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राजनीति में ब्राह्मण फिर से मुख्य मुद्दा!

दिनेश शर्मा

चाणक्य-chanakya

ब्राह्मण!उत्तर भारत में सत्ता, राजनीतिक और सामाजिक जीवन का फिर से मुख्य मुद्दा बन गया है। आज ब्राह्मणों के महत्व और उनकी भूमिका पर खूब चिंतन हो रहा है और इनका समर्थन पाने के लिए भी राजनीतिक दलों में इनसे गठजोड़ की होड़ है। कल तक जिन्हें मनुवादी कहकर हांसिये पर धकेला जा रहा था, आज उनमें, खासतौर से बहुजन समाज पार्टी को ‘कस्तूरी’ नजर आने लगी है। भाजपा, कांग्रेस, सपा और अन्य राजनीतिक दल भी फिर से इन्हें अपने राजनीतिक एजंडे में रखकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं, जिससे इनका ‘राजयोग’ फिर से चमक उठा है। कैसी विडंबना है कि आज इनकी प्रचंड सामाजिक ताकत और काबलियत के कसीदे पढ़े जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के खिलाफ जबरदस्त जातीय नफरत पैदा करके खड़ी हुई, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के लिए, आखिर यही ब्राह्मण सत्ता के कारक बने हैं। आज वह इनका सहारा लेकर देश में सत्ता पर कब्जा करने की राजनीति करने निकली हैं। यह अलग बात है कि यूपी के बाहर गुजरात और हिमाचल प्रदेश में मायावती के इस फार्मूले की चाल पकड़ ली गई, जिससे यह कार्ड वहां चल नहीं पाया।
पिछले दो दशक में ब्राह्मणों से दूरी बनाये रखने की मानों प्रथा शुरू हो गई थी,पर आज बसपा ने ब्राह्मणों के समर्थन के लिए अपने यहां एक काडर ही स्थापित कर दिया है। भाजपा ब्राह्मणों को अपना परंपरागत सहयोगी और समर्थक मानती रही है। लेकिन उपेक्षित होकर जब वह भाजपा से दूर भागने लगा तो उसने भी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सेवा शुरू कर दी है। कांग्रेस ने एक ब्राह्मण और वह भी एक महिला रीता बहुगुणा जोशी को अपना उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाया है। सपा भी उससे पीछे नहीं है। उसने भी सनातन ब्राह्मण समाज के एक संगठन को अपने से जोड़ लिया है। मुलायम सरकार के दौरान मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी ने सपा के लिए प्रदेश भर के ब्राह्मणों के सम्मेलन किये ही थे। यह अलग बात है कि इनका कुनबा आज प्रदेश में बसपा की सरकार आते ही सपा छोड़कर बसपा में चला गया। सपा के नेता कमलेश पाठक के ब्राह्मण सम्मेलन के पोस्टर बैनर तो अभी भी नहीं उतरे। संगठनात्मक चुनावों में सभी राजनीतिक दल अपने पदाधिकारियों की सूची जारी करते हुए यह बताने में काफी जोर दे रहे हैं कि उन्होंने अपने संगठन में ब्राह्मणों को सर्वोच्चप्राथमिकता दी है।
चाणक्य भी एक ब्राह्मण था, जिसने सदियों से सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में चली आ रही ब्राह्मणों की उपयोगिता सिद्घ की है। किंतु समाज में एक तबका ऐसा भी है जो हमेशा ब्राह्मणों से नफरत और असहज महसूस करता आया है, बल्कि उसका पूरा सामाजिक ताना-बाना और अस्तित्व ही ब्राह्मण विरोध पर टिका है। इन तीन दशकों में उत्तर भारत में और विशेष रूप से यूपी में इसकी कमान कांशीराम और मायावती के हाथ में ही रही है, और आज भी है, लेकिन उसके तौर तरीके बदल गए हैं। इनका ब्राह्मणों के खिलाफ आक्रामक संघर्ष का एक इतिहास है। इस विषय पर इतिहासकारों, राजनीतिज्ञों, सामाजिक चिंतकों ने समय-समय पर अपने-अपने नजरिये से खूब लिखा है। ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में जहर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए, इनके आगे-पीछे भाग रहे हैं। इस समय बसपा अध्यक्ष मायावती के ब्राह्मण प्रेम से बड़ा ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा?
‘ब्राह्मण’ गैर ब्राह्मणों में नकारात्मक प्रतिक्रिया पैदा करते आए हैं। उत्तर-दक्षिण भारत में समय-समय पर ब्राह्मणों के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं। इन्हीं मे से कईयों ने बाद में ब्राह्मणों का सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक महत्व स्वीकार करते हुए ऐसे आंदोलनों से किनारा भी किया है। ऐसा करते समय आलोचकों ने चाहे अपनी गरज से ही,ब्राह्मणों के गुणों की आदर्श व्याख्याएं की हैं। इन अवस्थाओं की पुष्टि के लिए अनगिनत दृष्टांत प्रस्तुत किये जा सकते हैं। यूं तो ‘ब्राह्मण’ और ‘पंडित’ इन दोनों शब्दों के अर्थ भी अलग-अलग हैं। ब्राह्मण शब्द का प्रचलित संबंध जाति से है, जबकि पंडित का आशय विद्वान से माना जाता है जो किसी भी जाति और धर्म में हो सकता है। बहुत सी जातियां और उप जातियां हैं, जो अपने नाम के सामने पंडित लगाती हैं। कुछ लोग अपने नाम के आगे ‘शर्मा’ लिखते हैं, मगर इसका प्रयोग दूसरी पिछड़ी जातियों में भी होता है। मगर आज इनकी भी ब्राह्मणों की आड़ में राजनीतिक लाटरी खुल गई है।
जनसंख्या अनुपात में सबसे कम होने के बावजूद ब्राह्मण का अस्तित्व हमेशा से एक जटिल चुनौती कायम किये हुए है। शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट मान्यता दी गई है। किंतु आज भी यह झगड़ा कायम है कि देश के आबादी प्रतिशत में सबसे कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? आजादी के बाद से आज तक यह अनुपात घटाने के लिए जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं उनके सकारात्मक परिणाम क्यों नहीं सामने आए? राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या गुट, ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का इस्तेमाल या विरोध, अपने राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ती या सलामती के लिए करते आए हैं, इसे कौन नहीं जानता और समझता? उत्तर भारत में और खासतौर से यूपी में इन तीन दशकों में तिलक तराजू ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध पहले चरम पर पहुंचा और अब यह सत्ता का कारक है।
अतीत में देखें तो उत्तर-दक्षिण भारत में जाति-भेद का पहला शिकार ब्राह्मण ही हुआ है, इसलिए इसका विरोध आंदोलन के रूप में सामने आया। दलित समाज के नेताओं ने इसे अपना खास हथियार बनाया और ब्राह्मण विरोध की कमान संभाली और धीरे-धीरे यह आंदोलन कई धाराओं में चल पड़ा। लेकिन यह भी हुआ कि इनके विरोध के साथ-साथ गैर ब्राह्मण भी ब्राह्मणों के पक्ष में उतरे। जिससे आज तक यह सिद्घ नहीं किया जा सका है कि ब्राह्मण रंगभेद या अन्य तरीके से पक्षपात या दूसरों पर अत्याचार के लिए दोषी हैं। लंबे विरोध के बाद ब्राह्मण विरोधी ताकतों में आज उनके लिए सकारात्मक परिवर्तन आया है। सारे राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों का विरोध करते-करते अचानक उनका समर्थन हासिल करने या उन्हें चुनाव लड़ाने की हवा सी चल पड़ी है। बसपा की बैठकों या उसके सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाषणों की भाषा ही बदल गई है।
राजनीतिक टीकाकारों का अभिमत है कि बसपा अध्यक्ष मायावती जिस नजरिये से ब्राह्मणों के पीछे चल रही हैं, उससे उन्हें आगे चलकर फायदा कम, नुकसान ज्यादा है, क्योंकि वे ब्राह्मणों को केवल सत्ता हासिल करने का कार्ड मानकर चल रही हैं। जबकि ब्राह्मण मायावती की नीतियों का आंख मूंदकर समर्थन नहीं कर सकता। मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश के तीन टुकड़ों में विभाजन सहित जिन विवादास्पद सामाजिक समीकरणों और कार्यक्रमों को लेकर चल रही हैं, उनसे ब्राह्मणोंका जब भी टकराव हो गया तो फिर मायावती के पास अगला कोई कार्ड नहीं बचा है, जिससे उन्हें अपने घर में ही भारी राजनीतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ सकता है। मौजूदा हालात तो इसी की तरफ जा रहेहैं जिनकी असली परीक्षा लोकसभा चुनाव में हो जाएगी। और आगे क्या होता है, प्रतीक्षा कीजिए!

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