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मीडिया को क्या किसी चाबुक का इंतजार है?

भागवत का बयान तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का मामला

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Saturday 19 January 2013 04:47:32 AM

mohan bhagwat

नई दिल्ली। खबरिया चैनलों पर नेताओं, राजनेताओं, धर्माचार्यों, सामाजिक लोगों या संगठनों के बयानों या घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर उन्हें सनसनीखेज़ बनाकर या उनको बेवजह किसी घटनाक्रम के साथ लिंक करके घंटों प्रसारित या प्रचारित करने वाले समाचार चैनलों पर कानूनी कार्रवाई के लिए सरकार पर दबाव बढ़ रहा है। हाल ही में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के एक बयान को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने के लिए एनडीटीवी, सीएनएन-आईबीएन, टाइम्स नाउ, हेडलाइन टुडे, आजतक, जी-न्यूज़, आईबीएन-7, एबीपी, न्यूज़-24 एवं इंडिया टीवी आदि टीवी चैनलों को नोटिस भेजा गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ वकीलों विकास महाजन, वरुण सिंह एवं राजीव तुली ने राष्ट्रीय प्रसारण निगम से मांग की है कि वह मोहन भागवत के बयान को गलत संदर्भ में तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने वाले सभी टीवी चैनलों के खिलाफ सू-मोटो कार्रवाई करे। गौरतलब है कि पति-पत्नी के पावन रिश्ते पर सरसंघचालक मोहन भागवत का इंदौर में दिया गया भाषण इस नोटिस का आधार बनाया गया है। उधर, उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अरुण भारद्वाज ने इसी समाचार को ग़लत तरीके से पेश करने के मामले में भारत की समाचार एजेंसी पीटीआई के एडिटर-इन-चीफ एमके राजदान एवं इसके अध्यक्ष लक्ष्मी पाथी को लीगल नोटिस भेजा है।
यह कोई पहला मामला नहीं है, जब विशेष रूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया पर तथ्यों और अवसर की अनदेखी करते हुए भावनाप्रधान घटनाक्रम में नमक-मिर्च लगाकर उसे परोसने का मामला उठाते हुए लीगल नोटिस भेजा गया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया कई गंभीर मामलों में अनेक बार गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग कर चुका है, जिसके खिलाफ आवाज़ें उठती रही हैं। पिछले साल ही एक ऐसे ही मामले में स्टार न्यूज़ को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने 100 करोड़ रुपए का नोटिस भेजा था। नोटिस मिलने पर स्टार न्यूज़ ने डिस्क्लेमर चलाकर इस मामले से छुट्टी पा ली थी, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया और बाकी मीडिया में इस प्रकार की घटनाओं को लेकर कोई गंभीर आत्ममंथन नहीं हुआ और नाहि कोई सुधार देखा जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं, जिनमें न केवल मीडिया की साख गिरी है, अपितु भारत की दूसरे देशों में छवि भी खराब हुई है।
कुछ घटनाओं के संबंध में पाएंगे कि खबरिया चैनलों ने पिछला पूरा महीना बस ऐसी ही खबरों और बयानों के फुटेज दिखाने पर ही निकाल दिया। इन कथित खबरों में केवल शोर ही शोर था, बाकी और कुछ नहीं। अब सवाल उठता है, ये शोर कब तक मचेगा? ये लीगल नोटिस कब तक भजे जाते रहेंगे? ये डिस्क्लेमर कब तक बेवकूफ बनाएंगे? क्या ये खबरिया चैनल तब समझेंगे, जब सरकार कोई आइटी जैसा कानून संसद में पास करा ले जाएगी, जिसपर आजकल देश में काफी हाय तौबा मच रही है? क्या ये स्वनियंत्रित नहीं हो सकते? समाचार चैनल पर यह पट्टी चलाने से कि यदि उनके चैनल पर कोई ख़बर चलवाने या रुकवाने का दावा करता हो तो उसकी सूचना दें, क्या यह सिद्ध हो जाता है कि वह चैनल बहुत निर्भीक है या ईमानदार है या वह सही खबरें या विश्लेषण देता है? मीडिया इथिक्स के अब कोई मायने नहीं रखते? सोचना पड़ेगा, क्योंकि ऐसे लीगल नोटिस चेतावनी भर हैं, जिनकी ये उपेक्षा करते आ रहे हैं। सामाचार चैनलों पर कंटेंट के गिरे-थके स्तर को हरदम महसूस किया जाता है।
ऐंकर हों या रिर्पोटर हों, उनमें कई का सामान्य ज्ञान काफी निम्न स्तर का देखने को मिलता है। उन्हें ये ही नहीं पता होता कि लूट और डकैती में क्या अंतर है, मृत्यु, निधन या मौत शब्द का प्रयोग कब और कहां होता है। चैनलों के बड़े नामधारी विश्लेषणकर्ता भी इसमें बड़ी ग़लती करते देखे जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि उनको हर वर्ग का श्रोता सुन रहा है-देख रहा है, जिनमें बहुत से ऐसे भी हैं, जो उनके श्रीमुख से बोले हुए शब्दों, वाक्यों और संदर्भ को बहुत अच्छी तरह से पकड़ रहे और समझ रहे हैं। इस मामले में हिंदी भाषी समाचार चैनलों पर प्रस्तुतिकरण की हालत ज्यादा ही बिगड़ी हुई है, जिससे उन पर तथ्यों से खिलवाड़ करने या तोड़-मरोड़ के गंभीर आरोप लग रहे हैं।
इस स्थिति पर सरकार से लेकर नियामक तक की तीखी नज़र है और अब लगभग हर रोज इस पर सब तरफ चर्चा होती है, और इनके विरुद्ध गंभीर आपत्तियां दर्ज हो रही हैं। अब तो व्यंगकारों के लिए भी ये चैनल व्यंग्य का मसाला बन गए हैं। सरकार बार-बार इस मीडिया को नसीहत देती है, जिसकी चपेट में सारा मीडिया है। वह दिन दूर नही लगता है, जब समाचार चैनलों सहित सारे मीडिया को किसी आदर्श आचार संहिता के नाम पर किसी कानून से नियंत्रित कर दिया जाएगा, तब मीडिया की आज़ादी का कोई भी शोर नक्‍कारखानें में तूती की आवाज़ बनकर रह जाएगा। देश, देख और जान चुका है कि मीडिया समर्थित हाल के आंदोलनों की क्या हालत हुई है और मीडिया किस जगह खड़ा है। यदि ऐसा नही होता तो खबरों, विश्लेषणों और बयानों से छेड़-छाड़ कोई मुद्दा नहीं बन पाती।

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