स्वतंत्र आवाज़
word map

मुलायम ‌​सिंह यादव कितने सफल हैं? आप तय करें!

मुस्लिम तुष्टिकरण, कुनबापरस्ती, जातिवाद और भ्रष्टाचार बनी पहचान

अखिलेश यादव की सरकार पर भी अभी से ही लगे पिताश्री जैसे दाग़

Sunday 02 June 2013 11:12:27 AM

दिनेश शर्मा

दिनेश शर्मा

mulayam singh yadav (file photo)

नई दिल्ली। मुलायम सिंह यादव। धर्मनिरपेक्षता के छद्मावरण में सांप्रदायिकता, मुस्लिम तुष्टिकरण और जातिवाद का एक चेहरा, जिसमें कुनबापरस्ती से लेकर क्षेत्रवाद और दग़ाबाज़ी के भी सभी अक्स साफ-साफ दिखाई देते हैं। हर कोई कहता है कि इन्हें सांप्रदायिक तनाव बड़ा ही रास आता है, क्योंकि इसके सिर उठाते ही इनको कुछ समय तक उन मुद्दों से छुट्टी मिल जाती है, जो विकास के नाम पर या लोगों की अपेक्षाओं, झूंठे वादों और महत्वाकांक्षाओं के कारण इन्हें बहुत दुःखी करते हैं। राजनीति से अनजान लोग भी कहने लगे हैं कि मुलायम सिंह यादव अब समाजवाद का रास्ता छोड़कर मुस्लिमपरस्त सांप्रदायिक राजनीति पर उतर आए हैं, जिसे वे धर्मनिरपेक्ष राजनीति कह रहे हैं, वास्तव में वह जातीय और सांप्रदायिक आधारित विघटन और विध्वंस है। मुलायम सिंह यादव सरकार का कोई भी कार्यकाल ऐसा नहीं है, जिसमें उत्तर प्रदेश में घोर सांप्रदायिक दंगे ना हुए हों। इन्हीं की नीतियों से चल रही राजपुत्र अखिलेश यादव की पहली सरकार में ही दो दर्जन से ज्यादा सांप्रदायिक दंगों, झड़पों, तनाव और हत्याओं का सप्रमाण इतिहास एक खुली सच्चाई है। अखिलेश यादव से पिताश्री सरकार की दाग़दार छवि सुधारने की जनसामान्य में कुछ आशाएं बंधी थीं, मगर यह बंद मुठ्ठी भी खुल गई है।
उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री हुए, धरतीपुत्र कहलाए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को कौन नहीं जानता कि अपनी राजनैतिक उच्च महत्वाकांक्षाओं, अनैतिक और बेमेल गठबंधनों एवं ऐसी ही अनेक कमजोरियों के वशीभूत कभी वे भाजपा के हिंदूवादी नेता कल्याण सिंह के साथ हुए हैं, तो कभी दिल्‍ली की जामा-मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी के आगे-पीछे दिखाई देते हैं। कभी सत्ता के संताप में आजम खां के साथ बैठकर रोते दिखाई दिए हैं तो कभी सत्ता के लालच में दलित वोटों के लिए बसपा के संस्‍थापक अध्यक्ष कांशीराम को इटावा से लोकसभा चुनाव लड़वाते हैं और जब मतलब निकला या राजनैतिक सौदेबाज़ी में खट-पट हुई तो उस समय अपनी ही सहयोगी बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के साथ मीराबाई स्टेट गेस्ट हाउस लखनऊ में बैठे उनके विधायकों को भी जबरन उठवाते है। आज वे मायावती पर अपराधियों और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का आरोप लगाते हैं और खुद इन सबके आदर्श और सूत्रधार माने जाते हैं, जब अटकती है तो अदालत में जाकर गिड़‌िगिड़ाते हैं, अदालत के फैसले का सम्मान करने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और मुस्लिम वोटों के लिए किसी भी स्तर पर जाकर श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसे संवेदनशील मामले में कोर्ट के फैसले पर आक्षेप भी लगाते हैं।
मुलायम सिंह यादव भाजपा नेता लालकृष्‍ण आडवाणी को ईमानदार और अच्छा व्यक्ति कहकर उनकी तारीफ करते हैं जबकि सपा के ही राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय प्रवक्ता ‘नोएडा एवं ग्रेटर नोएडा के मुख्यमंत्री’ भी कहलाने वाले भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एवं उनकी सरकार को अच्छी सरकार मानते हैं। कहने को समाजवादी डॉ राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण उनके और उनके परिवार के बड़े ही परमपूज्य आदर्श हैं और परिवारवाद, क्षेत्रवाद एवं जातिवाद से इनकी सुबह शुरू होती है। एक ज़माने में इनकी और कांग्रेस नेता बलराम सिंह यादव के बीच इटावा, मैनपुरी और ऐटा में जानलेवा राजनैतिक जंग में और गहरे दोस्त दर्शन सिंह यादव से नाराजगी होनेभर से न जाने कितने बेकसूर परिवार नाहक ही उजड़ गए हैं। आज भी इन इलाकों में इनकी खूनी रंजिशों की चर्चा होती है। इसलिए आप तय करें कि मुलायम सिंह यादव की असली राजनीति और नीति क्या है और किस दिशा में है? उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस में कोई दम नहीं था और मायावती के खिलाफ जनलहर थी। जनता को मायावती पर गुस्सा उतारने केलिए सपा के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिखा, जिससे समाजवादी पार्टी सत्ता में आई।
मुसलमान कह रहे हैं कि उनके ही कारण सपा यूपी की सत्ता में आई है, यही बात मुलायम सिंह यादव भी कई बार कह चुके हैं, तो मुस्लिम तुष्टीकरण को समझने के लिए और क्या सबूत चाहिए? वे मानते हैं कि मुस्लिम तुष्टिकरण और बेरोज़गारों को लैपटॉप, भत्तों एवं लालबत्ती में फंसाए रखकर उनसे वोट की भीख मंगवाना ही समाजवादी पार्टी को राजनीतिक लड़ाई और सत्ता में बनाए रख सकता है, इसीलिए आज धरतीपुत्र और उनके पुत्र अखिलेश यादव ऐसा कर रहे हैं एवं बहुसंख्यकों की घोर उपेक्षा करके वोटों के लिए मुसलमानों के पीछे चल रहे हैं। जिन्हें बसपा से खौफ है और सत्ता के बिना नहीं रह सकते, वे अपनी गरज़ में सपा के दरवाज़े पर खड़े हैं। इस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति और नियति में सत्ता का खेल बिल्कुल साफ है। धर्मनिरपेक्षता के नामपर बेहद उकसाए, भाजपा से डरे, कई फिरकों में बंटे और सत्ता के पीछे भागते अधिकांश मुसलमानों की इस स्थित का लाभ उठाते हुए सपा ने इस बार और भी ज्यादा खतरनाक सांप्रदायिक आधार पर अपने राजनीतिक एजेंडे तय किए हुए हैं। मुसलमानों के सामने नरेंद्र मोदी-नरेंद्र मोदी के प्रायोजित भयावह शोर का उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लाभ समाजवादी पार्टी को ही मिलने की उम्मीद पाले मुलायम सिंह यादव के सत्ता प्रतिष्ठान ने मिशन 2014 में सफलता प्राप्त करने के लिए मुसलमानों के लिए जो रणनीति अपनाई हुई है, उसके विभिन्न और वीभत्स रूप आपके सामने हैं।
सपा सरकार ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों लिए ठेके जैसी सरकारी योजनाओं में 18 प्रतिशत आरक्षण भी घोषित कर दिया है। पुलिस बल जैसी भर्तियों में मुस्लिम तुष्टिकरण योजना की अभी से खूब चर्चा है। सपा सरकार में भेदभाव पूर्ण नीतियां अपनाते हुए मुसलमानों के लिए एक के बाद एक जो घोषणाएं की जा रही हैं, उनका नकारात्मक असर अखिलेश सरकार की कार्यप्रणाली, सपा विधायकों में रोष के रूपमें, प्रदेश के सांप्रदायिक भाईचारे, शासन व्यवस्था और कानून व्यवस्‍था पर बिल्कुल साफ दिख रहा है। एक तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो बहुजन समाजवादी पार्टी की नेता मायावती भी राज्य में मुस्लिम तुष्टिकरण, जातीय राजनीति से अलग हटकर कभी नहीं चली हैं, वह दलित-मुस्लिम गठजोड़ को सत्ता का एक मजबूत कारक मानती हैं, इसलिए उनकी सरकार में भी मतलब परस्त मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर लाभ उठाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है, लेकिन मुलायम सिंह यादव की तरह से मायावती मुस्लिम राजनीति के दबाव में कभी नहीं देखी गईं। उन्होंने मुसलमानों का कभी कोई भी दबाव कतई मंजूर नहीं किया। मायावती के राजनीतिक फैसलों पर नज़र डालें तो उत्तर प्रदेश में कोई भी मुसलमान नेता ऐसा नहीं है, जिसने मायावती के सामने अकड़कर चलने की हिम्मत दिखाई हो। मायावती ने जिसको चाहा ऊपर उठाया है और जिसे चाहा जमीन पर पटक दिया है, जबकि जामा मस्जिद दिल्ली के इमाम अहमद बुखारी और मोहम्मद आज़म खां जब चाहा अखिलेश मुलायम को सर-ए-आम मुसलमानों की धौंस देकर हड़काते-दौड़ाते गुर्राते हैं और मुलायम का कुनबा इनके सामने घुटने टेकता गिड़गिड़ाता और 'पैकेज' देता नज़र आता है।
मुलायम सिंह यादव के एजेंडे में अभीतक उत्तर प्रदेश की मुसलमान राजनीति थी, अब उसमें कश्मीर और पाकिस्तान की राजनीति भी शामिल हो गई है। दूर देश के इमामों, दरगाहों और मुस्लिम धर्मगुरुओं का आशीर्वाद लिया जा रहा है और परशुराम जयंती पर सपा मुख्यालय पर ब्राह्मणों के सम्मेलन में तिलकधारी भगवाधारी ब्राह्मणों के शंख और घड़ियाल बजने की आहट पाकर मुलायम सिंह यादव दिल्ली जाने के बहाने गायब हो जाते हैं कि कहीं भगवा रंग देखकर या उन्हें भाजपा से जोड़कर मुसलमान नाराज न हो जाएं? विचारणीय प्रश्न है कि मायावती तो उत्तर प्रदेश में भाजपा से मिलकर सरकार बना चुकी हैं, तबभी मुसलमान बसपा से जुड़े हुए हैं, मायावती सरकार में एक भी सांप्रदायिक दंगा भी नहीं हुआ, जबकि अखिलेश सरकार में थोड़े ही समय में उत्तर प्रदेश में अबतक दो दर्जन से ज्यादा गंभीर सांप्रदायिक घटनाएं घट चुकी हैं, आएदिन सांप्रदायिक और जातीय झड़पों की तो कोइ गिनती ही नहीं है। बाराबंकी में पुलिस सुरक्षा में ले जाए जा रहे और अचानक अपनी ही मौत मरे खालिद की मौत को हत्या बताया जा रहा है और अखिलेश सरकार इसका सामना करने के बजाय पुलिसवालों पर मुकद्में दर्ज कर अपने बचाव के रास्ते ढूंढ रही है? अखिलेश सरकार के शुरूआती छह माह में ही सात दंगे हो चुके थे, जो एक साल होते-होते बढ़कर सत्रह से सत्ताईस दंगे हो गए।
मायावती के भ्रष्टाचार और उनके एक 'सिंडिकेट' में सिमटकर रह जाने की बड़ी कमजोरी या प्रवृति का ही लाभ मुलायम सिंह यादव को मिलता आ रहा है। राज्य में भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस, बसपा के पीछे चलने या उससे गठबंधन के कारण तीसरे और चौथे नंबर पर जा पहुंचे हैं। अब उनके कद्दावर नेता ही जैसे-तैसे समीकरणों के उलटफेर से जीत पा रहे हैं। आधारवान नेतृत्व के अभाव में इन दलों की प्रासंगिकता यूपी में खत्म होती जा रही है। समाजवादी पार्टी के सारे पद मुलायम सिंह यादव के ही भाई-भतीजों के पास हैं, इसलिए यह तथ्य समझने के लिए भी किसी और उदाहरण की कोई आवश्यकता नहीं है कि वे सर्वसमाज से कभी भी न्याय नहीं कर पाते हैं। यहसब देखने समझने के बाद मुलायम सिंह यादव के समाजवाद और राजनीतिक दर्शन की वास्तविकता सामने आ जाती है। देश के बाकी क्षेत्रीय दल और कुछ नेता कभी-कभी मुलायम सिंह यादव के बहकावे में जरूर दिखाई पड़ते हैं। कई वर्ष पहले उन्होंने आंध्र की पार्टी तेलुगू देशम के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू को फंसाए रखा और मुसलमानों एवं तीसरे मोर्चे का झूंठा सपना दिखाते रहे।
पश्चिम बंगाल में जबतक वामनेता ज्योति बसु और उधर वाम राजनीति के मैनेजर हरिकिशन सिंह सुरजीत जिंदा रहे, मुलायम सिंह यादव की भ्रम की दुकान खूब चली, मगर उनके जाते ही उन्हें वाम राजनीति में किसी ने घास नहीं डाली, गाहे-बगाहे कुछ थके-थकाए वामनेता उनसे मिलते रहते हैं। बंगाल के पूर्व मंत्री किरनमय नंदा को राज्यसभा में भेजकर उन्होंने बंगाल में सपा की मौजूदगी का एहसास कराने की कोशिश की लेकिन चल नहीं पाए। किरनमय नंदा बंगाल में एक दगे हुए कारतूस से ज्यादा कुछ नहीं माने जाते हैं। समाजवादी पार्टी ने बंगाल में 12-13 सितंबर 2012 को सम्मेलन किया था, जिसमें कुनबे के साथ मुलायम सिंह यादव कोलकाता पहुंचे, लेकिन वहां उनका कोई नोटिस नहीं लिया गया। मुलायम सिंह यादव के लिए बंगाल में कोई राजनीतिक जगह है ही नहीं। सवाल है कि वामदल या त्रणमूल कांग्रेस किसी तीसरी ताकत को बंगाल में खड़ा होने देगी? वामनेता ज्योति बसु केवल मुलायम सिंह यादव का इस्तेमाल करते थे, लेकिन मुलायम सिंह यादव समझते आए हैं कि ऐसा उनके राजनीतिक महत्व के कारण है।
ज्योति बसु ने लंबे समय तक बंगाल पर शासन किया और मुलायम सिंह यादव जबभी यूपी में सत्ता में आए तो अगली बार बेइज्जत होकर सत्ता से बाहर हुए, तो सवाल है कि किसने किसका इस्तेमाल किया? इसबार 2014 के लोकसभा चुनाव में ही सपा सरकार को उसकी कार्यप्रणाली का परिणाम मिल जाएगा, 2017 तो अभी बहुत दूर है, वहांतक पहुंचना भी सपा केलिए इतना आसान नहीं दिखता है। कुछ घटनाओं पर नज़र डालिए-मुलायम सिंह यादव ने इसबार राष्ट्रपति के चुनाव में एपीजे अब्दुल कलाम का नाम जिस एजेंडे के साथ उछाला था, उसे सभी ने तुरंत पकड़ लिया कि वह एजेंडा केवल लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोटों के लिए था। कलाम भी उनके चक्कर में दोबारा राष्ट्रपति बनने के सपने देखने लगे। उन्होंने ममता बनर्जी को भी कई दिन तक उकसाए और उलझाए रखा और अचानक ममता और कलाम का साथ छोड़कर वे कांग्रेस के साथ चल दिए। मजा देखिए कि उसमें भी मुलायम सिंह यादव ने प्रणव मुखर्जी के बजाए एनडीए के प्रत्याशी पीए संगमा को वोट दे दिया, जिसे उन्होंने भूल कहते हुए वह मतपत्र फाड़कर दूसरा मतपत्र लेकर प्रणव मुखर्जी को मतदान किया, लेकिन कांग्रेस और प्रणव मुखर्जी, मुलायम सिंह यादव की इस कभी ना भूली जाने वाली भूल का मतलब अच्छी तरह जानते हैं और यह भी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव को इस भूल की कीमत कब और कैसे चुकानी पडे़गी।
मुलायम सिंह यादव ने फिलहाल अपनी निजी और राजनीतिक विवशताओं के कारण और उत्तर प्रदेश में अपने बेटे अखिलेश यादव की सरकार को केंद्र से सहायता मिलते रहने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का आशीर्वाद ले रखा है, लेकिन समय आने पर कांग्रेस उन्हें तीसरा मोर्चा और उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का आइना भी जरूर दिखाएगी। इसी लोकसभा चुनाव में कितने मुसलमान उनके साथ खड़े हैं, इसका भी पता चल जाएगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि लोकसभा चुनाव, मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक दशा और दिशा भी तय करेगा। यह चुनाव मुलायम को सांप्रदायिक आधार पर राजनीति करने का परिणाम भी सिखाएगा। यह भी तय होगा कि पूर्ण बहुमत के बावजूद अखिलेश यादव सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा भी कर पाएगी कि नहीं? उत्तर प्रदेश सहित देश में जो अलगाववाद की राजनीति का वातावरण विकसित हो रहा है, वह कांग्रेस के विरुद्ध तो साफ दिखाई देता ही है, उसकी चपेट में मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी भी है। अब तो वैसे भी सांप्रदायिक एवं विघटनकारी शक्तियों के साथ खड़े रहने के अलावा मुलायम सिंह यादव के पास कोई और रास्ता भी नहीं है।
मुलायम सिंह यादव ने सर्वदा से जातीय राजनीति को भी पूरा बढ़ावा दिया हुआ है। जातिगत आधार पर थानेदारों और इंजीनियरों की ही पदस्थापना किसी से छिपी नहीं है। उनके शासनकाल में इसकी गंध फैली रही और यही गंध अखिलेश यादव सरकार में भी फैली हुई है। सांप्रदायिकता और जातिवाद में जातिवाद तो उनकी स्वाभाविक कमजोरी मानी जाती है, लेकिन सांप्रदायिक राजनीति अब उनका राजनीतिक एजेंडा बन चुकी है। उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर होने जा रही सरकारी भर्तियों में सपा का नया समाजवाद स्पष्ट रूपसे दिखेगा। यदि 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की सरकार आ जाती है और कहीं नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हो जाते हैं तो उत्तर प्रदेश में सपा का सत्ता में बने रहना या आगे सरकार में आना अत्यंत ही मुश्किल होगा। देखना है कि राज्य की जनता सपा की इस राजनीति को कबतक और कहांतक स्वीकार करती है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]