगो और लेखपाल पुकारा जाता है। ज़माने कदीम में मुनेश्वर के खेत से कभी कोई रास्ता नहीं था, किंतु तकरोही से फतहापुरवा, हरदासीखेड़ा, कंचनपुर और मटियारी जाने वालों ने मुनेश्वर को कमज़ोर समझ उसके बीच खेत से जबरन रास्ता बना दिया। मुनेश्वर ने इसे रास्ता न बनने देने के लाख जतन किए, मगर इलाके में पुलिस, पटवारी के दलालों, सभासद और विधायक के चमचों ने मुनेश्वर की जमीन से निकलना नहीं छोड़ा और एक समय ऐसा आया कि दबंगों ने मुनेश्वर से खुलकर ऊँच-नीच शुरू कर दी और उसकी शिकायत लेकर जब वह तत्कालीन थाना क्षेत्र थाना-चिनहट गया तो पुलिस वालों ने उसे अनसुना करके थाने से भगा दिया। उसने जिन-जिन लोगों की पुलिस से शिकायत की, पुलिस ने उन्हीं के सामने मुनेश्वर को उल्टे बेइज्जत और ज़लील भी किया।
मुनेश्वर को अपनी खेती की यह जमीन बचाना एक मुसीबत बन गई। उसमें छोटी-मोटी पैदावार भी कुछ दुष्ट लोगों ने कुचल दी। देखते-देखते यह जमीन सोना बनती गई और अवैध कब्जों में जाती गई। यह जमीन दो हिस्सों में बंट गई है। वहां अवैध पक्की दुकानें खड़ी हो गईं हैं, बाजार लगने लगा है। एक बेहद चालाक व्यक्ति देवी शरण श्रीवास्तव ने मुनेश्वर का मददगार बनकर उसकी इस जमीन पर स्कूल भी खोल दिया। इस दलित की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गई। सरकारी टिकट लगीं सारी दरखास्तें रद्दी बन गईं। कुछ राजस्व अधिकारियों ने मुनेश्वर के कागजों पर न्याय की शेखियां बघेरते हुए आदेश भी पारित किए, जिनका कभी अनुपालन ही नहीं हुआ। कब्जेदारों ने आगे बढ़कर उस प्लॉट के बीच से जल निगम की पाइप लाइन भी बिछवा दी। ईंट-भट्टों के मालिकों लक्ष्मी रस्तोगी, शर्मा और पंजाब भट्टेवालों ने मुनेश्वर के घर के सामने से ही ईटें लदे ट्रकों की लाइन लगा दी। मुनेश्वर को डराने के लिए प्लॉट के बीच से डामर सड़क निकालने के लिए नगर निगम लखनऊ के घूंसखोर सर्वेयर भी पहुंच गए। एक समय बाद प्रशासन की रोक के बावजूद जल निगम ने वहां से अपनी पाइप लाइन भी बिछाकर पुष्टि कर दी है कि मुनेश्वर को उसका जो बिगाड़ना हो बिगाड़ ले। इस घोटाले में लखनऊ प्रशासन के कई लोग शामिल हैं, जिन्हें बचाने के लिए मुनेश्वर का पट्टा खारिज कर उसे एक नए विवाद की ओर मोड़ने की शर्मनाक कोशिश की गई है।
मुख्यमंत्री से लेकर डीएम तक और जिला प्रशासन के हर संबंधित अधिकारी के दरवाजे, थाना कचहरी तक मुनेश्वर अपनी व्यथा लेकर पहुंचा, मगर उसकी हर एक गुहार निष्फल ही गई और अब तो मुनेश्वर को सुनवाई का एक भी मौका दिए बिना राजस्व विभाग की धारा 198(4) जेड०ए०एल०आर० एक्ट के अंतर्गत जिला शासकीय अधिवक्ता राजस्व के तर्कों एवं पत्रावली पर अभिलेखों के आधार पर अपर कलेक्टर प्रशासन लखनऊ राजेश कुमार पांडेय ने मुनेश्वर का भू-पट्टा आवंटन ही अनियमित बताते हुए खारिज कर दिया। अपर कलेक्टर प्रशासन लखनऊ को ऐसा करते समय केवल जिला शासकीय अधिवक्ता राजस्व के तर्क ही दिखे या उनकी नज़रों ने पत्रावली में अभिलेखों का अवलोकन व अनुशीलन किया, उन्हें मुनेश्वर की पत्रावली के वह अभिलेख नहीं दिखे जो चालीस साल से मुनेश्वर पर समाज और प्रशासन के दबंगों के अत्याचार और गुहार की कहानी बयान कर रहे हैं। मुनेश्वर ने अपने खेत की जमीन के बचाव के लिए जहां भी दरखास्त दीं, वहां के अधिकारियों ने केवल कागज़ की खानापूर्ति ही की, लेकिन मौके पर वास्तविक न्याय दिलाने के मामले में उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। जिस रोज उसके प्लॉट के बीच से जल निगम की पाइप लाइन बिछाई जा रही थी, उस समय प्रशासन के हर संबंधित अधिकारी को पता था कि यह सब विधि के विरूद्ध हो रहा है, लेकिन कोई भी न्याय का साथ देने नहीं आया।
मुनेश्वर का परिवार रोता-गाता रहा, मगर जैसे उसको न्याय मांगने की मनाही थी। गुहार पर इलाके के दरोगा हों या एसडीएम या हों एडीएम, ये सब कानूनी चिट्ठियां तो लिखते रहे, जांच रिपोर्ट भी बनाते रहे, अपनी जिम्मेदारियां दूसरों पर डालते रहे, मगर जब मुनेश्वर को मौके पर न्याय देने का मामला आया तो उन्होंने भ्रष्टों और कुटिल लोगों का साथ दिया, जिनका सरगना मुनेश्वर का सबसे निकटस्थ पड़ोसी देवीशरण श्रीवास्तव निकला, जिसने मुनेश्वर की मदद करने के बहाने श्री ओमप्रकाश मेमोरियल के नामसे स्कूल खोल दिया, दूसरों को भी बुला लिया कि आओ तुम भी कब्जा करो, तुम भी अपनी दुकान बना लो और अपना रास्ता बना लो। मुनेश्वर ने जिन-जिन को उसकी जमीन हथियाने से रोका, उन्होंने ही मुनेश्वर और उसके परिवार का जीवन संकट में डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि अपने बाप पर रोज-रोज के हमले देखकर मुनेश्वर का बड़ा लड़का अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठा और छोटा लड़का कक्षा आठ तक पढ़ाई कर मजबूरन घर बैठ गया। न्याय पाने के लिए आज पूरा परिवार दर-बदर है। अपने कब्जे की जमीन भी किसी तरह बचाना उसके लिए अब नामुमकिन हो गया है। इस जमीन का एक-एक टुकड़ा आज कई दिग्गजों को खटक रहा है। भूमि बाजार की ओर देखें तो आज यह करोड़ों रुपयों की जमीन है। जिसको जहां मौका मिला है, उसने वहीं अपना तंबू गाड़ दिया है और मालिकाना हक के फर्जी कागज बनवाकर उसे अपनी जमीन बता रहा है।
हद देखिए कि मुनेश्वर के घर के सामने हफ्ते में तीन बार बाजार लगना शुरू हो चुका है। यहां कुछ अवैध दुकानदार और दबंग इन पटरी दुकानदारों से अवैध तहबाजारी टैक्स वसूलते हैं। इसी जमीन पर लोगों ने एक जगह हनुमान मंदिर और दूसरी जगह संतोषी माँ का मंदिर बना दिया, ताकि प्रशासन भी इन दोनों आराध्यों से डरा रहे और मंदिर देखकर उनसे जमीन खाली न करा पाए। जल निगम की लाइन निकाल दी गई, ताकि मामला कोर्ट-कचेहरी जाए तो जज साहेब को यह समझाने में कोई दिक्कत न हो कि मुनेश्वर झूंठ बोलता है, यहां पानी की लाइन भी निकली है, बाजार भी लगता है, दो-दो मंदिर हैं और तकरोही से चिनहट या दूसरे गावों में जाने का कदमी रास्ता भी है और बहुत सारी दुकानें हैं, इतने सारे तर्क देने के बाद कौन जज साहेब मुनेश्वर को कहेंगे कि यह अवैध कब्जा है? अवैध दुकानें हैं और या यह अवैध बाजार है? हां, सन् 2002 में लखनऊ के तत्कालीन जिलाधिकारी नवनीत सहगल के सामने जब यह मामला आया तो उन्होंने मुनेश्वर की गुहार पर एसडीएम सदर से इस पूरे मामले की जांच कराई। उस वक्त एसडीएम सदर लखनऊ ने जांच में वही पाया, जिसकी मुनेश्वर काफी समय से गुहार देते आ रहा था।
जिलाधिकारी नवनीत सहगल ने एसडीएम से यह रिपोर्ट पाते ही अवैध कब्जेदारों के खिलाफ कड़े आदेश जारी किए। उन्होंने अपने आदेश में लिखा कि पुलिस अधीक्षक ट्रांसगोमती, एसडीएम सदर, क्षेत्राधिकारी गोमतीनगर, मुख्य नगर अधिकारी लखनऊ को स्पष्ट निर्देश दिए जाते हैं कि वह मौके पर जाकर इस जमीन पर पाए गए अनाधिकृत एवं अवैध दुकानों की बुलडोजर से ध्वस्तीकरण की कार्रवाई करते हुए आवंटी मुनेश्वर को उसका कब्जा दिलाएं। जिलाधिकारी ने अपने आदेश संख्या 471/61-एसटी-2002 दिनांक 6 जून, 2002 के इस आदेश में माना कि उपजिलाधिकारी सदर, लखनऊ की जांच आख्या दिनांक 31.05.2002 से स्पष्ट है कि इस भूमि के आवंटी मुनेश्वर पुत्र नन्हें की जमीन पर अवैध कब्जे किए गए हैं। जिलाधिकारी लखनऊ ही नहीं, बल्कि इस इलाके का रहने वाला हर बासिंदा जानता है कि मुनेश्वर की जमीन को बलात् हड़पा गया है और इस जमीन को हड़पने वालों में शरीफ कहे जाने वाले लोगों से लेकर बदमाश तक शामिल हैं, जिनके सामने अधिकारी हों या पुलिस वाले सब चुप रहते हैं। वह भी चुप हैं, जो इलाके के सांसद हैं और बाकायदा पंचायत लगाकर लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनकी समस्याएं हल कराने के बड़े-बड़े दावे करते हैं। इलाके की वोट की राजनीति ने सांसद महोदय कौशल किशोर के मुंह पर ताला लगा रखा है। इसके पहले के सांसद भी इस मामले में यही करते रहे हैं। एक दलित को यहां कोई बर्दाश्त नहीं कर पाया, वह अकेला था, जिसे इलाके के दबंगों ने घेर-घेर कर कानून, समाज और मीडिया की नज़रों के सामने ही अधमरा कर दिया है।
अंधेर नगरी का यह एक उदाहरण है, जो चालीस साल बाद मीडिया की नज़रों में आया है। एक तरफ जिलाधिकारी, जिला कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट, मुनेश्वर को इस भूमि का आवंटी मानकर उसकी भूमि से अवैध कब्जों से मुक्त कराने का सख़्त आदेश देते हैं, मगर उन्हीं की आख्याओं की कमज़ोरियों पर बाद में विपक्षियों को आसानी से स्टे मिल जाता है। मुनेश्वर के अथक प्रयासों के बाद यह स्टे दिनांक 6-10-2010 को उच्च न्यायालय में खारिज भी हो जाता है। स्थानीय प्रशासन के अधिकारी एक ओर कार्यवाही करने के आदेश भी देते हैं तो दूसरी ओर कानून व्यवस्था का लकूना भी छोड़ देते हैं, जिससे न्याय को लागू करने की कार्यवाही अधर में लटक जाती है। मुनेश्वर ने जब भी इस आदेश के पालन की गुहार लगाई तो उस पर नियमानुसार कार्यवाही करने के आदेष पारित होते गए, मगर हुआ कुछ नहीं। सही बात है कि इस जमीन पर कब्जा करने वालों की लॉबी के सामने मुनेश्वर की आखिर हैसियत ही क्या है? ना तो वह पढ़ा-लिखा है, न पैसे वाला है, साईकिल पर दस-पचास किलो चावल-गेहूं बेच कर किसी तरह परिवार का गुजारा करने वाले के पास मुकद्मेंबाजी के लिए कितना पैसा होगा? उसकी जमीन हथियाने वालों को सब पता है कि न उसके पास पैसा है और न उसकी प्रशासन में कोई सुनने वाला है, इसलिए ‘दिमागदारों’ ने एक खेल खेला।
बांस रहे न बांसुरी। मुनेश्वर की हिम्मत के सामने पानी भरने वाले इन सामंतियों ने प्रशासन के लोगों से कुटिल सांठ-गांठ कर यह पासा उलटने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप मुनेश्वर दंग रह गया। अवैध कब्जेदारों के गिरोह की प्रशासन में सांठ-गांठ का परिणाम मुनेश्वर का पट्टा खारिज किए जाने के रूप में सामने आया है। फैसले के बाद इसकी पत्रावली को दाखिल दफ्तर का आदेश देते हुए अपर कलेक्टर प्रशासन लखनऊ का कहना है कि उस समय पट्टा अनुमोदित करते या कराते समय तहसील स्तरीय राजस्व अधिकारियों ने अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीनता बरतते हुए नियमों की अनदेखी की है, अब यह जमीन मुनेश्वर के नाम निरस्त होकर पूर्ववत् खाते में दर्ज की जाए। उन्होंने इस कथित अनियमित आवंटन के दोषियों के संबंध में विस्तृत आख्या भी मांगी है। इस आदेश का पता लगने पर उसके विरूद्ध मुनेश्वर फिर से न्यायालय की शरण में गया है, जिसकी सुनवाई इस महीने की उनतीस तारीख को होगी। दलित अत्याचारों पर समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर रोज ही शोर मचाने वालों, राजनीतिक दलों, सामाजिक शोषित संगठनों, मीडिया वालों को प्रदेश की राजधानी में चालीस साल में भी आज तक एक दलित पर सामंतों का यह असहनीय अत्याचार नहीं दिखा?
मुनेश्वर कहता है कि मेरे परिवार पर जान-माल का संकट आने पर जब भी मैने मीडिया वालों, नेताओं और अधिकारियों को गुहार लगाई तो मदद को कोई नहीं पहुंचा। उसका कहना है कि मुझे किसी से शिकायत नहीं है, जिसने मेरे परिवार के साथ अच्छा किया उसका भला और जिसने बुरा किया उसका या उनका भी भला, ‌किंतु वह समय आएगा, जब समय ही उनसे मेरा बदला लेगा। आस-पास के कुछ अन्य लोगों का कहना है कि यहां लगने वाले बाज़ार के दुकानदारों से तहबाजारी की जबरिया वसूली होती है, जिसका हिस्सा पुलिस और लेखपाल आदि को बंटता है। हनुमान मंदिर का पुजारी रामबलि मंदिर में अराजक तत्वों को शरण देता है-यहां जुआ ‌‌खेला जाता है, यह ‌कथित पुजारी खूब गांजा सुल्फा शराब पीता और पिलाता है। वह मंदिर में भी दुकान लगवाकर उनसे वसूली करता है। क्या है कि इस जमीन को हथियाने के लिए धर्म-कर्म के नाम पर उसके पाखंड का वहां बोलबाला है। पता चला है कि कुछ और जगहों पर भी उसने ऐसे ही अवैध कब्जे कर रखे हैं। यही हाल संतोषी माता के मंदिर का है, वह भी कुछ ही दूरी पर इसीलिए बनवाया गया। कहते हैं कि कोई संजय शुक्ला नाम का व्यक्ति इलाहाबाद से यहां आया और इलाके के लोगों को गुमराह कर इस अवैध मंदिर का पुजारी बन बैठा। यहां भी रोज ही शाम को खूब हुड़दंग होता है।
तकरोही के लोग कहते हैं कि ये दोनों कथित पुजारी यहां की शांति व्यवस्‍था के दुश्मन कहे जाते हैं। इस प्रकार के लोगों से देवी देवताओं और परम आराध्यों की घोर अवमानना हो रही है। यहां एक और व्यक्ति का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है और वो हैं-देवी शरण श्रीवास्तव। इन श्रीमान ने मुनेश्वर की जमीन पर श्री ओमप्रकाश मेमोरियल स्कूल खोला हुआ है। यह एक ऐसा स्कूल है, जिसमें उन्होंने किराएदार भी रखे हुए हैं। ऐसे में वहां बच्चे किस प्रकार पढ़ते होंगे, आप अंदाजा लगा सकते हैं। देवी शरण श्रीवास्तव का असली उद्देश्य मुनेश्वर की जमीन पर कब्जा करना और दूसरों को भी कब्जा कराने के रास्ते बताना है। ये श्रीमान यहां के अवैध कब्जेदारों के सरगना माने जाते हैं। सोचिए कि इस कथित स्कूल से कैसी शिक्षा और कैसा शिक्षा संदेश निकलता होगा। अवैध कब्जेदार आज इन्हीं मंदिरों और स्कूल को कोर्ट कचहरी और जांच अधिकारियों की आख्याओं में मुनेश्वर के खिलाफ तर्क के साथ हथियार के रूप में इस्तेमाल होते आ रहे हैं। मुनेश्वर की जमीन पर अवैध कब्जेदार देवी शरण श्रीवास्तव, मोहम्मद जमील, सुंदर यादव, विजय यादव, घूपे, पवन कुमार जैन, वसंत, किशन, छन्ना, पुत्ती लाल, बंसी, जयप्रकाश सोनार, पिंटू निगम, भागू, मौर्या, रामबलि पुजारी, अशोक, गामा, भारत, ऊषा बुटिक, बाबू, धुरू, मुनव्वर, राजकुमार, पूर्णमासी, गुड्डू, सग्गू, संजय शुक्ला पुजारी, गुल्ला, महेंद्र सोनी ज्वैलर्स, पाले, पप्पू इस जमीन पर कहां से आ गए? वो कौन हैं, जिनसे इनको एक दलित की जमीन पर कब्जा कर लेने की हिम्मत और शह मिली? क्या ये सब एक ही दिन में यहां आ गए? इनके पास कौन से कागज़ हैं जिनके बिना पर ये मुनेश्वर के ‌पट्टे पर अतिक्रमण कर कोर्ट में गए थे? इनके काग़जों की सच्चाई की कोई जांच हुई? नहीं हुई।
यह है सीबीआई जांच के लिए फिट केस, जिसमें इस मामले से जुड़े रहे नौकरशाहों की पैंटें ढीली होती नज़र आएंगी, जरा मुनेश्वर की हिम्मत अभी और कायम रहे। मुनेश्वर की ज़मीन का आगे फैसला अब जो भी हो, इसके सारे पक्ष सामने आ चुके हैं। कौन-कौन लोग हैं, जिन्होंने मुनेश्वर की जमीन को हड़पा और जब वह कानूनी कार्यवाही में मुनेश्वर से पराजित हो गए तो उन्होंने मुनेश्वर के भूमि पट्टे के आवंटन को ही अवैध घोषित करा दिया। सवाल उठता है कि जमीन आवंटन मुनेश्वर के नाम वैध है या अवैध है यह बात चालीस साल बाद सामने आयी है? दूसरा सवाल यह है कि जब यह अवैध कब्जा है तो उसके जिम्मेदार लोग कौन-कौन हैं और वह रिपोर्ट कहां है? सच तो यह है कि मुनेश्वर जब अत्याचार पर भारी पड़ गया और उस जमीन पर बड़े-बड़ों की नज़रें बेईमान हो गईं तो मुनेश्वर को किया गया भूमि आवंटन आज अवैध और अनियमित बताया जा रहा है। जहां तक मुनेश्वर की अपने अधिकारों के लिए लड़ाई का सवाल है तो उसने उस पर कानूनी विजय तो पा ली है। मुनेश्वर के सामने चुनौती और बढ़ गई है, मगर मुनेश्वर भी हार मानने वाला नहीं है, उसकी लड़ाई जारी है और अब उसकी आस और आत्मविश्वास अदालत पर है। देखना है कि वहां आगे क्या होता है।

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