स्वतंत्र आवाज़
word map

विकास में बाधक है नौकरशाही असमंजस

एक अच्‍छे सुधारक हैं पी चिदंबरम-प्रधानमंत्री

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Thursday 1 August 2013 09:20:53 AM

manmohan singh, p. chidambaram and montek singh ahluwalia

नई दिल्‍ली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्‍ली में पी चिदंबरम पर एक पुस्‍तक का विमोचन किया। पी चिदंबरम के सम्‍मान में लिखे गए लेखों के संग्रह के रूप में इस पुस्‍तक में भारत के विकास की रूपरेखा प्रस्‍तुत की गई है, इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने वित्‍त मंत्री पी चिदंबरम की प्रशंसा करते हुए कहा कि पुस्‍तक के लेखक स्‍कोच फाउंडेशन के समीर कोछड़ और इसमें सम्‍मानित विशेषज्ञ ने अनेक श्रेष्‍ठ निबंध लिखे हैं, मैंने नोटिस किया है कि चिदंबरम के बारे में जिन तारीख़ों का विवरण दिया गया है, वह 1991 से संबंधित है, जब वह हमारे वाणिज्य मंत्री थे और हमारी व्‍यापार नीति में अनेक सुधार प्रस्‍तुत कर रहे थे। मैं उन्‍हें इससे पहले भी एक सुधारक के रूप में जानता था।
सन् 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्‍हें कार्मिक विभाग में राज्‍य मंत्री और बाद में आतंरिक सुरक्षा का मंत्री नियुक्‍त किया था, इन दोनों ही चिदंबरम ने सुशासन की प्रक्रिया के दौरान सुधारों की अगुवाई की। राजीव गांधी के मार्गदर्शन में उन्‍होंने नौकरशाहों के लिए एक मिड कैरियर प्रोग्राम की शुरूआत की, उन्‍होंने आईआईएम और अन्‍य शिक्षण एवं अनुसंधान संस्‍थानों में काम कर रहे अधिकारियों के लिए इस कार्यक्रम का प्रारंभ किया। उन्‍होंने कहा कि अनेक नौकरशाहों ने मुझे बताया था और जानकारी दी थी कि किस प्रकार थोड़े समय के लिए वह शिक्षण संबंधी अध्‍ययन में लौटे और इस अनुभव से उन्हें जबरदस्त लाभ हुआ। चिदंबरम और मैं नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में साथी थे, उस समय मैं वित्‍तमंत्री था और 1990 में आर्थिक सुधारों की शुरूआत की गई। मुझे याद है कि जब भी इस कार्यक्रम की आलोचना होती थी, केंद्रीय मंत्रिमंडल में और बाहर राजनीतिक मंचों पर भी इन आर्थिक सुधारों की चिदंबरम जबरदस्त पैरवी किया करते थे।
शिक्षा से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने भारत में आर्थिक सुधारों के बारे में काफी लिखा है, वह यह चाहते थे कि यह प्रक्रिया तकनीकी सिफारिशों के अनुसार मंजूर कर ली जाए, जिसकी अर्थशास्‍त्री काफी दिनों से वकालत कर रहे थे, लेकिन व्‍यावसायिक सहमति बन जाने से ही आर्थिक सुधार सफल नहीं हो जाया करते, वे तब सफल होते हैं, जब इन उपायों का समकालीन राजनीतिक नेतृत्‍व समर्थन करने का फैसला करता है। लोकतंत्र में सुधार चाहे वह आर्थिक नीतियों के हों या संस्थानों के-ये मूल रूप से राजनीतिक प्रक्रियाएं होती हैं। हमें उन नीतियों के पक्ष में पर्याप्‍त मात्रा में राजनीतिक सह‍मति बनानी पड़ती है, जिन्‍हें हम अपनाना चाहते हैं। इनके लिए सिर्फ लोकतांत्रिक बहुमत होना काफी नहीं होता, क्‍योंकि पार्टियों के अंदर भी मत भिन्‍नता होती है। आर्थिक सुधार वे ही सफल होते हैं, जो समाज के एक पूरे वर्ग के लिए जरूरी होते हैं और वह वर्ग इन नीतियों की जरूरत समझे और उन्‍हें मंजूर करे और इस परिवर्तन को कोई सरकार शुरू करे।
सन् 1991 के आर्थिक सुधार एकाएक ही शुरू नहीं हो गए, 1980 के दशक के उत्‍तरार्ध में इस दिशा में कांग्रेस सरकार और उसके नेतृत्‍व राजीव गांधी ने काफी प्रयास किए, 1990 के कांग्रेस चुनाव घोषणा पत्र में भी कड़ा सुधार संदेश था, 1991 में जब कांग्रेस सरकार का गठन किया गया तो प्रधानमंत्री नरसिम्‍हा राव के नेतृत्‍व में इन सुधारों के पक्ष में समर्थन पर्याप्‍त महत्‍वपूर्ण था,1996 के बाद एक गैर कांग्रेसी सरकार आई, जिसे वामपंथी मोर्चे का समर्थन था। इसका नेतृत्‍व देवेगौड़ा कर रहे थे, जिसे बाद में आई के गुजराल ने संभाला। सन् 1991-96 के दौरान जिन नीतियों को लागू किया गया, उन्‍होंने इनमें से कई सुधारों को पीछे कर दिया और कई सुधारों को आगे बढ़ाया, इस बात ने चिदंबरम को केंद्रीय वित्‍तमंत्री के रूप में जरूर काफी मदद की होगी। संयुक्‍त मोर्चे की सरकार ने इस नीति को जारी रखने में सहायता की, लेकिन मैं भी इस विचार के पक्ष में हूं कि इससे इस तथ्‍य की भी झलक मिलती है कि घोर असह‍मति और बहस के नीचे वह तथ्‍य होता है, जो लोकतंत्र की खास बात माना जाता है, वह है सहमति का धीरे-धीरे विकास। इस पुस्‍तक के एक निबंध में मोंटेक सिंह अहलुवालिया के 1991 के व्‍यापार संबंधी नीतिगत सुधारों में चिदंबरम की महत्‍वपूर्ण भूमिका के विवरण दिए गए हैं। उस समय वे चिदंबरम के वाणिज्‍य सचिव होते थे, अत: जो उन्होंने विवरण दिया है, वह आतंरिक परिदृश्‍य का परिचायक है और दिखाता है कि चिदंबरम ने जिस व्‍यापार नीति में सचमुच ही नाटकीय परिवर्तनों की शुरूआत की थी, वे कितने महत्‍वपूर्ण थे, यह एक सच्‍चाई है कि पहली बार आर्थिक मंत्रालय का प्रभार संभालने के कुछ ही हफ्तों के अंदर उन्‍होंने व्‍यापार नीति में महत्‍वपूर्ण ऐसे परिवर्तन किए जिनकी शिक्षाशास्‍त्री वर्षों से हिमायत करते आ रहे थे।
मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने इस अनुभव से छह बातें सीखीं जो आज भी सार्थक हैं, इन सीखों की फिर से चर्चा करना उपयोगी होगा। पहला तो यह है कि जब भी सुधार किए जाते हैं, मंत्रियों को अपने विवेकाधिकार को उन अधिकारों के पक्ष में छोड़ने को तैयार रहना चाहिए। मोंटेक ने ठीक ही कहा था कि चिदंबरम का विवेकाधिकार छोड़ने के लिए राज़ी होना सचमुच की महत्‍वपूर्ण था। दूसरा-नए उपायों की शुरूआत करते हुए नेतृत्‍व को राजनीतिक जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिए। तीसरा-नौकरशाही असमंजस को विकास और राजनीतिक नेतृत्‍व के रास्‍ते में बाधा नहीं बनना चाहिए। यह बात इसी से स्‍पष्‍ट है कि वह क्‍या करना चा‍हता है। चौथा-ऐसे परिर्वतन लाना तब आसान हो जाता है, जब पहले उस पर काफी चर्चा कर ली जाए और उस पर पर्याप्‍त रूप से सहमति बन जाए। पांचवां-सुधारों के बारे में एक संपूर्ण रवैया अपनाया जाना चाहिए, टुकड़े-टुकड़े के प्रयास करने से काम नहीं बनेगा और आखिर में हमारे तंत्र में जब भी फैसला किया जाए तो जल्‍दी से कार्रवाई करने की क्षमता होनी चाहिए। उन दिनों आयात नीति पर वाणिज्‍य मंत्री, वित्‍तमंत्री और प्रधानमंत्री के अनुमोदन की जरूरत थी। यह सचमुच ही वाणिज्‍य मंत्री चिदंबरम की अद्भुत क्षमता थी कि वह 24 घंटे के अंदर सभी अनुमोदन प्राप्‍त कर सके। ये बातें आज भी सार्थक हैं, क्‍योंकि हम लोग एक महत्‍वपूर्ण मोड़ पर आ गए हैं। पिछले दशक के दौरान हमने देखा है कि भारत एक नई ऊर्जा से ओत-प्रोत हो रहा है। इस संबंध में चर्चा करना महत्‍वपूर्ण होगा।
पिछले दशक के दौरान जब देश की अर्थव्‍यवस्‍था में 1991 में शुरू किए गए सुधारों के सभी लाभ स्‍वीकार कर लिए, अर्थव्‍यवस्‍था लगभग 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी। हमारी विकास दर 2012-13 में धीमी होकर 5 प्रतिशत पर पहुंच गयी, लेकिन हमें इस बात को लेकर निराश होने की जरूरत नहीं है और यह भी सोचने की भी जरूरत नहीं है कि हम फिर से पुराने ढर्रे पर आ गए हैं। पिछले कुछ वर्ष भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चुनौतीपूर्ण रहे हैं। हमें इसे अल्पावधि का और धीमी गति वाला संक्रमण काल समझना चाहिए। हमारी सरकार ने एक बार फिर गति में तेजी लाने का फैसला किया है। एक बार फिर हम उन लोगों को गलत साबित करेंगे, जो हमेशा निषेधात्‍मक बातें करते हैं और निराशाजनक परिणामों की चर्चा करते हैं। भारत को तेज विकास के रास्‍ते पर लाने की नीतिगत रूपरेखा 12वीं पंचवर्षीय योजना में दी गई है। इसके अनेक महत्‍वपूर्ण अंशों पर इस पुस्‍तक के अनेक लेखों में व्‍यापक चर्चा की गई है। हमें उन अर्थशास्‍त्र संबंधी असंतुलनों से निपटना है, जो रास्‍ते में आड़े आ गए हैं। इनमें से प्रमुख चुनौतियां हमें ऊर्जा, जल और जमीन वाले खंडों में मिलेंगी। आज जो बड़ी परियोजनाएं रुकी हुई हैं, उनमें मूल सुविधा एक बड़ी बाधा है। मंत्रिमंडल की निवेश संबंधी समिति जिसे हमने स्‍थापित किया है, वह नौकरशाही विलंब के खिलाफ एक तंत्र प्रदान करती है। शहरीकरण एक नई चुनौती है, जिस पर हमें ज्‍यादा ध्‍यान देने की जरूरत है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]