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वनराज के साम्राज्य पर तस्करों का हमला!

दुधवा पार्क के हमलावरों को कहां तक मिलता है संरक्षण?

स्थानीय प्रशासन की नाक के नीचे होता है यह 'क़त्लेआम'

उमाशंकर पटवा

उमाशंकर पटवा

बाघ-tiger

दुधवा (लखीमपुर खीरी)। उत्तर प्रदेश में वन माफियाओं और वन्य प्राणियों के तस्करों और हत्यारों के सामने सारे कानून तौबा कर रहे हैं। दुधवा में वनराज के साम्राज्य पर तस्करों के लगातार हमलों को कोई रोक नहीं पा रहा है। यकीन नहीं हो रहा हो तो दुधवा नेशनल पार्क आइए और खुद देखिए! शक्ति और शौर्य के प्रतीक बाघ और उन्हें प्राकृतिक संरक्षण देने वाले घने वन भी दुधवा नेशनल पार्क से गायब हो रहे हैं। अभी ही की बात है, तस्कर शिकारियों ने दुर्लभ तेंदुए के दो नवजात शावकों से उनकी माँ छीन ली। रो-चिल्लाकर बदहवासी में अपनी माँ को ढूंढते फिर रहे भूखे-प्यासे ये शावक, पास के गांववालों के हाथ लगे, जिन्हें लालन-पालन केलिए लखनऊ के प्राणि उद्यान यानी चिड़ियाघर भेजा गया है।
लखीमपुर खीरी जनपद के वन्यजीवों और वनों से समृद्धशाली दुधवा अभ्यारण्य में वनराज और वन्य प्राणियों का कभी चुनौतीविहीन साम्राज्य हुआ करता था, मगर आज यहां राजनीतिज्ञ, वन माफियाओं और वन्य प्राणियों के हत्यारों और तस्करों का राज चलता है। इनके खिलाफ बोलने वालों को वन माफिया गुंडों और पुलिस से पिटवाते हैं, मरवाते हैं और उल्टे जेल भिजवाते हैं। पुलिस यहां बेज़ुबानों पर कहर टूटता देखती है और वन के अधिकांश सिपाही या तो मूकदर्शक होते हैं या उच्चादेशों की प्रतीक्षा में असहाय से खड़े होते हैं। दुधवा के इस बियावान में वन्यप्राणियों के प्राकृतिक परिवासों में इनके परिवारों की हलचल देखने और किलकारियां सुनने शायद ही कोई पहुंच पाए, अलबत्ता उनके पेशेवर हत्यारे अपनी सूंघने की शक्ति से वहां का सारा पता रखते हैं, इसलिए अब यह कभी सुनने को नहीं मिलता है कि 'वन की महारानी' ने कब और कहां 'वन के राजकुमारों' को जन्म दिया और कब वे हत्यारे तस्करों की भेंट चढ़ गए।
उत्तर प्रदेश राज्य का वन और वन्य जन्तु संरक्षण विभाग भले ही दुधवा में अभी भी बफर वन और कम से कम सौ टाइगर्स होने का दावा कर रहा है, पर सच तो यह माना जाता है कि अगर वहां पचास टाइगर भी बचे हों तो यह बड़े संतोष की बात होगी। बाघ और दूसरे बचे-खुचे वन्य प्राणियों के शिकार और ठिकानों पर तस्करों का जाल बिछा है, जिससे अपनी जान बचाते, भूखे-प्यासे ये वन्यप्राणी, शिकार की तलाश में मानव आबादियों में घुसने लगे हैं। दुधवा के दुर्लभ वनों को काटने का काम अभी तक तो तस्कर ही कर थे, लेकिन आप हैरत में पड़ जाएंगे कि दुधवा की सुरक्षा में लगे सुरक्षाबलों के कुछ लोग भी खुले आम यहां से कीमती लकड़िया ढो रहे हैं। लखीमपुर खीरी के स्थानीय प्रशासन और वन अधिकारियों की मिलीभगत से दुधवा के बेशकीमती वन का एक बड़ा हिस्सा वन माफिया साफ कर चुके हैं। यहां के अधिकांश समृद्धशाली वन क्षेत्र कटान के बाद युकेलिप्टिस से भर दिए गए हैं, राज्य सरकार यह सच किसी से भी दिखवा सकती है। यही हाल रहा तो जल्दी ही बाकी वनों का भी खात्मा हो जाएगा और फिर वह समय आएगा, जब हमारी आने वाली पीढ़ी केवल किताबों और संग्रहालयों में अपनी वन और वन्य संपदा को खोजती फिरेगी।
दुधवा कभी अत्यंत समृद्धशाली बफर वन क्षेत्र हुआ करता था, मगर आज नहीं है। वन्यप्राणियों की बात हो रही है तो सबसे पहले यहां हर साल बाघों की गिनती होती है और 100 से ज्यादा बाघों की मौजूदगी के आंकड़े फिट कर दिए जाते हैं। दुधवा नेशनल पार्क में दूर-सुदूर से आनेवाले ज्यादातर सैलानी केवल स्वच्छंद विचरण करते हुए बाघ को करीब से देखना चाहते हैं। आप बहुत किस्मत वाले कहलाएंगे, यदि आपको दुधवा में बाघ के दर्शन हो गए। ज्यादातर सैलानियों का तो यही कहना होता है कि अप्रैल मई जून में भी उन्हें दुधवा में कई दिन रुककर, पोखरों और घने जंगलों में गुजरने वाले खतरनाक रास्तों की खाक छानकर भी बाघ नहीं दिखा। सैकड़ों साल पुराने विशालकाय पेड़ भी अब उतने नहीं दिखते हैं, जिन स्थानों पर बाघ के पाए जाने की संभावना होती है। दुधवा में प्राकृतिक एवं कृत्रिम जल स्रोत और मचान हैं। सूर्योदय के पूर्व का समय और दोपहर तीन बजे के बाद या फिर रात्रिकाल ही ऐसा होता है, जब बाघ अपने शिकार या भ्रमण के लिए निकलता है, मगर कभी को छोड़कर बाघ नज़र नहीं आ रहे हैं। कहीं-कहीं बाघ के पदचिन्ह देखकर ही खुश हुआ जा सकता है।
दुधवा के आसपास के लोगों की ही बात सच लगती है, जो कहते हैं कि अब यहां उतने ‘बाघ-वाघ’ नहीं हैं, जितनों के होने का प्रदेश का वन्य जंतु प्रतिपालक विभाग दावा करता रहता है। कभी यहां बाघ हुआ करते थे, मगर ज्यादातर तस्करों का शिकार बन चुके हैं। इनका शिकारी गिरोह कौन है, यह वनक्षेत्र के अधिकारियों और पुलिस से ज्यादा कोई नहीं जानता। लोग बताते हैं कि बाघों के हत्यारों के लिए नेपाल की सीमा बहुत आदर्श है। पुलिस चेकपोस्ट पर तैनात अधिकारियों से इन तस्करों से गहरी मिली-भगत रहती है। आज से नहीं बल्कि लंबे समय से बहराइच एवं लखीमपुर खीरी की पुलिस और वन अधिकारियों-कर्मचारियों के तस्करों से मधुर संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। तस्कर इनके अधिकारियों और क्षेत्रीय प्रभावशाली नेताओं तक सीधी पहुंच रखते हैं जो उनके हिसाब से थानेदारों एवं गश्ती पुलिस की तैनाती तक करते और कराते हैं।
एक जानकारी यह भी है कि तस्करों को अब दुधवा के कुछ थारुओं से भी संरक्षण मिलने लगा है। इनकी आर्थिक स्थिति और रहन-सहन में पिछले कुछ ही वर्षों में अचानक आए सुधार को इसीसे जोड़कर देखा जा रहा है। दुधवा के जंगलों में आने वाले सैलानियों को देखकर जो थारु अपनी हट में छिप जाया करते थे, अब वे उनका स्वागत करते हैं। सैलानियों के भेष में तस्कर उनका खूब लाभ उठाते हैं, बदले में थारुओं की वे आर्थिक मदद करते हैं। यह इसलिए कि थारु ही जंगल में निर्भय होकर घूमने और वन्यप्राणियों के बीच रहने में माहिर हैं और वे बाघ जैसे शक्तिशाली वन्यप्राणी की हर गतिविधि से वाकिफ होते हैं। उन्हें मालूम है कि कहां कौन सा वन्यप्राणी होगा और उसे कैसे गिरफ्त में लिया जा सकता है। इसमें वन विभाग के भी कई लोगों की संलिप्तता होती है जो इस सवाल से भी भागते हैं कि दुधवा के साल के घने और समृद्धशाली वन कहां जा रहे हैं? दो भागों में बंटे 884 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 190 वर्ग किलोमीटर का यहां बफर वन है जो दुधवा के इस वनप्रांत को जैविक दबाव से बचाता आया है। इसका दूसरा भाग किशनपुर वन्यजीव विहार है जो 204 किलोमीटर वर्ग में फैला हुआ है। यहां पर बाघ, तेंदुआ, भालू, बारासिंगा सहित सैकड़ों वन्य प्रजातियां और रंगबिरंगे पक्षियों के परिवार रहते आए हैं।
दुधवा नेशनल पार्क में घने वनों के बीच और जगह-जगह पर हरी मखमली सी घास के मैदानों में हिरण बारासिंगा और उनके परिवार हवा में कुलांचे भरते हुए दिखाई देते हैं। बारासिंगा तो केवल दुधवा में ही दिखाई देते हैं जो इतनी संख्या में धरती पर अन्य कहीं पर नहीं हैं। यहां के घास के मैदानों के बीच कई छोटे-बड़े प्राकृतिक या विकसित किए गए झीलनुमा तालाब, नदी-नाले हैं, जहां कभी सैकड़ों प्रजातियों की मछलियां हुआ करती थीं। इन्हीं झीलों पर प्रवासी पक्षी भी देश-विदेश से यहां आते हैं, मगर अब उनकी संख्या भी ज्यादा नहीं दिखती है। भारतीय गेंडों को भी यहां संरक्षित किया गया है, लेकिन दुधवा आज वन्यप्राणियों के निर्मम हत्यारों और तस्करों के लिए ही आदर्श अभ्यारण्य माना जा रहा है। यहां एक और तथ्य ग़ौरतलब है कि क्या यह संभव है कि केवल स्थानीय प्रशासन ही दुधवा और उसकी संपदा में अराजकता के लिए जिम्मेदार है? जवाब है कि ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि यह सभी दृष्टि से एक अति विशिष्ट अभ्यारण्य क्षेत्र है और लखीमपुर खीरी जनपद में अधिकारियों की पदस्थापना में मुख्यमंत्री कार्यालय भी दिलचस्पी रखता है, लिहाजा वहां तक पहुंच रखने वाले ही यहां पदस्थापित होते आए हैं, यह पसंद आज भी जारी है, तब यह समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि दुधवा के हमलावरों के संरक्षक कहां तक हैं, इसलिए स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों को भी यहां की लूट-खसोट में और क्या चाहिए?

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