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'आई हेट पॉलिटिक्स' मगर क्यों...?

असमा फातिमा

असमा फातिमा

आई हेट पॉलिटिक्स - i hate politics

i hate politicsलखनऊ। पत्रकारिता की एक छात्रा होना मेरे लिए रोज एक रोमांचकारी सफर पर निकलने के बराबर है और लखनऊ विश्वविद्यालय जहां मै अध्ययनरत हूं, रोज देखती हूं कि यहां किस तरह राजनीतिक-अपराध-समाज और शिक्षा के बीच चौबीस घंटे घोर द्वंद चलता है। कभी तो लगता है कि छात्र राजनीति के नाम पर हमारे विश्वविद्यालयों का उपयोग खींच-तान, मार-धाड़, छीना-झपटी के लिए ज्यादा हो रहा है। वहां के ऐसे परिदृश्यों से हमारे लिए ऐसा कुछ न कुछ मिलता ही रहता है, जिस पर सदैव हज़ार सवाल खड़े रहते हैं। मस्तिष्क पर टहलते ऐसे सवालों और विचारों के बीच एक दिन सवेरे ही इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर एक युवा की पोस्ट पर मेरी नज़र पड़ी-'आई हेट पॉलिटिक्स।' किसी युवा के मन में राजनीति के प्रति इतनी गहरी निराशा? जिसमें उसके आर्थिक, शिक्षा, समाज और देश की प्रगति से जुड़े महत्वपूर्ण फैसले होते हों और जो किसी लोकतंत्र की नीव कही जाती हो, उस राजनीति को लेकर इतनी नफरत? आखिर क्या हुआ जो वह बहुत जल्दी एक निष्कर्ष पर पहुंच गया?
मगर लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र संघ भवन के परिसर में लगीं और फूल मालाओं से लदीं आदमकद मूर्तियों की तरफ देखकर मैने खुद से पूछा कि अगर वास्तव में ये यहां छात्र नेता हुए हैं तो विश्वविद्यालय परिसर अराजकता, चौपट पढ़ाई और आए दिन बम, गोली, झगड़ों के लिए क्यों बदनाम है? इन कथित छात्र नेताओं ने लखनऊ विश्वविद्यालय के गौरवमयी इतिहास और उसके अतीत से क्या सीखा? और यहां के शैक्षिक वातावरण के लिए क्या किया? माफ कीजिएगा इनमें से अधिकांश मूर्तियों के पीछे अपराध की खतरनाक कहानियां हैं, अब छात्रसंघ, नैतिक मूल्यों की राजनीति से भटक गए हैं और उनकी जगह बदनाम, ठेकेदारों और कुछ पेशेवर बदमाशों ने ले ली है।
लखनऊ विश्वविद्यालय राजनीति का एक बड़ा चिंतन केंद्र माना जाता है, जहां लगभग हर रोज खास-ओ-आम के बारे में बड़े-बड़े मनीषी व्यापक चिंतन करते हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा सहित न जाने कितने दिग्गज राजनेता, नौकरशाह, साहित्यकार और शिक्षाविद हुए हैं जो एलयू में पढ़े हैं और छात्रावास में उनका अध्ययन कक्ष अंत:वासियों के लिए एक प्रेरणास्रोत बनाए रखा गया है, मगर तब भी आए दिन सुनते हैं कि यहां के छात्र नेता ये कर रहे हैं वो कर रहे हैं। आई हेट पॉलिटिक्स का उत्तर तलाशने के लिए एक दिन मै उस हॉस्टल की ओर बढ़ती हूं जहां शंकर दयाल शर्मा का अध्ययन कक्ष है तो एक मित्र ने मुझे उस तरफ बढ़ने से रोक दिया। मैने पूछा कि ऐसा क्यों? उसका उत्तर था कि वहां अब वैसा माहौल नहीं रहा है जैसा आप समझ रही हैं, हॉस्टल के छात्रों का रहन-सहन देखकर आप डर जाएंगी! कैसे? वहां कोई तमंचे साफ कर रहा होगा और कोई हाथ मे पिस्टल नचा रहा होगा, किसी के कक्ष में बम रखे होंगे तो किसी के कक्ष में घातक असलहे और क्या? तब मैंने अपने आप को भी राजनीति से निराश उस युवा की धारणा के कुछ करीब पाया।
लेकिन एक रिपोर्टर होने के नाते इस धारणा के वृहद क्षेत्र में जाना मेरे लिए जरूरी हो गया है इसलिए मैने एलयू परिसर में और कुछ बाहर के छात्र-छात्राओं एवं युवाओं से बात-चीत की और पाया कि वास्तव में राजनीति के प्रति निराशा का भाव हर तरफ मौजूद है। ऐसा लगता है कि इसके पात्र युवाओं ने इसे समाज विरोधी तत्वों, ठेकेदारों और माफियाओं के हवाले कर दिया है और खुद अपने भविष्य के लिए दूसरे सुरक्षित रास्ते खोज रहे हैं।
फेसबुक पर मैंने जिन युवाओं के पॉलिटिकल व्यूज देखे हैं, वे सभी 18 से 25 वर्ष के बीच की उम्र के हैं और अधिकांश की धारणा राजनीति के बारे में नकारात्मक या निल ही पाई है। इस विषय ने मुझे काफी चिंतन की ओर धकेला है, इसलिए मैंने अपने कॉलेज के दोस्तों और युवाओं के विचार जाने कि क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं? मैने लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर को इस सवाल के जवाब के लिए सबसे उपयुक्त समझा। आखिर देश का शासन तो राजनीति नेतृत्व से ही चलता है और आगे चलकर उसकी बागडोर इन्ही युवाओं के हाथों में ही रहेगी, फिर इससे इतनी नफरत क्यों? अब ये सवाल बहुत महत्व रखता है कि आखिर राजनीति प्रतिभाशाली युवाओं की कॅरियर लिस्ट में क्यों नहीं है?

अर्चना एमकॉम कर चुकी है। रिटायर्ड नौकरशाहों या अन्य अधिकारियों के राजनीति में आने के प्रचलन पर वह कहती है कि आज उन्हीं की बनाई नीतियों पर नेता चल रहे हैं, नेताओं को क्या आता है? सिर्फ भाषण देना। असली हीरो वही लोग हैं और उनमें से कुछ रिटायर होने के बाद नेता बनकर राजनीति का लाभ उठाते हैं, इसलिए युवा भी राजनीति की तरफ न जाकर सिविल सर्विसेज को चुनता है जो उसे साफ-सुथरी और इज्जत वाली नौकरी लगती है।

इंजीनियरिंग की छात्रा सना कहती है कि हम ऐसी जगह प्रवेश क्यों करें जहां हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है, यहां राजनीति एक ऐसा दलदल है जिसमें आप धसते चले जाते हैं, आपको भी उन अपराधियों के साथ बैठना होता है जिनसे पहले से ही समाज नफरत करता है। सना कहती है कि लड़कियों को अपनी पढ़ाई के लिए ही कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है, परिवार वाले ऐसी राजनीति में कहां प्रवेश करने देंगे? व्हाइट कॉलर जॉब के साथ अपनी मेहनत से पैसा कमाकर आराम से जिंदगी बिताना चाहता है।

हेमा बीएससी कर चुकी है और एमएससी कैमेस्ट्री से कर रही है, वह भी युवा टैलेंट की राजनीति में मौजूदगी जरूरी समझती है और कहती है कि महिलाओं के लिए संसद में आरक्षण का विरोध हुआ है इससे पता चलता है कि राजनेता नहीं चाहते कि महिलाएं राजनीति में आएं, उन्हें महिलाओं का दबदबा मंजूर नहीं है, यदि महिलाओं को चुनाव में उतारा गया होता तो राजनीतिक परिदृश्य ही कुछ और होता और जो गंदगी राजनीति में उतर गई है वह भी साफ हो जाती।

आकांक्षा ने एलयू में बीटेक में प्रवेश लिया है। उसका कहना है आज महिलाओं के लिए कोई भी क्षेत्र आसान नहीं है, उसकी कामयाबी के पीछे क्या-क्या परेशानियां गुज़री यह केवल वही जानती है और रही बात राजनीति में प्रवेश की तो राजनीति पुरूषों का कार्यक्षेत्र माना जाता है और कोई भी पुरूष सही तौर पर ये नहीं चाहता कि महिलाएं इस क्षेत्र में आकर उनकी जगह लें।
रोली कहती है कि जो महिलाएं राजनीति में हैं वे किसी न किसी राजनेता की पत्नी, बहू या बेटी है और जो इनके अलावा हैं उन्हें इसमें आने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ये उन्हीं से पूछा जाए। मै तो इस क्षेत्र में नहीं जाना चाहती। किसी लड़की पर आगे चलकर जिम्मेदारियों और मुश्किलों की कोई कमी नहीं होती, उसे जन्म से लेकर शिक्षा, विवाह तक में परेशानियों को देखना होता है और अपने अस्तित्व को बनाए रखना होता है। आज ऐसी राजनीति में कोई नहीं जाना चाहेगी।

पल्लवी मासकॉम की छात्रा है। महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के लिए संसद में आरक्षण की जरूरत बताते हुए पल्लवी कहती है कि महिला को इसलिए भी राजनीति में आना चाहिए कि देश की गाड़ी सिर्फ पुरूषों से ही नहीं चल सकती है, महिलाओं और युवाओं के राजनीति में आने से काफी कुछ बदलेगा, यदि मुझे आरक्षण का लाभ मिलता है और मैं अपने भविष्य को लेकर निश्चिंत हूं तो मैं जरूर इस क्षेत्र में आना पसंद करूंगी और तभी मैं समाज और देश के लिए अच्छा करने की कोशिश कर सकूंगी।
दिव्या का कहना है कि वह पल्लवी से सहमत है क्योंकि यदि महिलाओं को पूरे जोश और इच्छाशक्ति के साथ राजनीति में प्रवेश की छूट होती तो आज महिलाओं के लिए आरक्षण बिल की आवश्यकता ही नहीं होती।

रज़िया बानो मीडिया में हैं। उनका कहना है कि युवाओं को राजनीति में आना चाहिए, क्योकि लोकतंत्र में राजनीति से ही शासन व्यवस्था नियंत्रित होती है, राजनीति ही एक सर्वश्रेष्ठ शासन दे सकती है, शासन करना सिखाती है और यदि कोई इसमें सक्षम नहीं है तो राजनीति को दोष क्यों? आज के राजनीतिज्ञ जिसे राजनीति कह रहे हैं वास्तव में वह उनकी निजी नीति है, वे अपना भला कर रहे हैं देश का नहीं, राजनीति तो हर क्षेत्र से जुड़ी है बस उसके रूप बदल जाते हैं, भ्रष्ट राजनेताओं से देश को मुक्त करने के लिए युवाओं को ही आगे आना होगा।
शमा परवीन इंटर की छात्रा है। वह देश की सामाजिक एवं शैक्षिक प्रगति के लिए मूल्यों की राजनीति की वकालत करती है। उसका कहना है कि जिस देश का राजनीतिक नेतृत्व सक्षम और मूल्य आधारित होगा वह देश और समाज भी उतनी ही प्रगति करेगा। आज युवाओं के मन में राजनीति के प्रति उदासीनता है इसलिए उनकी कॅरियर लिस्ट में भी राजनीति नहीं है जोकि अत्यंत चिंताजनक विषय है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी भी बहुत जरूरी है क्योंकि एक महिला सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बड़ी जिम्मेदारी निभाती है इसलिए उनको राजनीति में भी आना चाहिए।

कंचन खन्ना शारीरिक रूप से अक्षम है लेकिन मानसिक रूप से वह बड़ी-बड़ी शक्तियों का मुकाबला कर रही है। उसकी शारीरिक अक्षमता ने उसकी पढ़ाई में भी बाधा पहुंचाने की कोशिश की लेकिन आज अपने बल पर अंग्रेजी की ग्रामर लिख रही है। राजनीति के बारे में वह इतना कहती है कि जब मैं एक विकलांग होकर सारी बाधाओं का सामना कर सकती हूं तो युवा देश की राजनीति को अपने हाथ में कैसे नही ले सकते। उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ना ही होगा। राजनीति के प्रति निराशा कैसी? उन राजनीतिज्ञों को उखाड़ फेंकिए जिन्होंने इसे अपने आर्थिक विस्तार का धंधा बनाया हुआ है और जो दुनिया में भारतीय राजनीति को कलंकित करते फिर रहे हैं। कंचन कवि दुष्यंत की कविता की दो लाइनें सुनाती है-

'कैसे आकाश में सुराख नही हो सकता,

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।।'

काजी का कहना है कि वह पॉलिटिक्स में आना चाहता है लेकिन वह भी इस बात से परेशान है कि राजनीति में आने के लिए उसे हिस्ट्रीशीटर भी बनना होगा, जेल जाने का तजुरबा भी होना चाहिए तभी उसे जनता भी जान पाएगी। काजी की बात का बाकी युवक तालियां बजाकर स्वागत करते हैं।

आदित्य एक मेधावी छात्र है और इंटर पासआउट के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में आया है। वह कहता है कि 'राजनीति का मतलब ही दुष्टता है' वह राजनीति में इसलिए नहीं आना चाहता क्योंकि उसे वह सब करना पड़ेगा जो हमारा ज़मीर गवारा नहीं करेगा, अपने को ऊपर रखने के लिए दूसरों को दबाकर दुष्टता दिखानी पड़ेगी, जैसी कि देखी जा रही है। यह बारहवीं पास स्टूडेंट की राजनीतिक सोच है।

शिवम बीबीए का छात्र है मगर वह राजनीति से नफरत नहीं करता है अपितु उन राजनीतिज्ञों से नफरत करता है जो कि गलत काम करते हैं और गलत लोगों को संरक्षण देते हैं।

अगर प्रतिभाशाली युवा राजनीति में नहीं आएगा तो देश कैसे प्रगति करेगा? इस प्रश्न पर हरप्रीत जोकि एक अध्यापक भी हैं, दावा करते हैं कि बिना राजनीति में प्रवेश के भी आज का युवा देश को विकसित देश बनाने में सक्षम है, उसे आज के राजनीतिज्ञों और राजनीति में घोर अंधकार नज़र आता है जिससे वह अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहता है। वह अपने परिवार के साथ तनाव रहित जीवन जीना चाहता है और वह भी व्हाइट कॉलर जॉब के साथ।

आसिम एक साफ्टवेयर इंजीनियर है और इसी क्षेत्र में अपनी काबलियत दिखाना चाहता है। राजनीति के बारे में उसका कहना है कि यहां के राजनेता अपने सामने पढ़े-लिखे युवाओं को नहीं लाना चाहते, दूसरी बात अशिक्षित जनता भी उनका सपोर्ट नहीं करती है, वे फरमाते हैं-
जम्हूरियत एक तर्ज-ए-हुकूमत है जिसमें,
बंदों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते।
आसिम की इस बात का आस-पास खड़े काफी युवा समर्थन करते हैं।

अनुराग अपनी उन्नति और भारत को विकसित देश के रूप में देखना चाहता है लेकिन इससे पहले वह चाहता है कि भ्रष्ट नेताओं का सफाया होना चाहिए, राजनीति की गंदगी साफ हो जाएगी तो युवा जरूर अपनी सोच बदल देगा वह भ्रष्टाचारियों को चाहे उनमें नेता या कोई और, उन्हें फांसी पर लटकाने की बात कहता है। उसकी दिलचस्पी राजनीति में तो है लेकिन मौजूदा वातावरण में वह राजनीतिज्ञों से खुश नहीं है।

एहतेशाम एक साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। सामाजिक विषयों में दखल रखते हैं और राजनीति को पसंद करते हैं, मगर ऐसी राजनीति नहीं जैसी आज हो रही है। एहतेशाम का कहना है कि यदि व्यवस्था में सुधार या बदलाव लाना है तो कहीं न कहीं से तो शुरूआत करनी ही होगी, बाहर रहकर तो व्यवस्था ठीक नहीं की जा सकती, यदि सभी युवा राजनीति के प्रति नकारात्मक सोचने लगेंगे तो यह ठीक नहीं है, आज सबके मन में देश के राजनीतिज्ञों से भारी निराशा जरूर है क्योंकि देश का हर महत्वपूर्ण मसला फंसा हुआ है जिसकी वजह राजनीतिज्ञ हैं जो देश हित के मामलों में भी एक मंच पर नहीं हैं। पढ़े-लिखे और योग्य युवाओं को मौका मिलना चाहिए और यह राजनीतिक दल कर सकते हैं, युवाओं को भी इसके लिए पहल करनी होगी।

ताबिश राजनीति में आना चाहता है। मगर वह यह भी कहता है कि इसमें जाने के लिए जो तैयारियां करनी होंगी उनमें सबसे पहले अपनी आत्मा को मारना होगा, वोट बैंक बढ़ाने के लिए झूठी उम्मीदों से भरी बातें आम लोगों के साथ करनी होंगी, दंगों को भड़काने में एक्सपर्ट होना पड़ेगा और जब तक यह सब नहीं होगा तब तक कोई राजनीतिक पार्टी टिकट भी नहीं देगी। भारत की जनता आज धर्म, जाति, बिरादरी को देखकर वोट देती है और इसी का फायदा नेता उठाते हैं, युवा ऐसे ही कारणों से राजनीति में प्रगति नहीं कर पाता है। ताबिश की यह धारणा राजनीति में सक्रिय लोगों को एक चुनौती देती है।

अभिषेक एमबीए में प्रवेश के लिए कैट की तैयारी कर रहा है। वह राजनीति से दूर रहना चाहता है। वह कहता है कि इसमें करप्शन है जो अपनी हदें पार कर चुका है। अभिषेक यह भी कहता है कि वैसे तो करप्शन हर क्षेत्र में है लेकिन राजनीति इसका गढ़ है, आज युवा करप्टेड सिस्टम से दुखी है और इसे समाप्त तो करना चाहता है लेकिन राजनीति और उसमें भ्रष्टाचार इतना ताकतवर है कि चाहकर भी इससे लड़ाई नहीं लड़ सकता।

सूर्य प्रकाश का कहना है कि राजनीतिज्ञों ने जनसामान्य को अत्यंत निराश किया है जिससे सबसे ज्यादा युवा तबका प्रभावित है। युवा राजनीति में तो आना चाहता है लेकिन यह जरूरी नही है कि राजनीतिक समीकरण उसके पक्ष में हों। जहां जात-पात की राजनीति चरम पर हो वहां पढ़े-लिखे लोगों का राजनीति में तभी वजूद है जब वे जात-पात की योग्यता भी पूरी करते हों। राजनीतिक दल अपना जनाधार बढ़ाने के लिए धन, जन और बाहुबल को प्राथमिकता दे रहे हैं यदि ये चाहें तो युवा राजनीति में अवसर पा सकते हैं। जिन राजनीतिक दलों में अपना वोट स्थानांतरित करने की शक्ति है तो वे राजनीतिक स्वच्छता और अच्छे नेतृत्व के लिए योग्य युवाओं को चुन सकते हैं।
डॉ रजनीश कहते हैं कि प्रतिभाशाली युवाओं को राजनीति में आना चाहिए, हम नेताओं को दोषी क्यों ठहरा रहे हैं उन्हें चुनकर तो हम ही लोग भेजते हैं, यदि हम युवाओं को चुनेंगे तो वे भी आएंगे और पढ़ा-लिखा युवा यदि आम लोगों से जुड़ेगा तो जनता भी उसका साथ देगी। वे कहते हैं कि युवा सोचता है कि इतना पैसा खर्च करके हमने पढ़ाई की है इसलिए कोई काम करेंगे या नौकरी करेंगे, अब यदि उसे ऑफिस से वापस आकर डिस्को पार्टी में जाना है तो वह पॉलिटिक्स में क्यों चुनेगा?
प्रसून प्रबंधन की पढ़ाई कर रहा है। महिला आरक्षण के सवाल पर उसकी अलग राय है। वह कहता है कि इस तरह कुछ नहीं होने वाला है अगर आरक्षण देना ही है तो युवाओं को दिया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति के लिए प्रोत्साहित हों, आज का युवा खुले विचारों वाला है, वह सभी काम सही और सही समय पर करना चाहता है और करने की क्षमता भी रखता है। वह महिला आरक्षण का समर्थन तो करता है लेकिन उसे आशंका है कि इसमें भी आम युवतियों की जगह नेताओं की पत्नी, बहु और बेटी को ही अवसर मिलेगा।
राजनीति में आने के लिए युवाओं के ये तर्क, विचार, असहमतियां और शर्तें उसी राजनीति की देन हैं जिसको लेकर एक युवा ने फेसबुक पर पोस्ट किया है कि आई हेट पॉलिटिक्स। हालॉकि ऐसा नहीं है कि युवाओं का झुकाव राजनीति में नहीं है, देश की संसद में कई युवा चेहरे हैं, यह अलग बात है कि उनमें अधिकांश राजघरानों से या राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए हैं। युवाओं में एक तबका वह है जो राजनीति को अंतिम विकल्प के रूप में अख्तियार कर रहा है। इस तबके में सभी श्रेणी के युवा हैं जिनमें अपराधी भी हैं जिनके बल पर राजनीतिज्ञ चुनाव जीतकर आ रहे हैं और अब उन अपराधियों ने राजनीतिज्ञों की जगह ले ली है। विश्वविद्यालयों की राजनीति भी इससे अछूती नहीं है, यहां पर बदनाम छात्र नेता प्रतिभाशाली छात्रों को भी अपनी राजनीतिक गंदगी का शिकार बनाते हैं जिससे उनका राजनीति के प्रति नज़रिया बदल रहा है।

राजनीतिक पार्टियों की पहल ही युवाओं में राजनीति की इच्छा जगा सकती है, बशर्ते वे युवाओं को मौका दें और छात्रों के वेश में विश्वविद्यालयों में घुसपैठ करने वाले अपराधियों को अपने यहां किसी भी रूप में संरक्षण नही दें, क्योंकि राजनीति, देश, संस्कृति और मूल्यों के लिए है न कि बदमाशों के लिए। यदि फेसबुक पर युवाओं में राजनीति को लेकर घोर निराशावादी धारणाएं घर कर रही हैं तो इसके गंभीर कारण हैं जोकि भारतीय राजनीति के लिए अच्छे संकेत नहीं कहे जा सकते। इस गहरी निराशा को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक दलों को कुछ तो उपाय करने ही होंगे ताकि धरती पर मनुष्य के लिए अनंतकाल से सर्वश्रेष्ठ उत्तरदान मानी जाने वाली 'राजनीति' के प्रति युवाओं के दिल और दिमाग में विश्वास लौट सके। आखिर लोकतंत्र में इन्हीं के हाथों में तो देश के भविष्य का निर्माण निहित है।

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