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'कोई दीपक मुहब्बत का जलाएं तो उजाला हो'

ओबीओ लखनऊ चैप्टर की वृहद काव्य गोष्ठी

बृजेश नीरज

Friday 15 November 2013 02:39:38 AM

obo lucknow poetry seminar

लखनऊ। आल इंडिया कैफ़ी आज़मी अकादमी के प्रेक्षागृह में ओबीओ लखनऊ चैप्टर की काव्य गोष्ठी हुई, जिसमें बड़ी संख्या में देश-विदेश के जाने-अनजाने रचनाकार शामिल हुए। काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि रामदेव लाल ‘विभोर’ ने की, जबकि मुख्य अतिथि ओबीओ के संस्थापक गणेश जी ‘बागी’ थे। विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रसिद्ध नवगीतकार मधुकर अस्थाना और कैलाश निगम, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रकाशन अधिकारी डॉ अमिता दुबे तथा ओबीओ प्रबंधन सदस्य सौरभ पांडेय उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन ओबीओ प्रबंधन सदस्य राना प्रताप सिंह ने किया।
माँ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। हल्द्वानी से पधारीं ओबीओ प्रबंधन सदस्या डॉ प्राची सिंह ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। रचना पाठ लखनऊ के युवा रचनाकार धीरज मिश्र ने शुरू किया। सनातनी छंदों पर इनकी बहुत अच्छी पकड़ है और इस अवसर प्रस्तुत उनकी रचनाओं से परिलक्षित भी हुआ। उन्होंने श्रृंगार के छंद और मुक्तक सुनाए। नवगीत के क्षेत्र में अमन दलाल एक उभरता हुआ नाम है। उनकी प्रस्तुतियों ने भी अच्छा समां बांधा। कानपुर से अन्नपूर्णा बाजपेयी ओबीओ लखनऊ चैप्टर के हर कार्यक्रम में सक्रियता से प्रतिभाग करती हैं, उनकी रचना गगन में निरे भरे सितारे पसंद की गई। इंदौर से पधारीं ओबीओ सदस्या गीतिका ‘वेदिका’ की न केवल लेखन शैली विशिष्ट मानी जाती है, बल्कि उनकी प्रस्तुति भी विशिष्ट होती है। उनकी रचना की पंक्तियाँ कुछ यूँ थीं-
‘रहो सलामत रहो जहां भी, कहीं रहो हम दुआ करेंगे,
जो टूट जाएगी सांस अपनी, कि मरते दम तक वफ़ा करेंगे’
कानपुर से ही पधारे ओबीओ के सदस्य प्रदीप शुक्ल के लेखन में परिपक्वता बरबस झलकती है-
‘देखो मेरा स्वार्थ निजी, कुछ पाने की इच्छा लाया
भूख लगी जब हृदय उदर, तब बालक माता तक आया’
हास्य व्यंग्य के कवि गोबर गणेश अपनी विशिष्ट शैली के कारण एक अलग पहचान रखते हैं-
‘आजकल फाइल तब चल रही है,
जब लक्ष्मी मार्का पहिया लग रहा है।’
ओबीओ लखनऊ चैप्टर के सक्रिय सहयोगी केवल प्रसाद ‘सत्यम’ के लेखन की अपनी एक विशिष्ट पहचान है और ये बात उनकी प्रस्तुति में दिखती है-
‘तन श्वेत सुवस्त्र सजे संवरे, शिख केश सुगंध सुतैल लसे
कटी भाल सुचंदन लेप रहे, रज केसर मस्तक भान हँसे
कर कर्म कुकर्म करे निष में, दिन में अबला पर शान कसे
नित धर्म सुग्रंथ रचे तप से, मन से अति नीच सुयोग डँसे।’
डॉ विनोद लावानियाँ की शानदार प्रस्तुति-
‘मीत मन में बीज गहरी वेदना के बो गए,
अश्रु आँखों से सुनहरे स्वप्न सारे धो गए,
इक शिखा की लपट पर मिटकर शलभ ने ये कहा-
तुम हमारे हो न पाए, हम तुम्हारे हो गए।’
दिल्ली से पधारीं महिमाश्री सामाजिक सरोकारों और विशेष तौर पर नारी विषयों को अपने लेखन में स्थान देती हैं-
‘सपनों को होने से होने का एहसास होता है।’
राहुल देव इस भौतिकतावादी युग की विसंगतियों को बखूबी शब्द दे लेते हैं-
‘गुलामी अब अभिशाप नहीं आकाश है,
जहाँ आज़ादी हफ्ते का अवकाश है।’
कुंती मुखर्जी की अतुकांत रचनाएं सुनने वालों के मन को छू जाती हैं-
‘रात के अंतिम प्रहर में कभी-कभी,
निस्तब्ध तारों के बीच से
एक वाचाल निमंत्रण आता है।’
ओबीओ लखनऊ चैप्टर के आयोजन में पहली बार पधारे शैलेंद्र सिंह ‘मृदु’ को सुनने का अवसर हम सबको प्राप्त हुआ-
‘दिल का पैगाम लेके आया हूँ,
नेह का जाम लेके आया हूँ,
सूने आँगन में आके बस जाओ,
वृदावन धाम लेके आया हूँ।’
बृजेश नीरज ने अपना एक गीत प्रस्तुत किया-
‘दीप हमने सजाये घर-द्वार हैं,
फिर भी संचित अँधेरा होता रहा।’
ओबीओ प्रबंधन सदस्य राना प्रताप सिंह का जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोला-
‘कुहनी तक देखो कुम्हार के फिर से हाथ सने,
फिर से चढ़ी चाक पर मिट्टी फिर से दीप बने।’
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की अपनी एक अलग ही शैली है-
‘जो अनुभूतियाँ
कभी हम जीते थे,
अब उन्हीं के स्मृति कलश सजाकर
प्रतीक रूप में चुन-चुनकर
नित दिवस मनाते हैं।’
ओबीओ लखनऊ चैप्टर के सक्रिय सदस्य आदित्य चतुर्वेदी हास्य-व्यंग्य में बहुत अच्छी दखल रखते हैं-
‘वे भिखारियों के विरुद्ध
नया अध्यादेश ला रहे,
लगता है कि
एक-दूजे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।’
छत्तीसगढ़ से पधारे ओबीओ कार्यकारिणी सदस्य अरुण निगम छंदों में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं-
‘सोना, चावल, चिट्ठियाँ जितने हों प्राचीन,
उतने होते कीमती और लगे नमकीन।’
डॉ सुशील अवस्थी ने कविता और उसकी विभिन्न विधाओं की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए अपनी छोटी-छोटी कई रचनाएं प्रस्तुत कीं। उनकी एक रचना है-
‘आज गद्दीनशीन हैं साहेब,
कालि कउड़ी के तीन हैं साहेब।’
केके सिंह ‘मयंक’ की प्रस्तुति इतनी आकर्षक थी की बस, सब वाह-वाह कर उठे-
‘तासुब्ब के अँधेरों को मिटाएं तो उजाला हो,
कोई दीपक मुहब्बत का जलाएं तो उजाला हो,
ये कैसी शर्त रख दी है चमन के बाग़वानों ने,
कि हम खुद आशियाँ अपना जलाएं तो उजाला हो।’
कनाडा से पधारे प्रोफेसर सरन घई को भी सुनने का अवसर मिला-
‘शादी से पहले हमको कहते थे सब आवारा,
शादी हुई तो वो ही कहने लगे बेचारा,
कुछ हाल यों हुआ है शादी के बाद मेरा,
जैसे गिरा फलक से टूटा हुआ सितारा।’
डॉ शरदिंदु मुखर्जी जितने योग्य और विद्वान् हैं उतने ही सरल भी। ये उनका व्यक्तित्व ही है कि वे कह पाते हैं-
‘सागर का उल्लास कैसा?’
डॉ सूर्य बाली ‘सूरज’ की आयोजन में उपस्थिति ऐसी थी-
‘वो मेरा दोस्त है दुश्मन है न जाने क्या है,
वो मेरी मीत है धड़कन है न जाने क्या है,
क्यूँ जुदा होके भी हर वक्त उसी को सोचूँ,
ये रिहाई है कि बंधन है न जाने क्या है।’
ओबीओ प्रबंधन की सदस्या डॉ प्राची सिंह कहती हैं-
‘आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत,
अंतर्मन के तार पर, गाये मद्धम गीत।’
डॉ अमिता दुबे की रचना यूं सुनने को मिली-
‘बनाया था आशियाना अभी कल की बात है,
सजाया था शामियाना अभी कल की बात है,
कभी खिलते थे फूल गूंजती थी किलकारियां,
घर में नहीं था वीराना अभी कल की बात है।’
सौरभ पांडेय की कलम कहती है-
‘क्या हुआ, शाम से आज बिजली नहीं,
दोपहर से दिखे टैप बिसुखा इधर।
कैलाश निगम नवगीतकारों में प्रमुख स्थान रखते हैं, उनकी अनुभूति है-
‘ये समय है कि सुनहरे पृष्ठ अपने खोल,
कृष्ण की गीता तथागत के सुना फिर बोल,
प्रेम, समता, न्याय की पावन त्रिवेणी का,
एक अमृत-तत्व हर धमनी-शिरा में घोल।’
मधुकर अस्थाना जितने बड़े नवगीतकार हैं, उतने ही बड़े छंदकार भी हैं-
‘ज़िंदगी का भी ज़िंदगी होना,
रौशनी का भी रौशनी होना,
इस जमाने में कहां मुमकिन है,
आदमी का भी आदमी होना।’
ओबीओ के संस्थापक-प्रबंधक और कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गणेश जी बागी भोजपुरी साहित्य के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हर वातावरण और विधा पर इनकी पकड़ है, जरा देखिए-
बार-बार लात खाए, फिर भी ना बाज़ आये,
बेहया पड़ौसी कैसा देखो पाकिस्तान है,
लड़ ले एलान कर, रख देंगे फाड़ कर
ध्यान रहे बाप तेरा यही हिंदुस्तान है।’
कार्यक्रम के अध्यक्ष राम देव लाल ‘विभोर’ जितने बड़े छंदकार हैं, उतने ही बड़े शायर भी हैं-
‘हार-जीत बैरी नहीं, ये आपस में यार,
तभी विजेता जीतकर गले लगाता हार।’
इन सब के बीच शुभ्रांशु पांडेय ने अपनी व्यंग्यात्मक गद्य रचना का पाठ किया, जिसे श्रोताओं ने बहुत सराहा। रचना पाठ करने वालों की बड़ी संख्या थी। केवल एक रचना पढ़ने की सीमा के बावजूद शाम पांच बजे से प्रारंभ हुआ काव्य गोष्ठी क्रम रात करीब दस बजे जाकर थमा। डॉ नलिनी खन्ना, एके दास, एससी ब्रह्मचारी, अनिल ‘अनाड़ी’, सुश्री पूनम, राज किशोर त्रिवेदी आदि ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया। कुछ रचनाकार जो विलंब से पहुंचे तो रचना पाठ नहीं कर पाए। अंत में ओबीओ लखनऊ चैप्टर ने पधारे रचनाकारों का आभार व्यक्त किया है।

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