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सत्य को पूरे प्राणों से मानना ही श्रद्धा !

Friday 10 January 2014 02:40:16 PM

ह्रदयनारायण दीक्षित

ह्रदयनारायण दीक्षित

घने कोहरे में दूर तक नहीं दिखाई पड़ता। शीत घनत्व ज्यादा हो तो निकट देखना भी विकट हो जाता है। कोहरे के कारण दुर्घटनाएं होती हैं। चोट चपेट और मारे गए लोगों की संख्या के विवरण कोहरे को कोहराम बनाते हैं, लेकिन कोहरा स्थायी स्थिति नहीं है। सूर्य स्थायी है। वे कोहरे में भी होते हैं, रात्रि विश्राम के बाद सुबह ठीक समय अपने काम पर आ जाते हैं। समाजचेता का उत्तरदायित्व अंधकार का अस्थायित्व बताना और सूर्य तेजस् के सतत् प्रवाह का विवरण देना है। निराशा, हताशा नहीं आशा और उत्साह का वातावरण बनाना है। जीवन के प्रति पराजय का नहीं उल्लास का भाव भरना है, लेकिन वातावरण निराशापूर्ण है। जीवन के कृष्णपक्ष ही उभारे जा रहे हैं, शुभ्र पक्ष की चर्चा बहुत कम है। समाज के प्रति निराशा का भाव लगातार बढ़ा है। ऐसे में प्रकृति सृष्टि के प्रति 'श्रद्धा' भाव को पुष्ट करना जरूरी है। श्रद्धा अंग्रेजी के 'फेथ' का अनुवाद नहीं है। फेथ पंथिक विश्वास है और श्रद्धा देखे, जांचे, परखे सत्य के प्रति निष्ठा। विद्वानों ने श्रद्धा को श्रत् धातु से निर्मित बताया है। संस्कृत श्रत् का अर्थ है सत्य। सत्य को पूरे प्राणों से मानना ही श्रद्धा है।
श्रद्धा प्रत्यक्ष में एक मनोभाव जान पड़ती है, लेकिन ऋग्वेद में 'श्रद्धा' मनोभाव नहीं है। ऋग्वेद में वे एक देवता हैं। ऋषि उनका अनेकश: आह्वान करते हैं-'हम प्रात: मध्यान्ह और संध्या में श्रद्धा का आह्वान करते हैं, श्रद्धा हमें परिपूर्ण श्रद्धा दें।' श्रद्धा का उल्टा 'संशय' होगा। संशय ज्ञान यात्रा में सहायक है। संशय को दूर करने के लिए तर्क, प्रतितर्क, आचार्य और विज्ञान के उपकरण हैं। ये उपकरण महत्वपूर्ण हैं और सत्य भी हैं। क्या इन उपकरणों पर भी संशय किया जा सकता है? शायद नहीं। ज्ञान या अनुभूति की कोई भी यात्रा शून्य से नहीं शुरू होती। प्रकृति भी शून्य से नहीं उगी। हम इंद्रियबोध के कारण ही संसार से जुड़ते हैं। क्या आंख पर संशय कर सकते हैं? क्या कान, नाक, स्वाद या स्पर्श पर भी? संशयी को ऐसा करना ही चाहिए। तब प्रारंभ कहां से करें? स्वयं की बुद्धि भी इंद्रियबोध का ही परिणाम है। स्वयं की बुद्धि पर भी संशय हो तो क्या करेंगे? तीन उपकरण बताए गए हैं-प्रमाण, अनुमान और विद्वानों के अनुभूत शब्द। प्रमाण अनुमान इंद्रियबोध से जुड़े हैं। विद्वानों के शब्द श्रद्धा से। संशयी होने का अपना मजा है, लेकिन ठीक संशयी होने के लिए भी स्वयं पर विश्वास और श्रद्धा जरूरी है।
भारत में आस्तिक और नास्तिक की कसौटी मजेदार है। यहां ईश्वर न मानने वाले भी आस्तिक हैं। भारत को दो प्रमुख दर्शन सांख्य व वैशेषिक निरीश्वरवादी हैं। परंपरा में वेद के प्रति निष्ठा ही आस्तिकता है और वेद से इंकार नास्तिकता। स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि वेद वचनों के प्रति निष्ठा सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्यों है? वेद भारतीय चिंतन दर्शन का प्रथम उपलब्ध काव्य हैं। ऋग्वेद दुनिया की प्राचीनतम शब्द अनुभूति है। वेद किसी एक देवदूत, मनीषी या विद्वान की घोषणा नहीं हैं। वे लगभग सात आठ सौ ऋषियों की अनुभूतियां हैं। भिन्न-भिन्न विचार हैं। यहां मानने पर नहीं जानने पर ही जोर है। कोई कह सकता है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में हजारों बरस प्राचीन वैदिक संदेशों की उपयोगिता क्या है? आज की चुनौतियां भिन्न हैं। वैदिक समाज की भिन्न थीं। चुनौतियां बेशक भिन्न हैं। आशा, निराशा के घनत्व में भी मौलिक अंतर है। वैदिक समाज आनंदमगन और मधुमय है। सत्य अभीप्सु भौतिक जीवन इस समाज की विशेषता है। जीवन जगत के प्रति आशा और उल्लास है। वेद मंत्र उत्साह और उल्लास जगाते हैं। आधुनिक काल निराशी हैं। तमाम उपलब्धियों के बावजूद जीवन में सृजनात्मक कृत्य नहीं हैं। जीवन में पुलक और नृत्य नहीं है। मन तेज रफ्तार है, लेकिन मन छंद की गति मंद है।
समाज जीवन इकहरे नहीं होते। यहां शुभ के साथ अशुभ भी है। शोषण, उत्पीड़न और ग़रीबी आदि की समस्याएं राज और समाज की विकृतियां हैं। यह समाज हमारे पूर्वजों के श्रमफल का ही परिणाम है। सामाजिक विकृतियों के विरूद्ध लोकमत बनाना हरेक समाज चिंतक का दायित्व है। लेखक, चिंतक अपनी अनुभूतियों से समाज को सजग व संवेदनशील बनाते हैं। अतिरिक्त संवेदनशील लोग व्यथित भी रहते हैं। वे अपनी व्यथा को सार्वजनिक करते हैं। व्यथा का सार्वजनिक होना कई प्रभाव डालता है। व्यथा समाज को जगा सकती है और सामाजिक परिवर्तन का उपकरण भी बन सकती है, लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता। व्यथा की कथा समाज को निराश भी कर सकती है। निराश आमजन विकृति को भी समाज की प्रकृति मान लेते हैं। वे निष्क्रिय हो जाते हैं, इसलिए हरेक सर्जक लेखक व चिंतक विचारक को 'आशा' तत्व पर अतिरिक्त ध्यान देने की जरूरत होती है। निराशा जीते हुए भी मर जाने जैसी चित्तदशा है। आशा में बड़ी ऊर्जा है। आशावाद जगाकर ही सामाजिक परिवर्तन के काम ठीक से किए जा सकते हैं।
वैदिक साहित्य का यही उपयोग है। पाणिनि, कौटिल्य, चरक, पतंजलि, भरतमुनि आदि के विपुल साहित्य में कहीं कोई अंधविश्वास नहीं। चरक संहिता में तो आत्मा को भी द्रव्य कहा गया है। पतंजलि के योगसूत्र उत्कृष्ट मानव विज्ञान की श्रेणी में प्रथम हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का उद्देश्य लोकजीवन को आनंदित करना है। पाणिनि ने शब्द के अल्पतम घटक तक भाषा का विवेचन किया है। महाभारत रामायण विश्व प्रतिष्ठ महाकाव्य हैं। पुराण अपने ढंग के इतिहास और मजेदार काव्य कौशल वाले हैं। मूलभूत प्रश्न यही है कि भारत के निकट अतीत में ऐसा विचारशील, आनंदमगन, नृत्यरत समाज और लोक था, तो ऐसी विपुल दार्शनिक, वैज्ञानिक और खोजी परंपरा के बावजूद तमाम साधन संपंन आधुनिक समाज भी आनंद मगन क्यों नहीं हो सकता? बेशक हम अतीत की ओर नहीं लौट सकते। लौटना चाहिए भी नहीं। लेकिन विराट परंपरा की पूंजी को छोड़ना कहां का न्याय है? इस पूंजी को आवश्यकतानुसार आधुनिक बनाते हुए आशा और उमंग का जीवन पाया जा सकता है।
भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है। आधुनिक चिंतक विचारक प्रतिष्ठित हैं, लेकिन अधिकांश के शब्द प्रबोधन आशा नहीं जगाते। जीवन के प्रति आस्तिकता, श्रद्धा और आशा के भाव जरूरी हैं। प्रतिभा का अर्थ शब्द व्याकरण या पदार्थ विज्ञान की जानकारी नहीं है। प्रतिभा का अर्थ प्रकाश की दीप्ति है। प्रतिभा का भा, प्रकाशवाची है। जैसे फूल का श्रेष्ठतम गंध है। वृक्ष पृथ्वी से रस गंध लेते हैं। पृथ्वी का गुण गंध है। पुष्प इसे प्रकट करता है। ऐसे ही प्रकाश सृष्टि का सर्वोत्तम है। वैदिक साहित्य में सृष्टि के सर्वोत्तम को 'ज्योर्तिएकं' कहा गया है। वह परम प्रकाश रूपा है। उपनिषद् के ऋषि गाते हैं, वहां सूर्य का प्रकाश नहीं चमकता, अग्नि और विद्युत का भी नहीं। सब उसी एक के प्रकाश से दीप्त पाते हैं। प्रतिभा का अर्थ है-उसी एक की आभा और दीप्ति। जैसे प्रत्येक का अर्थ है प्रति-एक वैसे ही प्रतिभा भी है। भा-संपूर्णतम प्रकाश है, प्रतिभा उसी की दीप्ति। संयोग मात्र नहीं है कि हम सब भारत है। 'भा-रत' यानी प्रकाशरत प्रकाश अभीप्सु राष्ट्रीयता है। चिंतक विचारक अपनी प्रतिभा का प्रयोग आशा, उत्साह और उल्लास देने के लिए करते हैं, तभी मानव कल्याण होता है।

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