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माँ की माया से दोस्ती बेटे को भारी

दिनेश शर्मा

राहुल गांधी-rahul gandhi

नई दिल्ली। सत्रह साल पहले उत्तर प्रदेश में रायबरेली के फुर्सतगंज हवाई अड्डे पर भूरे और नारंगी रंग के छोटे हवाई जहाज की पायलट सीट से एक लड़के को उतरते हुए देख, हवाई पट्टी पर खड़े मीडिया कर्मियों और कांग्रेसियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। ये कौन है? ‘अरे ये तो राहुल है।’ राहुल गांधी खुद हवाई जहाज उड़ाकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री, कांग्रेस के चक्रवर्ती राजनेता और अपने पिता राजीव गांधी को दिल्ली से ला रहे थे। उस समय छोटी सी उम्र में राहुल को हवाई जहाज की पायलट सीट से उतरता देख सब चकित रह गए। तब राहुल अपने ‘पापा’ को ‘कंपनी’ देने के लिए उनके साथ आए थे। आज राहुल गांधी अमेठी के माननीय सांसद और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हैं। राजनीतिक कला-कौशल की असीम संभावनाओं और कांग्रेस के सपनों के इस राजदूत में एक जादू सा है। उनमें आज हर कोई कांग्रेसी अपना राजनीतिक भविष्य ढूंढता और बनाता नजर आ रहा है। इस सबके बावजूद, राहुल के सामने राजीव गांधी वाली कांग्रेस नहीं है। आज की कांग्रेस के इस नए ‘राजनीतिक पायलट’ के सामने घने राजनीतिक कोहरे में सुरक्षित और लंबी उड़ान भरने और उतनी ही सफलता से राजनीति के रनवे पर उतरने की कड़ी चुनौती है।
यूं तो राजनीतिक जिम्मेदारियों में पिता के उत्तराधिकार का शालीनता और गरिमामय नेतृत्व करते हुए राहुल कांग्रेस के महासचिव जैसे बड़े पद के बराबर का काम कर ही रहे थे, किंतु अब उनकी अपने पद के प्रति सीधी जिम्मेदारी है। चतुर राजनीतिज्ञों से घिरे राहुल गांधी ने परिवार से राजनीतिक विरासत में जो पाया है, वह किसी से कम तो नहीं है, लेकिन उन्हें इस समय उस विरासत को अत्यंत सावधानी पूर्वक अपने राजनीतिक कौशल में बदलने की मजबूत रणनीतियों की सबसे ज्यादा जरूरत है। इसके लिए उनके पास अगर कोई भरोसेमंद सारथी हैं तो वह उनकी मां सोनिया गांधी या बहन प्रियंका हैं, जो राजीव गांधी के बाद से राजनीतिक रणनीतियों में दूसरों पर ही निर्भर हैं। ये ‘दूसरे’ वही हैं, जिन्हें दस जनपथ में दखल रखने की छूट है, जो अपने हिसाब से सोनिया गांधी के राजनीतिक भाषण, मुलाकातें और अपने मन की सलाह देते आ रहे हैं। सोनिया और राहुल के पास इस समय जो लोग हैं, उनमें कुछ तो अपने पूर्वाग्रहों, गुटबाजी और सत्ताके खेल में ही मशगूल हैं। इन विश्वासपात्रों और सलाहकारों के राजनीतिक परिणाम अभी तक तो कांग्रेस के खिलाफ ही गए हैं। राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए को पटकनी देने के चक्कर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बसपा अध्यक्ष मायावती से दांत काटी दोस्ती, कांग्रेस और उसके नए खेवैया राहुल गांधी को काफी महंगी साबित हुई है। यही नहीं सोनिया गांधी को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि वह मुलायम सिंह यादव से अपना हिसाब किताब चुकता करने के लिए ताज कॉरीडोर मामले में मायावती को जिस बड़े ‘संकट’ से बाहर निकाल रही हैं, इसका राहुल गांधी के राजनीतिक मिशन पर विपरीत असर पड़ेगा।
राहुल गांधी भी इन्ही सलाहकारों की चपेट में हैं और जैसे उन्होंने कांग्रेस की दुनिया में कदम बढ़ाया है वैसे ही उन्हें पता भी चल रहा है कि असली कांग्रेस तो कोई और है जिसके बारे में राहुल देर से ही सही मगर कारगर फैसले ले सकते हैं। उन्होंने अपनी मां और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र रायबरेली का जटिलतम चुनाव प्रबंध सफलता से संभाला ही था। किंतु वे उप्र विधानसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाए। कारण-इसमें कई स्तरीय दखल और मुलायम सिंह यादव से बदला चुकाने के चक्कर में कांग्रेस का सारा चुनाव प्रबंध बिखर गया। ऐसा ही गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुआ। इसका बसपा और भाजपा ने पूरा लाभ उठाया। आज मायावती कांग्रेस को हर जगह और हर मुद्दे पर निशाना बना रही है और कांग्रेस डरी हुई सी खड़ी देख रही है, जबकि मायावती के आरोपों का उत्तर देने के लिए उसके पास आज बहुत कुछ है। राहुल के कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में आने पर एक समय देश में और खासतौर से उत्तर प्रदेश के दूसरे राजनीति दलों में काफी उथल-पुथल दिखाई दी थी। माना जा रहा था कि राहुल आने वाले समय में प्रतिपक्ष के राजनीतिक दिग्गजों के सामने एक बड़ी राजनीतिक चुनौती पेश करने जा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के कुछ ‘कालनेमियों’ ने ही राहुल की बंद मुठ्ठी खुलवा दी।
दरअसल उत्तर प्रदेश में राजीव गांधी के दौर की कांग्रेस, राहुल गांधी के दौर में नहीं है। सोनिया हों या राहुल गांधी, आज ये दोनों ही यूपी की कांग्रेस के सच से कोसों दूर हैं। यहां के कांग्रेसी ‘अजगर’ अपनी सुविधानुसार इन्हें जो बताते आ रहे हैं, बस वही कांग्रेस है। वे उन्हें अमेठी और रायबरेली में ही देश की कांग्रेस दिखाते रहते हैं। इन सोलह-सत्रह साल में कांग्रेस दूसरों की मोहताज हो गई है। देश पर कभी प्रचंड शासन करने वाली कांग्रेस को आज हर कोई धमका और भरमा रहा है। इसीलिए राजीव गांधी से भी ज्यादा बड़ी और जटिल चुनौतियां राहुल गांधी के सामने हैं। राहुल गांधी ऐसे नेता हैं जिनके सामने एक स्वयंवर का सा माहौल है और इनको मछली की आंख नहीं बल्कि पुतली भेदने का लक्ष्य दिया गया है। पिछले साल के अंत में दिल्ली में हुए कांग्रेस अधिवेशन में राहुल गांधी इसका ‘अभ्यास’ करते दिखाई भी दिए।
राहुल गांधी ने देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव के बड़े-बड़े उतार-चढ़ाव और लोमहर्षक तनाव अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही अपनी नजरों से देखें और महसूस किये हैं। पिता ने उन्हें बहुत पहले ही अपनी पायलट सीट पर बैठाकर उनमें ‘साहस’ और ‘जोखिम’ का पाठ सिखा दिया था। बाकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका से उन्होंने जीवन के कड़वे सच और अत्यंत विषम स्थितियों में रहना सीखा है। सत्रह साल पहले पिता का हवाई जहाज उड़ाते देखकर कुछ संवाददाताओं ने राहुल से प्रश्न किया था कि क्या वे अभी से राजनीति में आ रहे हैं, तो बहुत कुरेदने पर उनका छोटा सा जवाब था कि ‘वह तो अभी पढ़ रहे हैं और खेल रहे हैं।’ उन्होंने उस समय भी राजनीतिक प्रश्न का बड़े
कुशलता भरे अंदाज में उत्तर दिया था। इस संवाददाता को आज भी अच्छी तरह याद आ रहा है कि राहुल गांधी को गौरीगंज में पिता की जनसभा के गलियारे में संवाददाताओं के सवालों ने घेर लिया तब उनका छोटा सा उत्तर था कि वह ‘पापा को कम्पनी देने आये हैं’ उस वक्त भी बहुत से संवाददाता उनसे एंकर नहीं ले सके।कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भले ही राहुल की क्षमताओं को व्यक्त करने में संकोच करती रही हों और राहुल पर मीडिया के सवालों पर चुप्पी मार जाती रही हों, मगर कांग्रेस और दूसरे दलों के नेता जानते हैं कि राजीव गांधी के इस उत्तराधिकारी में राजनीति की असाधारण कुशलता है, जिसका ठीक से उपयोग नहीं हो पा रहा है। कहने वाले कहते हैं कि उन्हें बाहरी आतंकवादियों से ज्यादा कांग्रेस के भीतर घुंसे ‘कालनेमियों’ से बचकर रहने की जरूरत है।
अमेठी या रायबरेली दौरे में उनकी गाड़ी के स्टेयरिंग पर बैठते आ रहे उनके पारिवारिक सदस्य कैप्टन सतीश शर्मा कहा करते हैं कि उन्हें राहुल और राजीवजी की रणनीतियों में कोई फर्क नहीं दिखता। रायबरेली के लोकसभा उप चुनाव में अपनी मां सोनिया गांधी का चुनावी प्रबंध संभालते हुए उन्हें पूरे देश ने देखा और जटिल स्थितियों में मीडिया के उलटे-पुलटे उलझाने और चिढ़ाने वाले सवालों का कुशलता से सामना करते हुए भी देखा। विपक्ष के बेतुके आरोपों का उत्तर देने में उन्होंने जो धैर्य और राजनीतिक परिपक्वता दिखाई वह हर किसी युवा नेता में दिखायी नहीं देती है। इस समय देश में जबरदस्त राजनीतिक घमासान है और दिग्गज राजनेताओं की अहंकार भरी बोलियां बोलने की प्रतियोगिता से राहुल गांधी बहुत दूर दिखाई देते हैं। देश में लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है और कांग्रेस के पास राहुल गांधी के अलावा कोई चमत्कारिक कार्ड भी नहीं है। अब देखना यह है कि कांग्रेस के महासचिव और युवा मामलों के प्रभारी की नई भूमिका में राहुल गांधी का और आगे का राजनीतिक प्रदर्शन कैसा रहता है, क्योंकि राहुल का असली मुकाबला उत्तर प्रदेश में है, मायावती के नए राजनीतिक कार्ड ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ से है।

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