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जैसे को तैसा

अनिल कुमार मिश्र

गंगाजी के तट पर एक मोर रहता था। उसकी सुंदरता और नृत्यकला अनुपम थी। उस समूचे जंगल में कोई भी मोर उस जैसा नाच नहीं कर सकता था। नीले गगन में जब काले बादलों के तम्बू तन जाते थे, चारों ओर वर्षा के साज सज जाते थे, घन घमण्ड से मृदंग बजाने लगते थे तब वह नाचना शुरू करता था। गंगा के तट पर बहुत से पक्षियों और मोरनियों के मेले लग जाते, यहां तक कि गंगा से निकलकर कछुए और मगर भी उस मोर के नाच का आनंद लेते थे।
मोर को कछुओं से विशेष प्रेम था। उनके राजा से उसकी मित्रता हो गई थी। हर वर्षा ऋतु में सभी उस मोर का नृत्य देखते, अपना-अपना शिकार खोजते और पेट पालते। उनके दिन बड़े आनंद से कट रहे थे।
एक दिन प्रात:काल मोर गंगा मइया के तट पर उदास बैठा था। उसे इस स्थिति में देखकर उसके मित्र कछुओं के राजा ने पूछा - मित्र! आज उदास क्यों बैठे हो? नृत्य प्रारंभ करो।
मोर फिर भी चुप रहा।
'चुप क्यों हो? बोलते क्यों नहीं?'
'क्या बताऊं? अब नृत्य किसी प्रकार नहीं होगा।'
'क्यों?'
'मेरे प्यारे दोस्त! आज मेरा अंतिम दिन है। एक यमदूत मुझे पकड़कर ले जायेगा। तुम लोग सदा के लिए छूट जाओगे।'
कछुओं के राजा ने भारी दिल और भले गले से कहा-- मित्र! ऐसा न होगा। तुम्हें हम अवश्य बचा लेंगे। देखता हूं, कौन तुम्हें ले जा सकता है। तुम चिंता छोड़ दो। मेरे जीते-जी तुम्हें कोई ले न जा सकेगा।
मोर ने मित्र की बात मान ली। वह बड़ी लगन से नाचने लगा। नाच बहुत अच्छा हुआ। क्यों न होता? मोर ने बड़ी लगन से नाच किया था।
इधर नृत्य हो रहा था, उधर एक बहेलिया अपना जाल बिछाने के लिए चला आ रहा था। उसने फुर्ती से जाल बिछा दिया। जाल से बचना बहुत कठिन होता है, साथ ही मोर नाचते-नाचते थक गया था। बेचारा जाल में फंस गया।
बहेलिए ने जाल से मोर को निकालकर बगल में दबा लिया और खुशी के साथ घर की ओर चलने लगा।
एक मित्र का दु:ख दूसरा मित्र कभी नहीं देख सकता। इससे कछुओं का राजा बहेलिए से बोला - अहेरी, इस मोर को छोड़ दो। यह मेरा मित्र है। मैं तुम्हारा बड़ा एहसान मानूंगा।
वह धूर्तता करता हुआ बोला- अजी कच्छपराज! मैं आपके मित्र को छोड़ दूं तो अपने बाल-बच्चों का पेट कैसे भरूं? भूख का प्रश्न बड़ा टेढ़ा होता है। पेट की ज्वाला शांत करना हर एक का धर्म है।
कछुए ने कहा- बस, इतनी-सी बात है?
'हां।'
'अच्छा, मैं तुम्हें एक कीमती चीज भेंट करूंगा।'
'यदि ऐसा कर सको तो मैं तुम्हारे मित्र को तुम्हें सौंप दूंगा।'
कछुओं का राजा तुरंत पानी के भीतर चला गया। उसने गहरी डुबकी लगाई और एक सुंदर लाल लेकर लौट आया। आते ही वह लाल अहेरी के सामने फेंककर बोला - मोर को छोड़ दो।
बहेलिए ने लाल लेकर उलटा-पलटा। कुछ देर चुप रहा फिर बोला- मित्र, इस सुंदर मोर के लिए एक लाल और देना पड़ेगा। सिर्फ एक से काम न चल सकेगा।
'किंतु भाई! आपने एक ही चीज मांगी थी और मैंने उसी के अनुसार यह कीमती लाल तुम्हें भेंट कर दिया।'
बहेलिए ने कछुए के सामने लाल फेंकते हुए कहा- भाई! बहस की क्या आवश्यकता? मैं इसे लिए जा रहा हूं। तुम अपना लाल संभाल लो। यदि इसे लेना है तो दो लाल देने होंगे।
कछुआ बात दे चुका था। उसने बहेलिए से कहा- अच्छा ठहरो भाई! मैं इसी का जोड़ा गंगा मइया से और लिए आता हूं। मेरे मित्र को तुम्हें छोड़ना ही होगा, क्योंकि उसके बिना मेरा जीवन व्यर्थ और नीरस हो जाएगा।
कछुआ फिर गंगा के गर्भ में प्रवेश कर गया। थोड़ी देर में वह लौट आया। अब उसके हाथों में दो दमकते हुए लाल थे।
उसने बहेलिए से कहा - लो भाई! आ गए तुम्हारे लाल। पर एक बात मैं तुम्हें बताए देता हूं कि यदि दोनों लाल एक ही हाथ में लोगे तो तुम्हारा भला न होगा। लो दोनों हाथ बढ़ाओ और इन्हें संभालो।
बहेलिए ने कछुए की बात सुनते ही दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए। हाथ बढ़ाते ही ढील पाकर मोर उड़ गया।
मोर के उड़ते ही कच्छपराज जल के भीतर चले गए और जाते-जाते कह गए- तुम अपनी बात पर नहीं जम सके तो मैं क्या कुछ कम हूं! तुमने एक लिया नहीं, मैं दो दूंगा नहीं। मेरा मित्र तो अब छूट ही गया है। जाओ, मौज करो। 'जैसे को तैसा' मिल गया।

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