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भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह!

हृदयनारायण दीक्षित

Thursday 19 December 2013 05:20:42 AM

प्रकृति सदा से है। यथार्थ है और सत्य है। हम मनुष्य इसी प्रकृति का भाग हैं। इसका शिव व सुंदर तत्व प्रकट करना हमारा दायित्व है। जंबूद्वीप भरतखंड के पूर्वजों ने सचेत होकर प्रकृति सत्य के भीतर शिव और सुंदर का साक्षात किया था। प्रकृति, प्रकृति की देन है और संस्कृति मनुष्य के कर्म कौशल से उपलब्ध शिवत्व और सुंदरतम्। संस्कृति मनुष्य की सुकृति है। संस्कृति व्यक्तिगत नहीं होती। सत्य, शिव और सुंदर के बोध भले ही व्यक्तिगत होते हों, लेकिन वे समाज को भी सुंदरता के रस से सराबोर करते हैं। शिवत्व के लोकमंगल से आपूरित भी करते हैं। तब जीवन के कटु सत्य भी मधुमय हो जाते हैं। सत्य, शिव और सुंदर की मानवीय चेतना ही भारतीय संस्कृति है। भारत की इस संस्कृति का विकास वैज्ञानिक विवेक और अनुभूतिपरक दर्शन से हुआ। दर्शन और विज्ञान ने सत्य का बोध कराया। इसी बोध से शिव और सुंदर का सृजन हुआ। इसी सृजन का नाम पड़ा संस्कृति। यही संस्कृति हमारे प्राणों के अणु परमाणु में रची बसी है। अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त विश्व का प्रथम सत्य, शिव और सुंदरतम सांस्कृतिक उद्घोष है। अथर्वा कहते हैं, हे धरती माता! यहां विभिन्न भाषाओं वाले, विभिन्न धर्मो वाले लोग रहते हैं आप सबका पोषण करें।'' कोई द्वैत नहीं। कोई अपना पराया नहीं। सबका अभ्युदय इस संस्कृति की अभीप्सा है। यहां विभिन्न धर्मो का अर्थ भिन्न-भिन्न जीवन शैली है। पंथ या मजहब नहीं। अथर्ववेद के रचनाकाल में पंथ मजहब नहीं थे।
टीवी की बहसों में भारतीय संस्कृति के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं। विद्वान टाइप मित्र प्रश्न करते हैं-यहां दहेज हत्या है, बलात्कार हैं, अपहरण हैं। कहां है यह संस्कृति?'' उनके प्रश्न संगत हैं, लेकिन वे प्राथमिक भूल कर रहे हैं। उनके प्रश्नों का केंद्र सांस्कृतिक है। दहेज हत्या और बलात्कार निंदनीय अपराध हैं। निंदनीय कहने की यह सोंच आखिरकार आई कहां से? सही गलत का निर्णय करने वाले 'विवेक' का विकास क्या सांस्कृतिक श्रमफल का ही परिणाम नहीं है? अपराध होते हैं। अपराध मुक्त समाज सबकी इच्छा है। संस्कृति समाज को अपने ढंग से अपराध मुक्त बनाने का उद्यम करती है। सारी संस्कृत सुभाषित संस्कृति का भाग है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के रचनाधर्मी मनुष्य के निंदित कर्म, असभ्य और अश्लील आचरण पर टिप्पणी करते हैं। टिप्पणियों के स्रोत संस्कृति में हैं। राज्य व्यवस्था अपराधी को दंडित करती है, वह अपराध नहीं रोकती। संस्कृति कल्याणकारी मार्ग को बढ़ावा देती है। कानून और संस्कृति दोनो अच्छे हैं पर कानून की सीमा है। कानून का पालन कराने वाले राजकीय बल अपराधी से भिन्न लोगों पर हाथ नहीं डाल सकते। डालते हैं तो गल्ती करते हैं। इस गल्ती का प्रतिकार करने के लिए सड़क पर आए गैर राजनैतिक समाज को सांस्कृतिक समाज ही क्यों नहीं कहेंगे?
'सिविल सोसाइटी' नाम नया है, लेकिन चर्चा में है। इस तरह के समूह गलती का प्रतिकार करने के लिए सक्रिय हैं। यह प्रशंसनीय है, लेकिन शुभत्व की प्रतिष्ठा का क्या हो? शुभत्व की परिभाषा क्या हो? शुभत्व काल विभाजित नहीं होता। उसे आधुनिक शुभत्व या प्राचीन शुभत्व में नहीं बांटा जा सकता। जो वैदिक काल में सत्य और शुभ था, वही महाकाव्य काल में है। मौर्यकाल और गुप्तकाल में भी वही शिव है। प्राचीन भारतीय इतिहास के नायक अपने अपने देशकाल के बावजूद उसी सत्य, शिव और सुंदर की प्रतिष्ठा करते हैं। आदर्श राज्य की कल्पना मार्क्सवाद में है। विद्वान उसे 'यूटोपिया' कहते हैं। आदर्श और व्यवहार में फर्क होते ही हैं। लेकिन आदर्श के प्रति लगाव बनाए रखना ही सांस्कृतिक होना है। तुलसीदास का रामराज्य इंद्रधनुषी आदर्श है। आधुनिक लोकतंत्री संदर्भ सहित वैसे ही राजसमाज का प्रयास करना सांस्कृतिक आदर्श ही कहा जाएगा। संस्कृति से कटे समाज के पास केवल राजव्यवस्था ही होती है। राजव्यवस्था के पास विधि या कानून होते हैं और इसका एक तंत्र। यह तंत्र हरे पेड़ काटने पर सजा दे सकता है, लेकिन पेड़ लगाने ओर उन्हें पोषण, संरक्षण या आदर देने की प्रकृति नहीं विकसित कर सकता।
जल और वायु प्रदूषण पर कानून हैं। हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण आदि पर कानून हैं। कानून से अपराध नहीं रूकते। भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह में जल माताएं हैं और देवियां हैं। वायु देवता हैं। श्रद्धेय हैं। जल और वायु के प्रति श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक चेतना है। जीवन के प्रति श्रद्धा का भाव अपराधों से विरत रहने के संस्कार देता है। काव्य, कला, संगीत, कथाएं अपने ढंग से समाज की संवेदना जगाते हैं। इनका अपना महत्व है। वैदिक साहित्य विश्व की प्राचीनतम ज्ञान निधि है। इसमें अनेक प्रेरक, संवेदन तत्व है। ऋग्वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक राष्ट्रजीवन की एक विशेष धारा है। कीट पतिंग और वनस्पति जगत तक से प्रीति प्यार की इस धारा को क्या नाम देंगे? क्या किसी राजा या राजव्यवस्था के निर्देशानुसार नदियां हमारी माताएं हैं? क्या पृथ्वी को मां जानने की अनुभूति संविधान से आई है? क्या लोकमंगल अभीप्सु प्रीति की यह रीति उचित नहीं है? इसमें रूढि़वाद क्या है? बेशक इस सबके बावजूद समाज में अनेक तरह की विसंगतियां हैं, लेकिन क्या इसका दोष भारतीय संस्कृति का है? वामपंथी मित्र अर्थव्यवस्था को ही अनेक समस्याओं का कारण मानते हैं। अर्थव्यवस्था एक प्रमुख कारण होती भी है। भारत में भी कृषि अर्थव्यवस्था के समय एक सामूहिक और मजेदार संस्कृति थी। औद्योगीकरण के बाद इसमें तमाम परिवर्तन आए, लेकिन विश्वकल्याण की कामना ज्यों की त्यों है। इसलिए कि लोकमंगल भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व है।
कानून में जो दंडनीय है, वही संस्कृति में अकरणीय और निंदनीय है। कानून में प्रशंसनीय होता ही नहीं। संस्कृति का बड़ा भाग प्रशंसनीय की धारा में चला है। राष्ट्ररक्षा के लिए युद्ध अपरिहार्य है। संस्कृति परंपरा में युद्ध में वीरगति मिलती है और योद्धा को स्वर्ग। युद्ध से भागा योद्धा दंडनीय है, दंड भाग सरकारी है। लोक उसकी प्रशस्तिगाता है, यह बात संस्कृति है। स्तुति और निंदा संस्कृति है। शुभ की स्तुति और अशुभ की निंदा का स्वभाव भारतीय समाज में संस्कृति परंपरा से ही आया है। उपनिषदें में प्रेय और श्रेय की चर्चा है। जो प्रिय है, वह प्रेय है। जो लोकमंगल के लिए जरूरी है, वह श्रेय है। प्रेय की उपासना प्रकृति है और श्रेय का धारण संस्कृति। संस्कृति सामूहिक संपदा है लेकिन व्यक्तिगत जीवन को भी सत्य, शिव और सुंदर के मधुरस से भरती है और सामूहिक जीवन को उत्सवधर्मा बनाती है। भारत में कोई संस्कृति ही न होने की बातें करने वाले विद्वान कृपया नोट करें कि यहां विचार अभिव्यक्ति की प्राचीन संस्कृति के चलते ही उनकी गलत बातें भी सुनी जाती हैं।
कुछेक विद्वान संस्कृति तो स्वीकार करते हैं, लेकिन उसे सामंतों पुरोहितों की गढ़ी मानते हैं। वे राष्ट्र और उसकी प्राचीन उपलब्धियों की उपेक्षा करते हैं। देश भक्ति का स्रोत आखिरकार है क्या? प्राचीन उपलब्धियों के प्रति गौरवभाव देश भक्ति है। तप, ज्ञान, शोध और बोध की परंपरा के प्रति श्रद्धा भाव देशभक्ति है। काव्य सृजन की परंपरा का साक्ष्य ऋग्वेद है। संसार के इस प्राचीनतम ग्रंथ में ही उसके पूर्व की परंपरा और संस्कृति के उल्लेख हैं। उपनिषद् दर्शन यूनानी दर्शन के जन्म से भी प्राचीन है। काव्य सृजन और वाचन की 'पुराण शैली' आनंदित करती है। रामायण और महाभारत में इतिहास, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, समाजनीति, लोकनीति और राजनीति के मार्गदर्शक तत्व हैं। कालिदास जैसे महान कवि इनसे सामग्री लेते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की अनेक कविताओं में उपनिषदों की ध्वनियां हैं। भारतीय संस्कृति के प्रवाह में अनेक धाराएं हैं। यहां अंधआस्थावाद और वैज्ञानिक विवेकानंद की टक्कर भी पुरानी है। नई संस्कृति गढ़ने के इच्छुक विद्वानों को भी मूल का ध्यान रखना चाहिए। जड़ से कटे पेड़ पर पक्षी भी गीत नहीं गाते। जड़ से जीवन रस लेते हुए कमजोर वृक्ष भी अपनी जिजीवीषा के कारण फिर-फिर हरियाते हैं और नई कोपलें देते हैं। मूल वही, रस वही। नई कोपलें तभी उगती हैं वरना ठूंठ के ठूंठ। झूठ नहीं बोलना चाहिए।

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