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समलैंगिकता : विकृति और कुसंस्कृति

विजय कुमार सिंघल 'अंजान'

Monday 30 December 2013 12:24:27 AM

homosexuality

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अवैधानिक और अपराध ठहराते हुए जो निर्णय दिया है, उससे बहुतों को मिर्चें लगी हैं। इन 'सज्जनों' में बड़े-बड़े धुरंधर शामिल हैं। जिन सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को देश में होने वाले तमाम यौन अपराधों पर बोलने का समय नहीं था, वे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आते ही बोल पड़े कि यह फैसला सही नहीं है और सरकार से कानून बनाने के लिए कहा जाएगा। न्यायालय के निर्णयों को बेकार करने वाले कानून बनाना कांग्रेस के लिए कोई नई बात नहीं है। इमरजेंसी काल से लेकर शाहबानो मामले तक और उसके बाद भी ऐसे तमाम उदाहरण दिये जा सकते हैं।
ऐसा ही रवैया झाड़ू पार्टी और कई दलों के नेताओं का है। केवल भाजपा नेताओं ने इस फैसले का स्वागत किया है। इससे स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारतीय संस्कृति के अनुरूप है और जो इसका विरोध कर रहे हैं, उनकी भारतीय संस्कृति में कोई आस्था नहीं है। भारतीय संस्कृति जहाँ यम-नियम, त्यागपूर्वक भोगने, और ब्रह्मचर्य पर जोर देती है, वहीं पाश्चात्य संस्कृति 'खाओ, पीओ, मौज करो' के सिद्धांत का पालन करती है। यह मौज-मस्ती कैसे और किसके साथ की जा रही है, इसका उनके लिए कोई महत्व नहीं है।
प्राचीन चिंतन के अनुसार ही नहीं, आजकल की हालत को देखते हुए भी यह स्पष्ट है कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी और विकृति है, इसके अलावा कुछ नहीं। जो लोग इस अप्राकृतिक और बेहूदे कार्य को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि यह स्वाभाविक है, वे स्वयं को धोखा दे रहे हैं। प्रकृति ने हमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ दी हैं, इसलिए नहीं कि हम उनका मनमाना और अपरिमित उपयोग करें, बल्कि इसलिए कि हम उनका सदुपयोग करें, दुरुपयोग न करें। जैसे खाने और बोलने के लिए हमें मुँह दिया गया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम हर समय खाते रहें या बोलते रहें। इसका मतलब यह है कि हम जरूरत के अनुसार खायें भी और बोलें भी। अधिक खाने के स्वास्थ्य बिगड़ता है और अधिक बोलने से मानसिक बीमारियाँ और सामाजिक समस्याएं पैदा होती हैं।
इसी प्रकार की बात अन्य इंद्रियों के बारे में समझी जा सकती है। प्रकृति ने हमें यौन इंद्रियाँ इसलिए दी हैं कि हम उनका उचित उपयोग या तो संतानोत्पत्ति के लिए करें या पारिवारिक आनंद के लिए, लेकिन इसकी भी सीमा है और पारिवारिक आनंद के लिए भी विवाह करने का सामाजिक बंधन है, ताकि कोई समाज में विकृतियाँ और अव्यवस्था न फैलाए। अनियमित भोग इच्छा के कारण ही बलात्कार जैसे कुकृत्य होते हैं। भारतीय संस्कृति में पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी से भी यौन संबंध बनाना अपराध माना जाता है। भले ही कानून में यह अपराध परिभाषित न हो, लेकिन फिर भी इसे व्यभिचार कहा जाता है और हेय दृष्टि से देखा जाता है।
लेकिन जो लोग अपनी पाशविक वृत्तियों को संयमित नहीं कर पाते, वे ही समलैंगिकता तथा अन्य अप्राकृतिक यौन कृत्यों का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों के पास एक 'बड़ा मजबूत' तर्क है कि खजुराहो आदि कुछ मंदिरों में समलैंगिक यौनक्रियाओं तथा पशुओं के साथ यौनक्रियाओं के दृश्य हैं। वाह! वहाँ तो सामूहिक और सार्वजनिक यौनक्रियाओं के दृश्य भी हैं, तो क्या आप उनको भी सही मानेंगे और उनका भी पालन करेंगे? एक मंदिर में बने कुछ चित्रों या दृश्यों को आप किस आधार पर अनुकरणीय मान रहे हैं? बहुत से मंदिरों में बड़ी-बड़ी अच्छी बातें भी लिखी रहती हैं, ब्रह्मचर्य, संयम, नैतिकता और शुचिता के उपदेश होते हैं। आप उनका अनुकरण क्यों नहीं करते?
वास्तव में जैसा कि स्वामी रामदेव ने कहा है कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है और योग द्वारा इसका इलाज किया जा सकता है। उन्होंने इस रोग के रोगियों को इलाज हेतु आमंत्रित भी किया है। 

विजय कुमार सिंघल 'अंजान' 4/3, अक्षय निवास, 2, सरोजनी नायडू मार्ग लखनऊ-226001

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